पुरानी रचना है। आज डायरी खंगालते समय इस पर नज़र पड़ी तो सोचा कि आपके हवाले कर दूँ। अब आप हीं निर्णय करें कि मैने इससे कितना न्याय किया है।
चुल्हे में उपलों-सा
जलता अंतर्द्वंद्व !
और
तवे पे
दो दिलों की
उबलती
कुछ ख़्वाहिशें !
कुछ
अनकहे-अनबुझे शब्द
इस चुल्हे में ताव दे रहे हैं,
लहराती हुई
या
मूक-सी
कुछ बेखुद हवाएँ
ख्वाहिशों को
उलट-पलट रही हैं,
और
तवे के कोर पर
बिंदी बने
दो मन
अपनी बारी की राह तक रहे हैं।
तभी सहसा
तुम्हारे ओठों से
शर्म की दो बूँदें
तवे पर
छन-से गिर पड़ी
और
पता नहीं कब
मेरी आहों ने
ख्वाहिशों का रूप धरकर
और आह!
तवे से
कुछ ऊष्णता उधार लेकर
तुम्हारी हया को
अपना रूप दे दिया ।
उबाल पाकर
तुम्हारे लब
और भी
सुर्ख हो पड़े हैं,
लगता है मानो
अंतर्द्वंद्व की
गर्मी और लालिमा से
तुम्हारे ओठों की
ठन-सी गई है।
अब तो
हवाये भी
गर्म हो चुकी हैं,
तड़प रही हैं,
चुल्हे से लिपट रही हैं
और फिर
परवाज़ भर रही हैं।
शायद
हमारा इश्क भी अब
परवान चढ चुका है।
सुनो!
अब
छेड़ो नहीं,
पक जाने दो-
दो दिलों की तड़प को,
इंतज़ार को।
देखो!
अधपकी रोटी से जिगर तृप्त नहीं होता!!!!!
-विश्व दीपक ’तन्हा’
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19 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत सुंदर लिखा है आपने तन्हा जी..पूरा का पूरा चित्र खींच दिया है.. मोहक रचना..
"तवे पे
दो दिलों की
उबलती
कुछ ख़्वाहिशें !"
तन्हा जी तवे पर कुछ उबलता नहीं बल्कि जलता है...यह एक बात थोड़ी खटक रही थी...
यह पंक्तियाँ बहुत ही अच्छी लगीं...
"अंतर्द्वंद्व की
गर्मी और लालिमा से
तुम्हारे ओठों की
ठन-सी गई है।
अब तो
हवाये भी
गर्म हो चुकी हैं,
तड़प रही हैं,
चुल्हे से लिपट रही हैं
और फिर
परवाज़ भर रही हैं।"
सुंदर रचना के लिए बधाई..!
सुनो!
अब
छेड़ो नहीं,
पक जाने दो-
दो दिलों की तड़प को,
इंतज़ार को।
देखो!
अधपकी रोटी से जिगर तृप्त नहीं होता!
अच्छी है रचना ..मुझे यह पंक्तियाँ विशेष रूप से पसन्द आई !!
तभी सहसा
तुम्हारे ओठों से
शर्म की दो बूँदें
तवे पर
छन-से गिर पड़ी
और
पता नहीं कब
मेरी आहों ने
ख्वाहिशों का रूप धरकर
और आह!
तवे से
कुछ ऊष्णता उधार लेकर
तुम्हारी हया को
अपना रूप दे दिया ।
" बहुत सुंदर कवीता , क्या खूब उपमाएं दी हैं आपने, दिल को छु गई कुछ पंक्तियाँ , लाजवाब
Regards
सुन्दर तन्हा जी,
सहज पके सो मीठा होए :)
तन्हा भाई,
रचना पुरानी है, बासी नहीं । लगता है डायरी में पड़े पड़े और खुशबूदार हो गयी ।
चुल्हे- चूल्हे
चुल्हे में ताव- चूल्हे को ताव
बेखुद- बेख़ुद
अन्त में थोड़ा ज्यादा खिंची है, पर भाव के साथ न्याय है ।
सुनो!
अब
छेड़ो नहीं,
पक जाने दो-
दो दिलों की तड़प को,
इंतज़ार को।
देखो!
अधपकी रोटी से जिगर तृप्त नहीं होता!!!!!
तनहा जी,
बिम्बों नें आपकी रचना को आकाश दे दिया है..तवे पर उबलने वाला बिम्ब "टेक्निकली इनकरेक्ट" तो है लेकिन आपकी पूरी कविता पडने के बाद नहीं खटकता..बरबस ही आपकी कल्पनाशीलता की प्रशंसा करने का मन कर उठता है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
तन्हा जी,
सुनो!
अब
छेड़ो नहीं,
पक जाने दो-
दो दिलों की तड़प को,
इंतज़ार को।
देखो!
अधपकी रोटी से जिगर तृप्त नहीं होता!!!!!
आलोक जी सही कह रहे हैं रचना पुरानी भले ही है मगर डायरी में रेफ्रिज़रेशन पूरा मिला है एक दम तरो-ताजी और जायकेदार है.. मज़ा आ गया पढ़कर, उपमायें और बिम्ब नवीनता लिये हुये और भाव प्रबल हैं..
