शायद
यज्ञोपवीत संस्कार के बहाने
मेरी छाती पर बाँध दिया गया था
एक बंधन
या रख दिया गया था एक पहाड़
प्रतिबन्धों का,
- यहाँ मत खेलो
- वहाँ मत जाओ
- उनसे मत बोलो,
तब से हर समय
गड़ी रहती हैं दस-दस जोड़ी निगाहें
मेरे सीने में,
सिर के ऊपर,
कदमों के नीचे
कि कब मैं पंख पसारूं
और काट दिया जाऊं,
कि कब मैं मस्त हो गुनगुनाऊं
और डाँट दिया जाऊं,
मैंने अब तक का
आधा जीवन बिताया है
उन गड़ी हुई निगाहों के
प्रश्नों के उत्तर तैयार करने में,
- वहाँ क्यों गए?
- वो क्यों किया?
- वो क्यों नहीं किया?
मुझे सींखचों के सपने आते हैं हर रात
और मैं डरकर भागता हुआ
रोज किसी अन्धे कुंए में
जा गिरता हूं,
अपने हमउम्र और बड़ों की तरह
डर की आदत से
मैं नियंत्रित होने लगा हूं,
उन मशीनों की मानिन्द
मेरा भी जीवन चलने लगा है
नियमों, सिद्धांतों और परम्पराओं से,
कभी कुछ 'समझदार' नायकों ने बना दिया था
कुछ 'समाज' जैसा,
जो हर क्षण,
हर कदम पर
मुझे देखता रहता है,
टोकता रहता है,
मारता रहता है
हलाल के मज़े लूटकर।
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
यहाँ मत खेलो
- वहाँ मत जाओ
- उनसे मत बोलो,
मैंने अब तक का
आधा जीवन बिताया है
उन गड़ी हुई निगाहों के
प्रश्नों के उत्तर तैयार करने में,
- वहाँ क्यों गए?
- वो क्यों किया?
- वो क्यों नहीं किया?
मुझे सींखचों के सपने आते हैं हर रात
और मैं डरकर भागता हुआ
रोज किसी अन्धे कुंए में
जा गिरता हूं,
'आपकी रचना हर व्यक्ती पर लागु होती है, ये लगभग एक उमर मे सबके साथ होता है, हमने भी इन पब्न्दीयों को जिया है, बहुत अच्छा लिखा है आपने , एक उमर याद आ गई ".
Regards
यज्ञोपवीत संस्कार के बहाने
मेरी छाती पर बाँध दिया गया था
एक बंधन
या रख दिया गया था एक पहाड़
प्रतिबन्धों का,
- यहाँ मत खेलो
- वहाँ मत जाओ
- उनसे मत बोलो,
तब से हर समय
गड़ी रहती हैं दस-दस जोड़ी निगाहें
मेरे सीने में,
सिर के ऊपर,
कदमों के नीचे
कि कब मैं पंख पसारूं
और काट दिया जाऊं,
कि कब मैं मस्त हो गुनगुनाऊं
और डाँट दिया जाऊं,
गौरव भाई, बहुत अच्छी प्रस्तुति रही. अपने जीवन का एक भूला बिसरा दौर याद आ गया,
बहुत अच्छे
आलोक सिंह "साहिल"
गौरव जी,
सुन्दर रचना है सांस्कारिक बन्धनों पर प्रहार करती हुई.
परन्तु कुछ बन्धन सामाजिक रूप से आवश्यक भी हैं वरना आदमी और गुस्सैल सांड में कोई फ़र्क नहीं रहता जो किसी के भी खेत में घुस कर फ़सल तवाह कर सकता है :)
यहाँ मत खेलो
- वहाँ मत जाओ
- उनसे मत बोलो,
मैंने अब तक का
आधा जीवन बिताया है
उन गड़ी हुई निगाहों के
प्रश्नों के उत्तर तैयार करने में,
- वहाँ क्यों गए?
- वो क्यों किया?
- वो क्यों नहीं किया?
मुझे सींखचों के सपने आते हैं हर रात
और मैं डरकर भागता हुआ
रोज किसी अन्धे कुंए में
जा गिरता हूं,
गौरव जी सुन्दर रचना है उन कुरीतियों पर प्रहार करती जो भेद-भाव को जन्म देतीं है..
बहुत बहुत बधाई
गौरव
बहुत सुंदर चित्रण किया है सामाजिक बंधनों का. कभी कभी सच्मुह मन विद्रोह करता है अपने हमउम्र और बड़ों की तरह
डर की आदत से
मैं नियंत्रित होने लगा हूं,
उन मशीनों की मानिन्द
मेरा भी जीवन चलने लगा है
नियमों, सिद्धांतों और परम्पराओं से,
कभी कुछ 'समझदार' नायकों ने बना दिया था
कुछ 'समाज' जैसा,
साधु वाद
गौरव जी,
सर्वप्रथम ख्रीष्टाब्द नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ स्वीकारें.
