खेल कुर्सी का है यार यह,
शव पड़ा बीच बाज़ार यह ।
कैसे जीतेगी भुट्टो भला,
देते हैं पहले ही मार यह ।
नाम लेते हैं आतंक का,
रखते हैं खुद ही तलवार यह ।
रात दिन हैं सियासत करें,
करते बस वोट से प्यार यह ।
भूल कर भी न करना यकीं,
खुद के भी हैं नही यार यह ।
दल बदलना हो इनको कभी,
रहते हर पल हैं तैयार यह ।
देख लें घास चारा भी गर,
खूब टपकाते हैं लार यह ।
पेट इनका हो कितना भरा,
सेब खाने को बीमार यह ।
अब करें काम हम अपने सब,
छोड़ बातें हैं बेकार यह ।
कवि कुलवंत सिंह
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
खेल कुर्सी का है यार यह,
शव पड़ा बीच बाज़ार यह ।
कैसे जीतेगी भुट्टो भला,
देते हैं पहले ही मार यह ।
"बहुत तीखा प्रहार आज के कुर्सी के खेल पर, अच्छी रचना"
Regards
कुलवंत जी,
रचना प्रभाव नहीं छोडती। सारे शेर घिसे पिटे कथ्य की पुनरावृत्तियाँ से बन पडे हैं। केवल यह शेर कुछ कह सका है:
पेट इनका हो कितना भरा,
सेब खाने को बीमार यह ।
*** राजीव रंजन प्रसाद
पेट इनका हो कितना भरा,
सेब खाने को बीमार यह ।
बहुत बढ़िया बधाई
सियासत की पोल खोलती रचना....सुंदर है... कुलवन्त जी....
शुभ-कामनाएं
स-स्नेह
गीता पंडित
राजीव जी की बात पर कान दीजिए। बाकी सब ठीक है।
"बहुत अच्छी रचना"
कुलवंत जी,
जबर्दस्ती लिखी हुई रचना लगती है। आपने इसमें दिल नहीं लगाया। केवल मजे के लिये लिखी लगती है।
धन्यवाद
तपन शर्मा
गंभीर मुद्दे को छूने की कोशिश की है पर कहीं कहीं तुकबंदी के चक्कर मे गंभीरता खो सी जाती है अच्छा प्रयास है
सरल रचना है कुछ बात कहने का कोशिश करती |
अवनीश
कुलवंत जी,
नेताओं की खूबियों को बखूवी उभारा है आपने अपनी रचना में.. बधाई
आप सभी के प्यार और उलाहने को सर आखों पर लेते हुए.... आप का अपना ही.. कवि कुलवंत
कवि जी,
हालाँकि गजल में कुछ कमी भी नहीं
मगर इस बार कुर्सी कुछ जमी भी नहीं...
-नमस्कार
बधाई हो कुलवंत जी,अच्छी रचना
आलोक सिंह "साहिल"
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