अब शादी कर दें तेरी?
मज़ाक में माँ चहचहाकर पूछती है
और एक चिड़िया
चोंच में तिनके दबाए
उड़कर आ बैठती है रोशनदान में
मुस्कुराती माँ उड़ाती है उसे
और मैं उसके हाथों में थमा देता हूं
एक तस्वीर
अपनी ख़ूबसूरत गौरैया की।
मैं आँखें गड़ा लेता हूं
उन धुंधलाई आँखों में
जिनकी मुस्कुराहट को
मैंने उड़ाया है अभी अभी
और मेरी मुंहफट आँखें
उसे गाली सी देती हुई कहने लगती हैं
कि तीस बरस पहले
उसकी अनपढ़ माँ ने जो सिखाया था
वह उसकी संकीर्ण सोच थी
कि वह जो मानती आई है
अपने उन बिखरे बालों के
सफेद होने तक
वह काला था सब,
वह पुराना था।
मैं उसके तैरते, बल खाते सपनों को
डुबो देता हूं
अपनी उथली आँखों में।
उसकी आँखों में बन रही
तीखी नाक, बड़ी बड़ी आँखों वाली
लड़की की छवि को
ढक लेती है मेरी गौरैया।
उसने पिछले महीने
जो दो बनारसी साड़ियाँ खरीदी थीं,
जिन पर लगना था फॉल
एक शुभ दिन,
उसके बक्से में से उन्हें निकालकर
मेरी गर्वीली आँखें
फाड़ फेंकती हैं।
एक पचास साल की स्त्री,
जिसने बाईस बरस पहले
एक गाँव के
कच्चे घर के
अँधेरे कमरे में
मुझ अशक्त, असहाय, असुन्दर
माँस के लोथड़े को जन्म देकर
बिना किसी स्वार्थ के
चिपका लिया था कलेजे से
और महीनों तक
सिरहाने लोहे का चाकू रखकर
रात भर जागती थी
मुझे सुलाने को
उसी सफेद बालों वाली
पुरानी, पिछड़ी, गंवार बुढ़िया से
नज़रें मिलाकर कहता हूं मैं
- तुम क्या जानोगी प्यार?
और पता नहीं कैसे,
आसमान फिर भी नहीं गिरता।
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22 कविताप्रेमियों का कहना है :
रात का १ बज रहा है। सोचा था कि सो जाऊँ। पर तभी कविता प्रकाशित हुई। और अब नींद उचट गई है। ३ बार पढ़ चुका हूँ। एक और बार पढ़ने का जी कर रहा है। कविता शुरू हुई तो लगने लगा कि गौरव की ही कविता है। सही अनुमान था :-) सही लिखा है भाई। हम नई व आधुनिक पीढ़ी के लोग नहीं समझ पाते हमारे माता पिता की ममता, त्याग, स्नेह को और नहीं जान पाते उनकी इच्छाओं को। या यूँ कहें कि जानना ही नहीं चाहते।क्योंकि हम उन्हें पिछड़ी सोच वाला समझते हैं। हर पंक्ति सच्ची है....
तपन शर्मा
भाव बहुत सुंदर हैं, अच्छी अभिव्यक्ति.....
उसी सफेद बालों वाली
पुरानी, पिछड़ी, गंवार बुढ़िया से
नज़रें मिलाकर कहता हूं मैं
- तुम क्या जानोगी प्यार?
और पता नहीं कैसे,
आसमान फिर भी नहीं गिरता।
" ये पंक्तियाँ मेरे अंतर्मन को दहला गईं , आज के आधुनिक जमाने और सोच को यथार्थ करती ये कवीता बहुत करुण सी बन पड़ी है, एक एक शब्द ह्रदय को भेदता हुआ निकल जाता है, बहुत सुंदर"
गौरव जी आपने बड़ा विवादास्पद विषय लेने का साहस किया, वह भी जमाने की धारा के विरूद्ध ।
ये पन्क्तियां समझ में नहीं आई :
और महीनों तक
सिरहाने लोहे का चाकू रखकर
रात भर जागती थी
तीस बरस पहले
उसकी अनपढ़ माँ ने जो सिखाया था
वह उसकी संकीर्ण सोच थी
कि वह जो मानती आई है
अपने उन बिखरे बालों के
सफेद होने तक
वह काला था सब,
वह पुराना था।
उसी सफेद बालों वाली
पुरानी, पिछड़ी, गंवार बुढ़िया से
नज़रें मिलाकर कहता हूं मैं
- तुम क्या जानोगी प्यार?
और पता नहीं कैसे,
आसमान फिर भी नहीं गिरता।
सुंदर अभिव्यक्ति.....
आज का नग्न सच...या कहूं दर्पण से झांकता आज का जीवन जीवंत हो उठा है आपकी रचना में....
बधाई
स-स्नेह
गीता पंडित
हरिहर जी बच्चों को रात को बुरे सपने न आयें और बुरी नज़र न लगे इसलिए आज भी माएं रात को बच्चे के तकिये के नीचे लोहे का चाकू रखती है, यह ममता है अन्धविश्वास नही....
गौरव जी,
सुन्दर भाव भरी कविता है.. अपने सपने को जिन्दा रखने के लिये कभी कभी अपने प्रियजनों का सपना चूर कर देता है मानव... पर शुरूआत अन्त नहीं होती... नया सपना भी पुराने सपने को ढक सकता है...
