नींद और ख़्वाब (एक कविता)
मुई नींद!
जब हिमालय-सी
भारी-भरकम हो
आँखों में धँसी होती है,
जब सतपुड़ा के जंगलों-सी
गहरी-घनी होती है,
जब कस्तूर हिरणी की तरह
खुद में हीं बावली होती है,
तब हीं वह सरफिरी
जाने क्यों
सपनों के सल्तनत में
सेंध लगाती है,
कुछ ख़्वाब
अपने नथुने और
कानों में सजाती है
और सपने भोले-भाले
जानते हीं नहीं कि
यह उमड़ता प्रेम बस
दो-चार पल का है।
कमबख्त नींद
सपनों को भरपूर जीती है
और ये सपने
चहकते-मटकते-से
अपनी जिंदगी नींद पर
न्योछावर कर देते हैं।
लेकिन ज्योंहि
यह कलमुँही नींद
कुछ होश में आती है,
करवट लेती है-
एक सपने को कुचलकर
दूसरा पहन लेती है।
वह सपना-
तब भी साँस लेता होता है,
अपनी जिंदगी,
अपने भविष्य के
ख़्वाब संजोते होता है।
मुई नींद!
तब भी नहीं मानती,
हद कर देती है
जब वह
आँखों से
हिमालय हटा लेती है,
खुद से हीं
कस्तूरी छुपा लेती है,
बावली जब
पूरे एक दिन के लिए
खुद को जगा लेती है।
तब वह
उन उलटबासियों वाले सपनों का
एक झटके में
दाहकर्म कर देती है,
और आह!
आँखों को
उनकी याद का
एक टुकड़ा तक नहीं देती।
अगली शब-
फिर से वही
कुलक्षिणी नींद-
कई सपने जीती है
और सुबह तक
एक कातिल बन जाती है।
चंद त्रिवेणियाँ
१.
कच्चे अमरूद के फाँक एक-एक कर निगलता रहा,
साँसे फँसी तो जाना कि कम्बख्त जिंदगी थी।
हलक में ऊँगली डाली और जिंदगी उगल दी ॥
२.
जब तलक वो मेरा खुदा रहा,
मुझे शब-औ-रोज़ पूजता रहा।
मज़हबे-इश्क का मुख्तलिफ किस्सा रहा॥
३.
तू गई तो इस कदर मैं तन्हा हो गया,
सूरज जलाया फिर भी मेरा अक्स ना मिला।
परछाई था मैं,वो बुझा तो मैं भी मिट गया॥
४.
सेहरा था जब तलक कोई पूछता न था,
एक दूब जो दिखी तो मिल्कियत दीख गई।
"महा""राज" की जिद्द है, उन्हें चाँद चाहिए!!
-विश्व दीपक ’तन्हा’
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
विपिन जी
आपने बस गजब ही कर दी
"नींद और ख़्वाब" में मनोविग्यान और कविता का
ऐसा सुन्दर संगम
तन्हा जी , गलती से नाम गलत लिख दिया
तीस पर यहां एक ही वाक्य में दो बार गलती लिखने
की गलती कर दी अभी मैं जेट लेग से संभला नहीं हूं क्षमा याचना
मुई नींद!
तब भी नहीं मानती,
हद कर देती है
जब वह
आँखों से
हिमालय हटा लेती है,
खुद से हीं
कस्तूरी छुपा लेती है,
बावली जब
पूरे एक दिन के लिए
खुद को जगा लेती है।
तब वह
उन उलटबासियों वाले सपनों का
एक झटके में
दाहकर्म कर देती है,
और आह!
आँखों को
उनकी याद का
एक टुकड़ा तक नहीं देती।
सपनो का एक टुकड़ा भी नही देती,क्या ग़ज़ब कहा है अपने नींद के बारे में,
दिल कुश हो गया आज इतनी सारी अच्छी कविताएँ पढ़कर.
दीपक जी,
एक सपने को कुचलकर
दूसरा पहन लेती है।
बहुत खूबसूरत |
विनय
सेहरा था जब तलक कोई पूछता न था,
एक दूब जो दिखी तो मिल्कियत दीख गई।
"महा""राज" की जिद्द है, उन्हें चाँद चाहिए!!
