दिल्ली में कड़ाके की ठंड,पारा दो डीग्री से नीचे
गुड्डन का रेडियो बोल रहा है
सब सुन रहे हैं
माँ सुनती है
सोचती हैं
कैसा होगा नरायन
पता नहीं खाना खाता होगा या.....
एक फुलपैंट एक बुसट में चला गया
बीवी सुनती है
सोचती है
कैसे जाड़ा काटेगें
कोई कंबल भी नहीं ले गये
ये भी तो नहीं करेंगे
कि आग जला के ताप लें
इक गिलास पानी तो खुद से पी नहीं सकते
गुड्डन का रेडियो बोल रहा है
बाबू सुनते है
सोचते है
कैसे काम करेगा शरीर
इस जाडे में
हाड़ अकड़ जाये
दमा कहीं फिर जोर कर दिया तो......
छोटकी सुनती है
सोचती है.......
नहीं वह कुछ नहीं सोचती
बस उदास रहती है आजकल
इसी फागुन लगन है
सबका पेट काट-काट कर दहेज जुटाया जा रहा है
घर में।
शहर में ठंड से मरने वालो की संख्या ८० हो गयी है
गुड्डन का रेडियो बोल रहा है......
सब सुन रहे है....
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
मनीष जी यथार्थ चित्रण.. करुण प्रसंग
सोचने पर मजबूर करती रचना..
साधूवाद..
छोटकी सुनती है
सोचती है.......
नहीं वह कुछ नहीं सोचती
बस उदास रहती है आजकल
इसी फागुन लगन है
सबका पेट काट-काट कर दहेज जुटाया जा रहा है
घर में।
शहर में ठंड से मरने वालो की संख्या ८० हो गयी है
गुड्डन का रेडियो बोल रहा है......
सब सुन रहे है....
मनीष जी आपकी कविता की सहजता और सरलता मोह लेने वाली है इस कविता को पढ कर लगता है कि जैसे ठंढ के दिनों में गाँव में दुख के ताने और सुख के बाने से बुनी गई एक चादर ओढ रहा हूँ.
मनीष जी
बहुत अच्छा लिखा है । एक ही घटना की भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाएँ सुन्दर बन पड़ी हैं -
छोटकी सुनती है
सोचती है.......
नहीं वह कुछ नहीं सोचती
बस उदास रहती है आजकल
इसी फागुन लगन है
सबका पेट काट-काट कर दहेज जुटाया जा रहा है
घर में।
बधाई
हर पंक्ति में जीवन का सत्या दर्शित हुआ है,बहुत सुंदर कविता.
आह!सच को मुखर करती रचना।
आह....
एकही घटना के इतने सारे रूप ....
यथार्थ का चित्रण बहुत खूब !
इसी फागुन लगन है
सबका पेट काट-काट कर दहेज जुटाया जा रहा है
घर में।
आह!
एक कटु सत्य!
मनीष जी,
आप जिस तरह से लिखते हैं, वह दिल को छू जाता है।बहुत दिनों से हिन्द-युग्म पर आपकी कमी खल रही थी। आज आपको देखा तो हृदय प्रसन्न हो गया। बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
आह..........
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वाह मनीष भाई, कविता के माध्यम से दर्द का अहसास कराने में आप सफल हुए।
मनीष जी बड़ी ही सहजता से आपने इस गंभीर स्थिति का चित्रण कर दिया.
सच में करुण प्रसंग ही है.
जो सोचने पर मजबूर करता है की भविष्य में ग्लोबल वार्मिंग के और क्या के दुष्प्रभाव होने वाले हैं-और हम क्या कर सकते हैं?
मनीष भाई एक ही चीज को कई लोगों के भावों से जोड़कर जो मर्मस्पर्शी दृश्य तैयार किया है,वाकई काबिले तारीफ है,हिला दिया आपने.............
आलोक सिंह "साहिल"
आपकी कविताओं के कथ्य तो जीवंत होते ही हैं, उनकी कलात्मकता भी दर्शनीय होती जा रही हैं।
सीधे से लफ्जों में दिल को छू लेने वाली रचना है यह आपकी मनीष जी !!
बहुत खूब। कङाके की ठंड में कविता पढकर ठंड की ठिटुरन भी बढ गयी।बधाई
किशोर कुमार जैन गुवाहाटी असम
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