इस बार नौवें स्थान के कवि गिरीश बिल्लौर मुकुल का परिचय हमें नहीं मिला है, इसलिए १० वें स्थान के कवि पंकज रामेन्दू मानव की कविता प्रकाशित कर रहे हैं। पंकज रामेन्दू मानव हिन्द-युग्म के बहुत पुराने और उत्कृष्ट रचनाएँ प्रेषित करने वाले प्रतिभागी हैं। पुराने पाठक इसनसे ज़रूर परिचित होंगे। नये पाठकों के लिए इनका परिचय हम दुबारा से प्रकाशित कर रहे हैं।
इनका जन्म मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में २९ मई १९८० को हुआ। इनको पढ़ने का शौक बचपन से है, इनके पिताजी भी कवि हैं, इसलिए साहित्यिक गतिविधयों को इनके घर में अहमियत मिलती है। लिखने का शौक स्नातक की कक्षा में आनेपर लगा या यूँ कहिए की इन्हें आभास हुआ कि ये लिख भी सकते हैं। माइक्रोबॉयलजी में परास्नातक करने के बाद P&G में कुछ दिनों तक QA मैनेज़र के रूप में काम किया, लेकिन लेखक मन वहाँ नहीं ठहरा, तो नौकरी छोड़ी और पत्रकारिता में स्नात्तकोत्तर करने के लिए माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय जा पहुँचे। डिग्री के दौरान ही ई टीवी न्यूज़ में रहे। एक साल बाद दिल्ली पहुँचे और यहाँ जनमत न्यूज़ चैनल में स्क्रिप्ट लेखक की हैसियत से काम करने लगे। वर्तमान में 'फ़ाइनल कट स्टूडियोज' में स्क्रिप्ट लेखक हैं और लघु फ़िल्में, डाक्यूमेंट्री तथा अन्य कार्यक्रमों के लिए स्क्रिप्ट लिखते हैं। कई लेख जनसत्ता, हंस, दैनिक भास्कर और भोपाल के अखबारों में प्रकाशित। कविता पहली बार हिन्द-युग्म को ही भेजी और इससे पहले कभी प्रयास नहीं किया।
पुरस्कृत कविता- बचपन
हंसता बचपन, गाता बचपन
जगता और जगाता बचपन,
धूल मिट्टी से सना हुआ
जीने के गुर सिखाता बचपन.
जोश जुनूं से भरा हुआ,
सबसे प्यार जताता बचपन।
कई और रूप हैं बचपन के
द्रवित स्वरूप हैं बचपन के
कबाड़ी बचपन, दिहाड़ी बचपन
कपड़ा सिलता बचपन, कचरा बीनता बचपन
किताब बेचता बचपन, हिसाब सीखता बचपन
हाथ फैलाता बचपन, दूत्कार खाता बचपन
पान खिलाता बचपन, चौराहे की तान सुनाता बचपन
लुटा हुआ सा बचपन, पिटा हुआ सा बचपन
दो जून की जुगाड़ में जुटा हुआ सा बचपन
बचपन रिक्शेवाला, बचपन जूतेवाला
बचपन कुल्फीवाला, बचपन होटलवाला
बचपन चने-मुरमुरेवाला, बचपन बोतलवाला
चाय बेचता बचपन, बोझा खींचता बचपन
गर्मी से लुथड़ा बचपन, सर्दी में उघड़ा बचपन
बूढ़ा बचपन बिना रीढ़ का कुबड़ा बचपन
सहमा बचपन, सिसका बचपन
पहाड़ी ज़िंदगी से बिचका बचपन
बचपन एक विवाद सा, घाव से निकले मवाद सा
बचपन एक बीमारी सा, जी जाने की लाचारी सा
बचपन थका हुआ सा, बचपन झुका हुआ सा
जीवन की पटरी पर, बचपन रुका हुआ सा
जूझता सा बचपन, टूटता सा बचपन
बिखरता सा बचपना, अखरता सा बचपन
अपने अस्तित्व को ढुंढता सा बचपन
कचरे सी ज़िंदगी में खुशिया तलाशता
हमसे कई सवाल पूछता सा बचपन ।
निर्णायकों की नज़र में-
प्रथम चरण के जजमैंट में मिले अंक- ७॰७५, ५॰१, ५॰५
औसत अंक- ६॰११६७
स्थान- बीसवाँ
द्वितीय चरण के जजमैंट में मिले अंक-५॰३, ६॰११६७ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ५॰७०८३५
स्थान- सत्रहवाँ
तृतीय चरण के जज की टिप्पणी-.