कथ्य का प्रस्तुतीकरण इस रचना में उत्कृष्ट बन पड़ा है. किशोरमन के मन में उठने वाले अनकहे आपत्तियों का चित्रण कुशलता से किया गया है. जीवन के आरंभिक सोपान में प्रायः सभी इस बात को महसूस करते हैं और कभी-कभी जब इस प्रकार के बंधन कठोर अनुभूत होने लगते हैं तो विद्रोह की ज्वाला भी उठती दिखाई देती है.
नए भाव से सजी सुंदर प्रस्तुति लगी यह .. जीवन में अक्सर यह सब अनुभव होता है !!
ye prodh kavita lagi....jisme samajik sarokar ka put tha..achchhi rachana..bahut achchhi...badhai...sadhuwad
किशोर मन की बातें हैं, कविता पढ़ कर मैं तो सिर्फ़ मुस्करा रही हूँ---क्योंकि मैं भी ऐसा ही सोचती थी, हमारे समय कविता लिखना-पढ़ना भी डाँट का कारण बन जाती थी. मगर आज अपने बच्चों के साथ वैसे ही सख्त हूँ क्योंकि थोडी सख्ती,बन्धन,नियम सब बहुत जरुरी हैं. फर्क यह है कि आज बच्चे सवाल करते हैं और जवाब मांगते हैं और पहले हम मुंह भी नहीं खोल पाते थे.
किशोरों को समझना चाहिये कि यह दुनिया अँधा कुआँ नहीं है,और न कोई आप को यहाँ 'हलाल' करता है.बड़े हमेशा मार्गदर्शन करते हैं-
आप कि कविता में भावों कि अभिव्यक्ति आपने जबरदस्त की है-- 'समाज' के प्रति सारा विद्रोह उमड़ आयाहै..बस लिखते रहिये --कविता अच्छी लिखी है--शब्द भी सही चुने हैं--सोच को सकारात्मक रुख दो-- शुभकामनाएं
गौरव जी,
कथ्य सुन्दर है लेकिन यह सिर्फ़ आधी बात है।
आपने लिखा-
-यहाँ मत खेलो
- वहाँ मत जाओ
- उनसे मत बोलो
क्या यह भी उतना ही सच नही है-
-यहाँ खेलो
-वहाँ जाओ
-उनसे बोलो
समझ रहे हैं ना, मैं कहाँ ईशारा कर रहा हुँ। लोहे की जंजीरों से तो मुक्त होना ही है, सोने की जंजीरों से सावधान रहना भी उतना ही जरूरी है।
अल्पना जी, किशोर-मन के विद्रोह सुगढ़ भले ही न होते हों, मगर उन जितने सच्चे विद्रोह किसी उम्र में नहीं होते। दुख ये है कि बड़े होकर सभी उन बंधनों के समर्थक बन उनके पक्ष में तर्क ढूंढ़ लेते हैं।
सच मानिए, दुनिया का कोई भी बंधन मानव-प्रगति में सकारात्मक नहीं है।
मोहिन्दर जी, गुस्सैल साँड मुझे तो सांकलों से बंधे और हल में जुते बैल की अपेक्षा बहुत खुश ही लगता है।
रविकांत जी, आपका इशारा मैं समझ गया। आप सही कह रहे हैं, दोनों जंजीरें उतनी ही कष्टदायक हैं।
आप सबने कविता के भाव को समझा, उसे सराहा, इसके लिए बहुत धन्यवाद।
Gaurav, I just wake up nd read ur new poem .......nd india ka sab yaad aa gaya mere ko.........nd maine relief feel kia thnk God ....US mey aisa kuch nahi hai....first time i feel i am in better place.......aur mujhe apni freedom ki importance feel hua.......thnx.....nd ya ......slowly slowly indian society will change too ....nothng is certain.....50 yrs kay baad logo ko tumari iss poem ki jarurat nahi paregi believe me ....heheheheheeh........cheers ViJaya........
गौरव जी,
परिपक्वता अगर तर्क ढूंढती है तो उसका कुछ कारण होता है.
एक तरफ़ा खुशी या प्रगति सच्ची खुशी या प्रगति नहीं है. सच्ची खुशी अपने आस पास खुशी बिखेरने से मिलती है.न कि निजी खुशी बटोरने से.
मंजिले जीस्त में हर गाम संभलना सीखो
ठोकरें दर्स ये देती हैं कि चलना सीखो
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