सुनो!
अब
छेड़ो नहीं,
पक जाने दो-
दो दिलों की तड़प को,
इंतज़ार को।
देखो!
अधपकी रोटी से जिगर तृप्त नहीं होता!
:-)
अपनी डायरी स्केन करके मेल कर दीजिये ;-)
अरे यार रॊटी की तरह कविता भी अधूरी ही रह गई। भाई जाते जाते यह तॊ बता जाते कि रॊठी पकी या नहीं। कृया जबाब दिया उसने।
तन्हा जी बात नहीं बनी
शायद पुरानी है इसलिए कविता में बहुत कच्चापन है
कुछ
अनकहे-अनबुझे शब्द
इस चुल्हे में ताव दे रहे हैं,
लहराती हुई
या
मूक-सी
कुछ बेखुद हवाएँ
ख्वाहिशों को
उलट-पलट रही हैं,
और
तवे के कोर पर
बिंदी बने
दो मन
अपनी बारी की राह तक रहे हैं।
तन्हा भाई ये अगर अधपकी रोटी का स्वाद है तो पकी रोटी कितनी लजीज होगी?मजा आ गया.बधाई हो भाई जी,आप रोटी भी अच्छी पका लेते हैं.
आलोक सिंह "साहिल"
अरे तन्हा जी आपकी डायरी तो दिलचस्प है। मजा आ गया।
सुनो!
अब
छेड़ो नहीं,
पक जाने दो-
दो दिलों की तड़प को,
इंतज़ार को।
देखो!
अधपकी रोटी से जिगर तृप्त नहीं होता!!!!!
भाई सुनो सिर्फ़ डायरी के एक पृष्ठ से हृदय तृप्त नहि होता। :))
सुन्दर कविता, बाकी पृष्ठों के इंतज़ार में...
बेहद गंभीर और भाव पूर्ण रचना है अंतिम पंक्तियां मर्मस्पर्शी हैं
सुनो!
अब
छेड़ो नहीं,
पक जाने दो-
दो दिलों की तड़प को,
इंतज़ार को।
देखो!
अधपकी रोटी से जिगर तृप्त नहीं होता!!!!!
तनहा जी इस अधपकी रोटी की कल्पना आप की ही कविता हो सकती है अंदाजा हो गया था.
एक अलग स्वाद लिए हुए है यह कविता.बधाई.
तभी सहसा
तुम्हारे ओठों से
शर्म की दो बूँदें
तवे पर
छन-से गिर पड़ी
और
पता नहीं कब
मेरी आहों ने
ख्वाहिशों का रूप धरकर
और आह!
तवे से
कुछ ऊष्णता उधार लेकर
तुम्हारी हया को
अपना रूप दे दिया ।
बहुत ह्रदय को स्पर्श करता काव्य कथन है अति सुंदर .
अवनीश जी से सहमत हूं। कविता पूरी पकी नहीं है।
एक और बात थोड़ी सी खलती है। आप कहीं कहीं घोर तत्सम शब्दों के बहुत करीब उर्दू के शब्द ले आते हैं। व्यक्तिगत रूप से मुझे यह प्रयोग नहीं भाता, हालांकि कई बार मजबूरी में मुझे भी करना पड़ता है।
जैसे मूक-सी
कुछ बेखुद हवाएँ
यहाँ ख़ामोश सी कुछ बेख़ुद हवाएँ होता तो अधिक सुन्दर लगता।
'जिगर तृप्त नहीं होता' वाला प्रयोग भी हल्का सा अजीब लगा मुझे।
हाँ, भाव बहुत अच्छे हैं और शायद पुरानी कविता है, इसीलिए हल्की सी अपरिपक्वता झलक रही हो।
bahut sunder tanha ji
lagta h aaj kal aap tanhai me adhpaki rotiyo ko pakane me lage ho
सुनो!
अब
छेड़ो नहीं,
पक जाने दो-
दो दिलों की तड़प को,
इंतज़ार को।
देखो!
अधपकी रोटी से जिगर तृप्त नहीं होता!!!!!
bahle hi adhpaki roti se jigar trapt nahi ho par hamere jigar ko to sukun mila aap ki kavita padkar..............dhanywad
rajendra chaudhary 'rajshree'
iit kharagpur
gupta said...
तभी सहसा
तुम्हारे ओठों से
शर्म की दो बूँदें
तवे पर
छन-से गिर पड़ी
और
पता नहीं कब
मेरी आहों ने
ख्वाहिशों का रूप धरकर
और आह!
तवे से
कुछ ऊष्णता उधार लेकर
तुम्हारी हया को
अपना रूप दे दिया ।
बहुत सुंदर कवीता....
बधाई..!
गौरव से सहमत हूँ। लेकिन गुलज़ार शैली में लिखी इस अधपकी रोटी से मेरी शरारती भूख तो मिट गई। अच्छा लगा पढ़कर। हाँ, शायद यह डायरी के पन्नों से जल्दी निकल जाती तो ज्यादा सराही जाती।
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