हिन्द-युग्म ने उदय प्रकाश को जनवरी माह का सम्मानित कवि बनाया है। हमने उनकी एक कविता 'एक भाषा हुआ करती है' और हिन्द-युग्म के नाम उनका संदेश प्रकाशित किया है। आज हम उनकी कविता 'नींव की ईंट हो तुम दीदी' प्रकाशित कर रहे हैं।
नींव की ईंट हो तुम दीदी
पीपल होतीं तुम
पीपल, दीदी
पिछवाड़े का, तो
तुम्हारी खूब घनी-हरी टहनियों में
हारिल हम
बसेरा लेते/
हारिल होते हैं हमारी तरह ही
घोंसले नहीं बनाते कहीं
बसते नहीं कभी
दूर पहाड़ों से आते हैं
दूर जंगलों को उड़ जाते हैं/
पीपल की छांह
तुम्हारी तरह ही
ठंडी होती है दोपहर/
ढिबरी थीं दीदी तुम
हमारे बचपन की
आचार का तलछट तेल
अपनी कपास की बाटी में सोखकर
जलती रहीं/
हमने सीखे थे पहले-पहल अक्षर
और अनुभवों से भरे किस्से
तुम्हारी उजली साँस के स्पर्श में/
जलती रहीं तुम
तुम्हारा धुआं सोखती रहीं
घर की गूंगी दीवारें
छप्पर के तिनके-तिनके
धुंधले होते गए
और तुम्हारी
थोड़ी-सी कठिन रौशनी में
हम बड़े होते रहे/
नदी होतीं, तो
हम मछलियाँ होकर
किसी चमकदार लहर की
उछाह में छुपते
कभी-कभी बूँदें लेते
सीपी बन
किनारों पर चमकते/
चट्टान थीं दीदी तुम
सालों पुरानी/
तुम्हारे भीतर के ठोस पत्थर में
जहाँ कोई सोता नहीं निझरता,
हमीं पैदा करते थे हलचल
हमीं उडाते थे पतंग/
चट्टान थीं तुम और
तुम्हारी चढ़ती उम्र के ठोस सन्नाटे में
हमीं थे छोटे-छोटे पक्षी
उड़ते तुम्हारे भीतर
वहाँ झूले पड़े थे हमारी खातिर
गुड्डे रखे थे हमारी खातिर
मालदह पकता था हमारी खातिर
हमारी गेंदें वहाँ
गुम हो गयीं थीं/
दीदी, अब
अपने दूसरे घर की
नींव की ईंट हो तुम तो
तुम्हारी नई दुनिया में भी
होंगी कहीं हमारी खोयी हुई गेंदें
होंगे कहीं हमारे पतंग और खिलौने
अब तो ढिबरी हुईं तुम
नए आँगन की
कोई और बचपन
चीन्हता होगा पहले-पहल अक्षर
सुनता होगा किस्से
और यों
दुनिया को समझता होगा/
हमारा क्या है, दिदिया री!
हारिल हैं हम तो
आयेंगे बरस-दो बरस में कभी
दो-चार दिन
मेहमान-सा ठहरकर
फ़िर उड़ लेंगे कहीं और/
घोंसले नहीं बनाए हमने
बसे नहीं आज तक/
कठिन है
हमारा जीवन भी
तुम्हारी तरह ही
उदय प्रकाश
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
अब तो ढिबरी हुईं तुम
नए आँगन की
कोई और बचपन
चीन्हता होगा पहले-पहल अक्षर
सुनता होगा किस्से
और यों
दुनिया को समझता होगा/
" वाह बहुत खूब , बहुत अच्छा वर्णन किया है दीदी के साथ अपने रिश्ते का .बेहद अच्छे कवीता"
Regards
उदय जी दीदी के साथ रिश्तों का इतना बेहतरीन ताना बना वो भी कविता के माध्यम से.
बहुत अच्छी प्रस्तुति, बधाई हो
आलोक सिंह "साहिल"
very very nice sentimentatal kavita ,rishta didi se itna gehra,sundar,badhai ho,may god bless u and ur didi both.
नमन
ढिबरी थीं दीदी तुम
हमारे बचपन की
आचार का तलछट तेल
अपनी कपास की बाटी में सोखकर
जलती रहीं/
हमने सीखे थे पहले-पहल अक्षर
और अनुभवों से भरे किस्से
तुम्हारी उजली साँस के स्पर्श में/
जलती रहीं तुम
तुम्हारा धुआं सोखती रहीं
घर की गूंगी दीवारें
छप्पर के तिनके-तिनके
धुंधले होते गए
kya kahun, sach ek ek pankti ek ek shabd apna sa lagta hai, kavita kya hai, ek poora ehsaas hai, gahra utarta hua.....
अब तो ढिबरी हुईं तुम
नए आँगन की
कोई और बचपन
चीन्हता होगा पहले-पहल अक्षर
सुनता होगा किस्से
और यों
दुनिया को समझता होगा/
बहुत सुंदर लगी आपकी यह रचना उदय जी !!
अब तो ढिबरी हुईं तुम
नए आँगन की
कोई और बचपन
चीन्हता होगा पहले-पहल अक्षर'''
*इतनी सुंदर कविता है...क्या कहें---
* इसे पढ़ कर आज कुछ पुरानी यादें ताज़ा हो गयी.
* मन की गहराई को छू कर आँखें नम कर गयी.
आपकी कविता शीशे की तरह साफ़ है-
हमारा क्या है, दिदिया री!
हारिल हैं हम तो
आयेंगे बरस-दो बरस में कभी
दो-चार दिन
मेहमान-सा ठहरकर
फ़िर उड़ लेंगे कहीं और
बहुत कुछ सीख सकेंगे हम।
बड़ी ही भावपूर्ण कविता है..
प्यारे से समबन्ध को बड़े ही कौतूहल से दर्शाती कविता..
क्या कहूँ! उदय प्रकाश जी,
आपकी लेखनी को नमन करने का मन करता है। शैलेश जी ने सही हीं कहा है कि आपसे हमलोग बहुत कुछ सीखेंगे।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
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