क़्या तुम्हारे आँगन में अपना
पहला कदम रख सकता हूँ
शब्द हूँ मैं तुम्हारे लबों का
क्या तुमसे व्यक्त हो सकता हूँ...
अपनी मर्यादा में कसकर बंधा हुआ हूँ
ऊँच नीच जाति भेद में तुला हुआ हूँ
क्या मैं तुम्हारे पंखों का आत्मसात कर
खुले गगन में उङने का आभास कर सकता हूँ
शब्द हूँ मैं तुम्हारे लबों का...
भुलाया हुआ चैतन्य परमार्थी हूँ
तुम्हारी पहचान का सच्चा सार्थी हूँ
क्या तुममें बस प्रेम का आवाहन कर
तुम्हें पिरो जीवन के धागे में गा सकता हूँ
शब्द हूँ मैं तुम्हारे लबों का...
*****************अनुपमा चौहान****************
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
diवाह!! वाह!!! बहुत खूब अनुपमा जी...
शब्द हूँ मैं तुम्हारे लबों का
क्या तुमसे व्यक्त हो सकता हूँ...
भुलाया हुआ चैतन्य परमार्थी हूँ
तुम्हारी पहचान का सच्चा सार्थी हूँ
क्या तुममें बस प्रेम का आवाहन कर
तुम्हें पिरो जीवन के धागे में गा सकता हूँ
अनुपम अभिव्यक्ति।
*** राजीव रंजन प्रसाद
क़्या तुम्हारे आँगन में अपना
पहला कदम रख सकता हूँ
शब्द हूँ मैं तुम्हारे लबों का
क्या तुमसे व्यक्त हो सकता हूँ...
" अती सुंदर परिभाषा शब्दों की "
अपनी मर्यादा में कसकर बंधा हुआ हूँ
ऊँच नीच जाति भेद में तुला हुआ हूँ
क्या मैं तुम्हारे पंखों का आत्मसात कर
खुले गगन में उङने का आभास कर सकता हूँ
-- शब्दों के माध्यम से स्वतंत्रता की कामना और भाषा का सम्प्रदाय के बंधनों से मुक्ति का विचार एक नव प्रयास हो सकता है |
सुंदर रचना....
अवनीश तिवारी
क्या मैं तुम्हारे पंखों का आत्मसात कर
खुले गगन में उङने का आभास कर सकता हूँ
सुंदर रचना अनुपमा जी ..बहुत दिनों आपका लिखा हुआ कुछ यहाँ आया अच्छा लगा !!
अनुपमा जी,
सुन्दर शब्दों को माला में पिरो कर बनाई गई एक सशक्त रचना
अनुपमा जी!
युग्म पर बहुद दिनों के पश्चात आपके कदम पड़े हैं। इसलिए आपका स्वागत है :)
इस कविता की बात करूँ तो शब्दों का सुंदर मायाजाल बुना है आपने। सुंदर भाव हैं।शिल्प भी खूबसूरत है। हाँ , अगर आप तुकबंदी का मोह न दीखाती तो और भी मज़ा आ सकता था।
वैसे आपकी शैली सबसे अलग है और यही आपकी खासियत भी है।
लगे रहिये!!!!!
-विश्व दीपक ’तन्हा’
शब्द हूँ मैं तुम्हारे लबों का क्या तुमसे व्यक्त हो सकता हूँ...
बहुत खूबसूरत रचना बधाई
’व्यक्त होने की अनुमति माँगते शब्द’ अपने आप में एक अनूठा प्रयोग है. शिल्प के बारे में मैं तन्हा जी से सहमत हूँ.
बहुत ही सुंदर रचना...बधाई.
नीरज
शब्द हूँ मैं तुम्हारे लबों का...
waah
बहुत दिनों से एक अनुपम कृति की तलाश थी.........लो अज पुरी हुई
क्या खूब लिखा है,
भुलाया हुआ चैतन्य परमार्थी हूँ
तुम्हारी पहचान का सच्चा सार्थी हूँ
क्या तुममें बस प्रेम का आवाहन कर
तुम्हें पिरो जीवन के धागे में गा सकता हूं
एक एक शब्द को बिल्कुल करीने से संजो कर,मजा आ गया,
बधाई हो
आलोक सिंह "साहिल"
शब्द हूँ मैं तुम्हारे लबों का...
waah
अनुपमा जी, बहुत अच्छी लगी आपकी कविता।
अपनी मर्यादा में कसकर बंधा हुआ हूँ
ऊँच नीच जाति भेद में तुला हुआ हूँ
क्या मैं तुम्हारे पंखों का आत्मसात कर
खुले गगन में उङने का आभास कर सकता हूँ
बधाई।
वाह...
शब्द हूँ मैं तुम्हारे लबों का
क्या तुमसे व्यक्त हो सकता हूँ...
सुंदर....
अनुपमा जी...
बधाई
स-स्नेह
गीता पंडित
भावनाओं को उड़ाने का अभ्यास तो किया है आपने लेकिन शिल्प का अभ्यास नहीं किया।
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