सोता हुआ बेशर्म सन्नाटा
उघड़ जाता है बार-बार
भद्दे ढंग से
और कोई ख़्वाब देखकर
मुस्कुराता है,
मुट्ठियों में दबाए है
तुम्हारी चादर सख्ती से
और तुम
चादर के मोह में जकड़ी...
छूट क्यों नहीं जाती?
जैसे
नए कपड़ों का रंग छूटता है
पुराने सपनों की तरह
या बदन से
प्राण छूटते हैं हर पल;
भाग क्यों नहीं जाती?
दीवारों को चीरकर
या रोशनदानों से कूदकर
या अदृश्य होकर
प्रकाश की गति से;
मैली,
सलवटों वाली चादर
और बेशर्म सन्नाटे की मुट्ठी
और तुम भी शायद,
सब एक हो,
भागते नहीं,
छूटते नहीं,
भद्दे ढंग से सो गए हो
और आँखें खोलते हो रुक-रुककर
कि रोशनदान
दीवारों में तब्दील होने लगें,
तब तुम्हारी चादर उड़े मुट्ठी से
और कोई न देखे
कि निर्लज्ज समय हँसने लगा है
और मेरा रंग छूटने लगे,
प्राण टूटने लगें,
तब तुम उठो
और चीर डालो सब सपनों को,
मैं प्रकाश की गति से
गलने लगूं
और भद्दे ढंग से सो जाऊँ
सन्नाटा बनकर।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
15 कविताप्रेमियों का कहना है :
मैं प्रकाश की गति से
गलने लगूं
और भद्दे ढंग से सो जाऊँ
सन्नाटा बनकर।
"बहुत सुंदर अभीव्य्क्ती है सन्नाटे का एक अलग सा रूप उभर कर सामने आया है,"
कि रोशनदान
दीवारों में तब्दील होने लगें,
aur--
तब तुम उठो
और चीर डालो सब सपनों को,
मैं प्रकाश की गति से
गलने लगूं
और भद्दे ढंग से सो जाऊँ
सन्नाटा बनकर।
*सुंदर पंक्तियाँ .
*कविता बहुत ही गहरे भावों को छिपाये हुए है.
*सन्नाटे का यह रूप कैसे देखा होगा और
कवि ने भावों में अनगिनत गोते लगाये होंगे तब जा कर इस कविता का जन्म हुआ होगा.
अच्छी प्रस्तुति.
बधाई.
bahut sundar prastuti badhai ho
गौरव जी,
पंक्तियाँ उद्घघृत क्या करू.. बस फिलहाल
'वाह' ही आ रहा है जहन में..
सोता हुआ बेशर्म सन्नाटा
.....
मुट्ठियों में दबाए है
तुम्हारी चादर सख्ती से
.....
छूट क्यों नहीं जाती?
जैसे
नए कपड़ों का रंग छूटता है
पुराने सपनों की तरह
या बदन से
प्राण छूटते हैं हर पल;
भाग क्यों नहीं जाती?
दीवारों को चीरकर
या रोशनदानों से कूदकर
या अदृश्य होकर
प्रकाश की गति से;
भद्दे ढंग से सो गए हो
...
कि निर्लज्ज समय हँसने लगा है
और मेरा रंग छूटने लगे,
....गलने लगूं
और भद्दे ढंग से सो जाऊँ
सन्नाटा बनकर।
गौरव जी
आपकी कविता को मैं एक साधारण पाठक की दृष्टि से आकलन करके देखूं तो बिम्ब और शिल्प के कारण यह रचना मेरे द्वारा पढ़ी आपकी बहुत सी रचनाओं में से एक बेहतर रचना है किंतु कथ्य बिम्बों के बीच छिपता हुआ सलवटों में खो गया सा लगता है ... अस्तु आपकी रचना के बारे में मैं निजत्व की अनुभूति के कारण और कुछ नहीं कहूँगा अविस्मरनीय बस .... शुभकामना
"हिन्द युग्म पर आईं सबसे अच्छी कविताओं में से एक"
बस एक बात विचार के एक हिस्से के समापन और दूसरे हिस्से की शुरूआत की के बीच अगर एक लाईन अतंर रखा जाए तो पाठक को अधिक स्पष्टता मिलेगी.
Gaurav , i didnt gt whole thng.......i guess poet apne ache dino ko yaad kar raha hai , nd he wants forgt all gud old memories...........sab logo ko itna pasand aa raha hai tou acha hoga shyd.......:)..........nt 4 me............:)))))))
प्रिय गौरव
बहुत अच्छा
"सोता हुआ बेशर्म सन्नाटा"
"नए कपड़ों का रंग छूटता है
पुराने सपनों की तरह"
"तुम्हारी चादर उड़े मुट्ठी से
और कोई न देखे
कि निर्लज्ज समय हँसने लगा है"
"मैं प्रकाश की गति से
गलने लगूं
और भद्दे ढंग से सो जाऊँ
सन्नाटा बनकर।"
तुम्हें पढना हमेशा ही सुखद अनुभव रहा है
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
सस्नेह
गौरव शुक्ल
आपकी कवितायें पढ़ना ऐसा होता है जैसे कोई अपनी ही आत्मा को दर्पण मे देख रहा हो
गौरव जी,
अच्छी कविता, बधाई।
गौरव भाई,
तुम्हारी रचनाएँ मुझे गुलज़ार साहब की रचनाओं की याद दिलाने लगती हैं। मेरे हिसाब से तुम बहुत आगे निकल आए हो और बहुत हीं आगे जाओगे भी। मेरी शुभकामनाएँ तुम्हारे साथ हैं। यूँ हीं लिखते रहो।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
सही बोलूं तो जैसे ही पढ़ना शुरू की ये कविता to मुझे मुक्तिबोध की याद आई , शुरुवात अच्छी थी , लेकिन आखिरी तक आते आते ऐसा लगा की जल्दबाजी कर दी आपने इस लिए ज्यदा प्रभाव नही छोड़ पाई ये कविता ,| आप लगतार लिख रहे हो ये बहुत ही सराहनीय है
कल 07/12/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
गहन अभिव्यक्ति
सन्नाटे के अलग रंग रूप को बयाँ करती गहन रचना ....
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