मन की शतरंज,
चौंसठ दोरंगी खानों की बिसात,
उस पार सोलह मोहरे तुम्हारे,
इस पार सोलह मेरे,
तुम - आशा के अनुरूप,
अडिग, आश्वस्त, और निश्चिंत .
मैं, बीते अनुभवों से कुछ,
सहमा, डरा, और अव्यवस्थित,
तुमने इजहार का प्यादा आगे किया,
तो मैंने तकरार का रोढा अडा दिया,
मेरे इनकार के मजबूत प्यादे को,
तुम्हारे इकरार के नाज़ुक वार ने ख़ाक कर दिया,
सेंध लग चुकी थी,
तुम उन्मुक्त नदी सी बह आयी,
और मेरे अहम् और गरूर के ऊंटों को निगल गयी,
कामना और वासना के दो बेलगाम घोड़े भी,
नतमस्तक हो गए, तुम्हारे समर्पण के आगे,
मेरे दो दमदार साथी, साधना और तपस्या के हाथी,
बस मुंह देखते रह गए, और तुमने जीत लिया -
मेरे विश्वास का व़जीर.
जानता हूँ अब,
प्रेम रुपी बादशाह की किलाबंदी टूट चुकी है,
प्रेम पर प्रेम का क़ब्जा हो चुका है,
बेशक रही एक तरफा इस बाजी की हर बात,
पर सच कहूँ ?
मैंने ख़ुद को विजेता सा पाया,
जब तुमने मुस्कुराते होंठों से कहा -
यह शह है और ये मात....
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
21 कविताप्रेमियों का कहना है :
wah wah
गजब कर दी संजीव जी!
शह और मात के बाद भी जीत गए !
और मेरे अहम् और गरूर के ऊंटों को निगल गयी,
कामना और वासना के दो बेलगाम घोड़े भी,
नतमस्तक हो गए, तुम्हारे समर्पण के आगे,
मेरे दो दमदार साथी, साधना और तपस्या के हाथी,
बस मुंह देखते रह गए, और तुमने जीत लिया -
बहुत खूब
सजीव जी,
जब हार गले का "हार" हो जाये तो मात भी शह हो जाती है :)
Kavita kaafi dum daar hai...mujhe bahut pasand aai...ek shatranj ki baazi hum bhi khel liye aaj to :)
Dear Sanjeev ji,
bahut sundar, bahut khoob, bahut achha chitran kiya hai aapne pyar mein "shah-maat" ke khel ka.
Badhai,
Sanjeev'Satya'
बहुत सुन्दर.........
तुम - आशा के अनुरूप,
अडिग, आश्वस्त, और निश्चिंत .
मैं, बीते अनुभवों से कुछ,
सहमा, डरा, और अव्यवस्थित,
तुम उन्मुक्त नदी सी बह आयी,
और मेरे अहम् और गरूर के ऊंटों को निगल गयी,
पर सच कहूँ ?
मैंने ख़ुद को विजेता सा पाया,
वाह्.....
य्थार्थ कितनी सुंदरता से
श्ब्द-शब्द में ढाला है.....
काश!हर एक-तरफा प्यार की...
ऐसी ही शय और मात होती....
बधाई ...आपको संजीव जी
स-स्नेह
गीता पंडित
सजीव जी,
बिम्ब बहुत ही अनूठा चुना है आपनें। सतरंज की यह बाजी हारने (जीतने) की शुभकामनायें...
बहुत अच्छी रचना।
*** राजीव रंजन प्रसाद
बहुत अच्छा सजीव जी, अंत पढ़कर तो मजा आ गया।
बेशक रही एक तरफा इस बाजी की हर बात,
पर सच कहूँ ?
मैंने ख़ुद को विजेता सा पाया,
जब तुमने मुस्कुराते होंठों से कहा -
यह शह है और ये मात....
बहुत सुंदर सजीव जी .बहुत पसन्द आई आपकी यह रचना !
बहुत उम्दा ,गज़ब का खेल खेला है सजीव जी आपने .....क्या बात है....शायद शतरंज आपका पसंदीदा खेल है !बहुत अच्छी कविता है ...बधाई के हक़दार हैं आप .....
सजीव जी...
बहुत ही सुन्दर कविता मजा आ गया अनूठी लगी
नवीन बिम्बों के साथ
कमाल की शह-मात
pyar ke shataranj ki bisad aur bhavnao ke mohre wah bahut hi sundar.
मकतब-ए-इश्क में इक ढंग निराला देखा
उसको छुट्टी न मिली जिसको सबक याद हुआ
सुंदर रचना!
सजीव जी, बहुत खूब। मुझे याद आया-
भंवर से लड़ो तुंद लहरों से उलझो
कहाँ तक चलोगे किनारे-किनारे
अज़ब चीज है ये मुहब्बत की बाज़ी
जो हारे वो जीते,जो जीते वो हारे
बहुत हीं उम्दा रचना है सजीव जी!
गालिब ने शह और मात की बात को जीने और मरने से क्या बखूबी जोड़ा था:
"उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पर दम निकले"
आपकी रचना में उसी एहसास की बू है।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
प्रेम रुपी बादशाह की किलाबंदी टूट चुकी है,
प्रेम पर प्रेम का क़ब्जा हो चुका है,
बेशक रही एक तरफा इस बाजी की हर बात,
पर सच कहूँ ?
मैंने ख़ुद को विजेता सा पाया,
जब तुमने मुस्कुराते होंठों से कहा -
यह शह है और ये मात....
विस्मित,इतनी सुंदर अभिव्यक्ति ...दिल को भा गयी
नयी कल्पना नया रूप कविता में देखने को मिला.
प्रीत की हर बाजी में हार के ही जीत का मजा आता है,यह आप की शह और मात में भी देखने को मिला.
खूब रही आप की यह बाजी भी !
DIL KHUSH KAR DIYA.....WAAH
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