तनहा भाई इस महा - राज पर एक त्रिवेणी मात्र नहीं, एक पूरी कविता लिखिए...
अगली शब-
फिर से वही
कुलक्षिणी नींद-
कई सपने जीती है
और सुबह तक
एक कातिल बन जाती है
तन्हा जी, बहुत सही!!नींद और ख़्वाब पर आपका चिंतन लाजवाब है।
तन्हा जी,
मुई नींद!
जब हिमालय-सी
भारी-भरकम हो
आँखों में धँसी होती है,
सेहरा था जब तलक कोई पूछता न था,
एक दूब जो दिखी तो मिल्कियत दीख गई।
"महा""राज" की जिद्द है, उन्हें चाँद चाहिए!!
लाजवाब
सुन्दर
बहुत उम्दा "तन्हा" साहब. बहुत ही बढ़िया रचना.
अगली शब-
फिर से वही
कुलक्षिणी नींद-
कई सपने जीती है
और सुबह तक
एक कातिल बन जाती है।
नींद और ख्वाब :).एक सुंदर विचार ...बहुत ही सुंदर रचना दीपक ..और आपकी लिखी त्रिवेणी मुझे हमेशा बहुत प्रभावित करती हैं .यह बहुत ही अच्छी लगी ..
तू गई तो इस कदर मैं तन्हा हो गया,
सूरज जलाया फिर भी मेरा अक्स ना मिला।
परछाई था मैं,वो बुझा तो मैं भी मिट गया॥
कुछ होश में आती है,
करवट लेती है-
एक सपने को कुचलकर
दूसरा पहन लेती है।
क्या बात है तनहा जी!!!!!!बहुत खूब लिखी है यह कविता!नींद पर ऐसे विचार पहली बार पढे........
**त्रिवेनियाँ सारी ही बहुत अच्छी हैं.किसी एक का चयन बाकि के लिए नाइंसाफी होता-
हर एक त्रिवेणी सिमटी हुई मगर बहुत सा भेद समेटे हुए है.
तन्हा जी,
नींद आपके सपनों की कतिल सही..मगर हम तो आप पर ब्लेम करेंगे जी..
सही में मार डाला..
अब सबूत भी नहीं मेरे पास तो जीतोगे भी आप ही..
बधाई हो...
और त्रेवेणिया> है कि बेड़ियाँ एक बार पढ़ने लगों तो बाँध कर रख लेती हैं..
पुनः बधाई.
तन्हा भाई, एकबार फ़िर बहुत ही अच्छी प्रस्तुति.बधाई हो
आलोक सिंह "साहिल"
कच्चे अमरूद के फाँक एक-एक कर निगलता रहा,
साँसे फँसी तो जाना कि कम्बख्त जिंदगी थी।
हलक में ऊँगली डाली और जिंदगी उगल दी ॥
vah vah......
आपकी त्रिवेनिया बेमिसाल है ,आपका खास touch लिए हुए है. बस आपकी पहली रचना के बेर मे एक बात कहनी है की हिंदी ओर उर्दू के शब्द सम्मिलित से लगते है .
त्रिवेनिया पढ़कर आँख मीचकर सामझ गया की आप ही ऐसा लिख सकते है. बधाई
कविता की पहले पार्ट पर बात करूँ तो मुझे लगता है कि एक बहुत अच्छी कविता को 'मुई', 'कलमुँही', 'कमबख़्त', 'कुलक्षिणी' जैसे शब्दों को जबरदस्ती घुसाकर कमअसरकारी कर दिया गया है। मैं इन शब्दों को हटाकर इसे अच्छी कविता की तरह पढ़ना चाहूँगा क्योंकि यह कविता सच जैसी है। वैसे कविता का कथ्य बहुत पुराना सा है, प्रतीक और बिम्ब नये हैं, जिनकी सराहना होनी चाहिए।
त्रिवेणियाँ अच्छी हैं। कम से कम इस मामले में आप हिन्द-युग्म पर अकेले त्रिवेणीकार हैं।
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