सुबा गश्त पर निकले,हवालदार को,
जैसे आवाज़ देकर बुलाया था-
प्लेटफोर्म नम्बर ६ पर पड़ी उस लाश ने,
दो तीन बार, डंडा और लात मार,
टटोलने पर भी जब खामोश रही -लाश ,
तो अम्बुलेंस बुला ली गयी,
शिनाख़्त के लिए तस्वीरें ली गयी,
कद ५ फीट ७ इंच, सामान्य काठी, गेहुंवा रंग,
जर्द चेहरा, धंसी ऑंखें, रूखे सूखे बाल,
पेट पर चीरे का निशान,
नीली शर्ट, काली पैंट , पहने -
जाने कितनी आँखों से होकर गुजरा,
अखबार का वह कोना -आईने की तरह,
पर उस भरे शहर में,
उस चेहरे की पहचान वाला कोई न मिला,
दो दिन बाद लाश को भेज दिया गया,
विधुत शव-ग्रह में,
पोस्ट मार्टम रिपोर्ट कहती है,कि -
किडनी की नाकामी, मौत का कारण बनी,
मृतक बस एक किडनी पर ही जिंदा था,
दूसरी शायद पहले ही....
मृतक की जेब से, उस रात गई,
मगध एक्सप्रेस का टिकट मिला,
और मिला एक मैला सा पुर्जा,
जिसमे लिखा था-
"बछुवा वो डाक्टर सचमुच देवता है,
जिसने तोहार मुफ़त म अपरेसन किया,
वरना आज कल कौन गरीबा की सुने है,
उस डाक्टर साब को अपने बाबूजी का असिर्वाद देना.
तुम ठीक हो न ? कब लौटे हो घर ?..."
जब शहर के लोग फंसे होते हैं ट्रैफिक में,
रमे होते हैं सास बहु के किस्सों में,
घूम रहे होते हैं बाजारों में,
या थिरक रहे होते हैं डिस्को में,
जाने कितने बाबूजी के "बछ्वों" को,
जो कभी लौट नही पाते घरों को,
निगल जाता है - शहर का काला अँधेरा-
चुप चाप,
...और किसी को कानों कान ख़बर भी नही लगती...
...
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
24 कविताप्रेमियों का कहना है :
संजीव जी
आपकी कविता थर्रा गई
आपने एक करुण वास्तविकता को बेनकाब किया है
जिसमे लिखा था-
"बछुवा वो डाक्टर सचमुच देवता है,
जिसने तोहार मुफ़त म अपरेसन किया,
वरना आज कल कौन गरीबा की सुने है,
उस डाक्टर साब को अपने बाबूजी का असिर्वाद देना.
तुम ठीक हो न ? कब लौटे हो घर ?..."
दिल को सीधे बेधती मार्मिक रचना. बधाई.
जब शहर के लोग फंसे होते हैं ट्रैफिक में,
रमे होते हैं सास बहु के किस्सों में,
घूम रहे होते हैं बाजारों में,
या थिरक रहे होते हैं डिस्को में,
जाने कितने बाबूजी के "बछ्वों" को,
जो कभी लौट नही पाते घरों को,
निगल जाता है - शहर का काला अँधेरा-
चुप चाप,
...और किसी को कानों कान ख़बर भी नही लगती...
" अती सरल शब्दों मे इतनी मार्मिक रचना , एक एक शब्द हजार आंसूं बयान करता हो जैसे , मगर एक विचित्र सच्चाई "
Regards
सजीव,
बिल्कुल सटीक है, सच है |
किडनी चोरी के घटना पर सही प्रतिक्रिया है |
यदि इसे सभी लोगों को बताया जाय तो कैसा होगा |
अवनीश तिवारी
सजीव जी, रौंगटे खड़े कर दिये आपकी इन पंक्तियों ने|
पहले समझ नहीं आया कि विषय क्या है...बीच में जा कर पता चला कि किडनी मामले से जुड़ा हुआ है, पर जैसे ही ये पंक्तियाँ आती हैं, हरिहर जी ने सही कहा थर्रा सी जाती हैं।
"बछुवा वो डाक्टर सचमुच देवता है,
जिसने तोहार मुफ़त म अपरेसन किया,
वरना आज कल कौन गरीबा की सुने है,
उस डाक्टर साब को अपने बाबूजी का असिर्वाद देना.
तुम ठीक हो न ? कब लौटे हो घर ?..."
सजीव जी बहुत ही सुंदर रचना आसान से लफ्जों में ...दिल को छु गई कई पंक्तियाँ इसकी
जाने कितने बाबूजी के "बछ्वों" को,
जो कभी लौट नही पाते घरों को,
निगल जाता है - शहर का काला अँधेरा-
चुप चाप,
...और किसी को कानों कान ख़बर भी नही लगती...
...!!!
सजीव जी,
दहला कर रख दिया आपकी लेखनी ने..