मौलिकता: ४/१॰५ कथ्य: ३/२॰५ शिल्प: ३/॰७
कुल- ४॰७
स्थान- आठवाँ
अंतिम जज की टिप्पणी-
कवि ने बचपन के रूप तो कई ढूँढ़ लिये किंतु रचना को दिशा प्रदान नहीं की।
कला पक्ष: ५॰५/१०
भाव पक्ष: ४॰५/१०
कुल योग: १०/२०
पुरस्कार- ऋषिकेश खोडके 'रूह' की काव्य-पुस्तक 'शब्दयज्ञ' की स्वहस्ताक्षरित प्रति
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :
जूझता सा बचपन, टूटता सा बचपन
बिखरता सा बचपना, अखरता सा बचपन
अपने अस्तित्व को ढुंढता सा बचपन
कचरे सी ज़िंदगी में खुशिया तलाशता
हमसे कई सवाल पूछता सा बचपन ।
" मानव जी बधाई हो इतनी अच्छी कवीता लिखने के लिए और हमे बचपन से पुरा परिचय करने के लिए , अच्छे शब्दों के साथ अच्छे भाव "
Regards
बचपन के कई रूप इस कविता में मिले -सही कहा-कई और रूप हैं बचपन के
द्रवित स्वरूप हैं बचपन के'
अपना नजरिया अपना अनुभव--
अन्तिम पंक्ति 'हमसे कई सवाल पूछता सा बचपन 'कवि के मन में उन अभागे और अभावों में घीरे बच्चों के प्रति चिंता को जताता है जो समाज में अब भी उपेक्षित हैं.युवा मन में ऐसी जागरुकता होना अच्छा है.
कविता लम्बी है और कहीं कहीं व्यवस्थित सी नहीं लग रही-बाकि भाव और सोच बहुत अच्छी है.१० वां स्थान पाने के मानव जी को लिए बधाई.
कचरे सी ज़िंदगी में खुशिया तलाशता
हमसे कई सवाल पूछता सा बचपन ।
-- सुंदर |
बधाई
अवनीश तिवारी
मानव जी,
बचपन के भिन्न रूपों से परिचित कराती आपकी रचना सराहनीय है
बहुत बहुत बधाई
कचरे सी ज़िंदगी में खुशिया तलाशता
हमसे कई सवाल पूछता सा
mar,msparshi rachna
कई और रूप हैं बचपन के
द्रवित स्वरूप हैं बचपन के
कबाड़ी बचपन, दिहाड़ी बचपन
कपड़ा सिलता बचपन, कचरा बीनता बचपन
किताब बेचता बचपन, हिसाब सीखता बचपन
हाथ फैलाता बचपन, दूत्कार खाता बचपन
पान खिलाता बचपन, चौराहे की तान सुनाता बचपन
लुटा हुआ सा बचपन, पिटा हुआ सा बचपन
दो जून की जुगाड़ में जुटा हुआ सा बचपन
मानव जी बचपन से इतने प्यारे अंदाज में साक्षात्कार कराने के लिए धन्यवाद और सफलता के लिए बधाई
आलोक सिंह "साहिल"
कविता में तुक का मोह शुरूआत से ही इतना है कि भावों को छिपा रहा है। अंत तक आते-आते कविता अपने रंग में आ जाती है। कविता लिखने के बाद काँट-छाँट का अभ्यास भी आवश्यक है।
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