बहुत गहरी बात कह गई कविता,अति सुंदर बधाई
"उसने पिछले महीने
जो दो बनारसी साड़ियाँ खरीदी थीं,
जिन पर लगना था फॉल
एक शुभ दिन,
उसके बक्से में से उन्हें निकालकर
मेरी गर्वीली आँखें
फाड़ फेंकती हैं।"
बहुत ही अच्छी कविता लिखी है आपने गौरव जी...
पर जिस भावुकता के स्तर पर आप पारम्परिक विवाह को स्थापित करते है..
उन भावनाओ का ही सिला देकर बुज़ुग -वर्ग नयी पीढी पर कितनी बंदिशे लगता है !!!!! जो कई बार शोषण का रूप ले लेती है...
इस कविता को दिमाग लगा कर पढा ही नहीं जाना चाहिये,यह दिल से लिखी गयी कविता है और मन को व्यथा और पीडा के शून्य में छोडती है। इस कविता का उद्देश्य परम्परा को स्थापित करना या उसे महान सिद्ध करना तो कत्तई नहीं, हाँ प्रेम की तमाम परिभाषाओं के छिलके प्याज की तरह बखूबी से उतारे गये हैं। गौरव, आपकी कलम असाधारण है...
*** राजीव रंजन प्रसाद
उपयुक्त बिम्ब और सुंदर छान्द्मुक्त शिल्प के बल पर कलेजे के दो टूक कर देने वाली भाव-प्रवण रचना ! लेकिन गौरव भाई,
और भी गम हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा ....
मुझ अशक्त, असहाय, असुन्दर
माँस के लोथड़े को जन्म देकर
बिना किसी स्वार्थ के
चिपका लिया था कलेजे से
और महीनों तक
सिरहाने लोहे का चाकू रखकर
रात भर जागती थी
मुझे सुलाने को
उसी सफेद बालों वाली
पुरानी, पिछड़ी, गंवार बुढ़िया से
नज़रें मिलाकर कहता हूं मैं
- तुम क्या जानोगी प्यार?
और पता नहीं कैसे,
उस निश्छल प्यार के लिये प्यार दिखाती बहुत ही अद्भुत कविता गौरव जी.. सच प्यार का त्याग का ही दूसरा नाम है...
रचना पढी कूचा कहूं ना यह चाहा कर भी नही^ कर सकता और कहू क्या यह तय नही कर पा रहा हूँ पर आपकी रचना ने दिला के तार को स्पर्श सा कर दिया... सब संस्कार है मित्र उसी के बाला पर किसी को मान दिखती है किसी को ममता और किसी को केवल अपना लक्ष्य संबंधों मैं प्यार बंधा होता था अबा प्यारा मैं सम्बन्ध की तलाश होती है फिर निराशा और हताशा का दौर और इस सबा मैं भविष्य का संस्कार दम तोड़ रहा है. बहू लाने का सपना माँ का होता था वह जिसको जनम देती थी उसको उसकी जरूरत का सब मुहैया भी कराती थी पारा अब हम अपनी पसंद का जीते हैं और अपने पसंद पारा निर्भर लोग सबा फायदे मैं नही रहते.... प्यारा का सबसे ग़लत इस्तेमाल इसी दौर मैं हो रहा है जनाबा ... संस्कार टूट रही है.... चरित्र ध्वस्त हो रहा है क्योंकि अन्पधों के पास बनावटी तर्क नही बुनियादी संस्कार और मानवीय समझ थी.... तभी हम खड़े हो सके ..... खैर उत्तम कविता के लिए बधाई....
" हुई मुद्दत की ग़ालिब मर गया पर याद आता है,
वो हर एक बात पर कहता, की यूँ होता तो क्या होता?"
डॉक्टर रामजी गिरि जी,
मैं पारम्परिक विवाह को स्थापित नहीं कर रहा हूं। मैं तो स्वयं उसके विरुद्ध हूं। मैं तो उन भावनाओं के हाथों मजबूर था, जो इन परिस्थितियों में एक माँ का पक्ष देख रही थीं।
क्या कहूँ गौरव भाई?काश! कि मैं कुछ कह पाता.आपने तो कुछ कहने लायक छोड़ा ही नहीं,अंदर तक छू गई एक एक चीज,बेहतरीन
ह्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म.....
आलोक सिंह "साहिल"
गौरव! आसमान तो खैर गिरना ही भूल चुका लगता है, वरना....
अच्छी भावनात्मक अभिव्यक्ति है!
गौरव जी,
अच्छी रचना। एक साँस में पढ़ने योग्य।
aashman phir bhi nahi girta bahut achchhe se ek maa ke manobhavo ko abhivyakat kiya hai tune
maa ke bare me sochne ke liye dhnyvad.
aashman phir bhi nahi girta bahut achchhe se ek maa ke manobhavo ko abhivyakat kiya hai tune
maa ke bare me sochne ke liye dhnyvad.
बात वाह क्या बात है ..पता नहीं कैसे आसमान फिर भी नहीं गिरता ...यार गौरव तुम संवेदना की ऐसी नस को छेड़ देते हो ...कि बस आँखें बरबस नम हो आती हैं ..और जब माँ कि हो तो.....तुम कमाल लिखते हो यार ..
उसी सफेद बालों वाली
पुरानी, पिछड़ी, गंवार बुढ़िया से
नज़रें मिलाकर कहता हूं मैं
- तुम क्या जानोगी प्यार?
और पता नहीं कैसे,
आसमान फिर भी नहीं गिरता।
क्या खूब लिखते हो गौरव !
ईश्वर आप की लेखनी में यूं ही स्याह भरते रहें
शुभकामनाओं के साथ
सुनीता यादव
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