"बछुवा वो डाक्टर सचमुच देवता है,
जिसने तोहार मुफ़त म अपरेसन किया,
वरना आज कल कौन गरीबा की सुने है,
उस डाक्टर साब को अपने बाबूजी का असिर्वाद देना.
तुम ठीक हो न ? कब लौटे हो घर ?..."
जब शहर के लोग फंसे होते हैं ट्रैफिक में,
रमे होते हैं सास बहु के किस्सों में,
घूम रहे होते हैं बाजारों में,
या थिरक रहे होते हैं डिस्को में,
जाने कितने बाबूजी के "बछ्वों" को,
जो कभी लौट नही पाते घरों को,
निगल जाता है - शहर का काला अँधेरा-
चुप चाप,
...और किसी को कानों कान ख़बर भी नही लगती...
- नतमस्तक हूँ
सजीव जी,
आपकी यह रचना एक कविता नहीं है, एक तीर है, जो दिल को चीरते हुए निकल गई। किडनी चोरी की वीभत्स घटना को आपने जिस तरह से प्रस्तुत किया है, वह काबिले-तारीफ है।
जाने कितने बाबूजी के "बछ्वों" को,
जो कभी लौट नही पाते घरों को,
निगल जाता है - शहर का काला अँधेरा-
चुप चाप,
...और किसी को कानों कान ख़बर भी नही लगती...
आपकी लेखनी को सलाम!!
-विश्व दीपक ’तन्हा’
सजीव जी,
सामायिक, प्रभावशाली, नग्न सत्य.
बधाई
एक कड़वा सत्य कविता में प्रस्तुत है.
..जाने कितने बाबूजी के "बछ्वों" को,
जो कभी लौट नही पाते घरों को,
निगल जाता है - शहर का काला अँधेरा-
चुप चाप,
...और किसी को कानों कान ख़बर भी नही लगती...
सच्चाई है सजीव जी. मार्मिक कविता!
शिनाक्त में शायद टाईपिंग त्रुटि है इसे "बे - शिनाख़्त" होना चाहिए था.
पोस्ट मार्टम रिपोर्ट कहती है,कि -
किडनी की नाकामी, मौत का कारण बनी,
मृतक बस एक किडनी पर ही जिंदा था,
दूसरी शायद पहले ही....
बहुत सही सजीव जी! कवि का धर्म होता है कि जो कुछ आसपास घटित होता है उसपर लेखनी चलाए और आप इसमें सफ़ल हुए हैं।
दिल को छु गई कविता,शहर नाम का राक्षस बहुत से बचुओं को निगल जाता है ,बहुत प्रशंसनीय ,बधाई
सजीव जी
बहुत बढ़िया लिखा है-
जब शहर के लोग फंसे होते हैं ट्रैफिक में,
रमे होते हैं सास बहु के किस्सों में,
घूम रहे होते हैं बाजारों में,
या थिरक रहे होते हैं डिस्को में,
जाने कितने बाबूजी के "बछ्वों" को,
जो कभी लौट नही पाते घरों को,
निगल जाता है - शहर का काला अँधेरा-
चुप चाप,
...और किसी को कानों कान ख़बर भी नही लगती...
कविता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती यह कविता....भाव बहुत अच्छे हैं मगर जल्दी में लिखी गई है यह रचना......हिन्दयुग्म के गीतों के जनक से बहुत बेहतर उम्मीदें हैं...
निखिल
dil ko kuch pareshaan kar gayi apki kavita.......sahi rachna aaj ke samajik halato par
दिलओदिमाग को झकझोर कर रख देने वाली रचना
सजीव जी मर्मस्पर्शी कविता,पढ़ के "पहला सुर" के गाने दिमाग में घूमने लगे,काफी कोशिस की पर कुछ रिक्तता महसूस हुई,शायद ये आपके प्रति हमारे अपेक्षाओं का पुलिंदा हो या...
खैर शुभकामनाएं.
आलोक सिंह "साहिल"
कविता नहीं बन पाई लेकिन जो भी है, दिल से गुजरकर गई...
bhaut acca likha hai jajbato ko.
कविता में कटु सत्य को प्रभावी तरीके से पेश किया गया है !सच्चाई को बखूबी दर्शाया है !सच में यह एक गंभीर,विचारशील,तीक्षण एवं सटीक रचना है !जीवन की सत्यता दिल की गहराई में उतरती है !इतने अच्छे प्रयास के लिए सजीव जी बधाई के पात्र हैं.....धन्यवाद .....
प्रूफ़ रीडिंग भी किया करें-
सुबा- सुबह
हवालदार- हवलदार
प्लेटफोर्म- प्लेटफॉर्म
अम्बुलेंस- एम्बुलेंस लिखे तो बेहतर हो
तस्वीरें ली गयी- तस्वीरें ली गयीं
गेहुंवा- गेहूँवा
ऑंखें- आँखें
विधुत- विद्युत
बहु- बहू
नही- नहीं
कविता बढ़िया है।
great sajeen i like this !
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