मस्ती के आलम में
कहां से चली आई
एक परीक्षा
जिसके लिये
मै बिल्कुल तैयार नहीं
क्या बताऊं !
मेरा तो बज गया बाजा
मै ऊंघ रहा हूं
स्वप्न में भी
यह परीक्षा है या स्वप्न ?
पर यह भाव कि
खेला किया और गवांया जीवन
पढ़ा नहीं और अब
असफल कोशीश !
क्या करुं ?
थर थर कांपे तन मन
कितना असहाय !
बेखबर दुनियां से
अनाथ अनजान सा
डरा सहमा सा
मर गया मैं या मेरी नानी
पर श्राद्धपींड नजर आ गये।
काली डरावनी
गुफा मे खो गया टाइमटेबल
घंटी बजेगी घनघन …
प्रश्न कब होंगे सामने
कुछ पता नहीं
शायद आज ही !
अचानक कापी बनी आसमान
मेरा हाथ कलम
सूख गई सतकर्मों की स्याही
सामने यमराज सा परीक्षक
या फिर परीक्षक सा यमराज !
पता ही न चला
कैसी परीक्षा ? कैसी निन्द्रा ?
बाप रे बाप !
बचाओ मुझे बचाओ !!
मैं देख रहा हूँ
अपना ही मृत शरीर
यह मेरी नींद है या चिरनिंद्रा ?
घेरे हुये स्वजन
रोती बिलखती
और चीखती चिल्लाती पत्नी
फिर भी मेरी…
आंख क्यों नहीं खुल रही !
- हरिहर झा
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11 कविताप्रेमियों का कहना है :
काली डरावनी
गुफा मे खो गया टाइमटेबल
घंटी बजेगी घनघन …
प्रश्न कब होंगे सामने
कुछ पता नहीं
शायद आज ही !
अचानक कापी बनी आसमान
मेरा हाथ कलम
सूख गई सतकर्मों की स्याही
सामने यमराज सा परीक्षक
या फिर परीक्षक सा यमराज !
पता ही न चला
कैसी परीक्षा ? कैसी निन्द्रा
" बहुत सुंदर कवीता,"
Regards
अच्छी लगी आपकी रचना ..!!
हा हा हा हा...
हरिहर जी आपने अपने परीक्षा के समय का बड़ा ही अच्छा वर्णन किया है,अब मुझे पता चला कि परीक्षा का भूत कोई नए ज़माने का नहीं वरन बहुत पुराने समय से अस्तित्व में है,
अच्छा लगा,
आलोक सिंह "साहिल"
अच्छी रचना है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
परीक्षा पोल खोल देती है कि विद्यार्थी इसके पहले तैयार था कि नही। मजेदार रचना।
परीक्षा से आज भी डर सा लगता है ,बहुत सुंदर रचना
हरिहर जी स्कूल के दिन याद दिला दिए आपने..... हाँ आते हैं आज भी ऐसे डरावने ख्वाब कभी कभी....हा हा हा
धन्यवाद । जैसा कि मैंने कविता के अन्त में रहस्योदघाटन किया है मैं मर चुका हूं
वैसे मरने के बाद भी आप लोगों से संपर्क बनाये रखने का मैंने अच्छा तरीका ढुंढ निकाला है। :-)
अति सुंदर हरिहर जी-
जिसके लिये
मै बिल्कुल तैयार नहीं
कोई खटखटाता दरवाजा
मेरा तो बज गया बाजा
मै ऊंघ रहा हूं
स्वप्न में भी
यह परीक्षा है या स्वप्न ?
साधुवाद
हरिहर जी!
मेरे अनुसार कविता की शुरूआत इसकी एक कमजोर कड़ी है।
कोई खटखटाता दरवाजा
मेरा तो बज गया बाजा
इन पंक्तियों से बचा जा सकता था।
थर थर कांपे तन मन
कितना असहाय !
बेखबर दुनियां से
अनाथ अनजान सा
डरा सहमा सा
इन पंक्तियों तक आते-आते आप कुछ-कुछ रंग में ढलते नज़र आते हैं।
लेकिन कविता का प्लस प्वाइंट इसका क्लाईमेक्स है। कविता अंतिम पंक्तियों में कवि की प्रतिभा का बयान करती है।
इसलिए मैं आपसे आग्रह करूँगा कि अगली बार से कोई कमजोर कड़ी न रहने दें। आपसे बहुत हीं अपेक्षाएँ हैं।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
पता ही न चला
कैसी परीक्षा ? कैसी निन्द्रा ?
बाप रे बाप !
बचाओ मुझे बचाओ !!
मैं देख रहा हूँ
अपना ही मृत शरीर
यह मेरी नींद है या चिरनिंद्रा
सुंदर रचना .....
अच्छी लगी .....
बधाई
स-स्नेह
गीता पंडित
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