जनवरी महीना खत्म होने को है और टॉप २५ कविताओं के प्रकाशन के भी हम अंतिम चरण में हैं। २४वें स्थान पर हिन्द-युग्म पर बहुत पहले से आ रहे मगर प्रथम बार प्रकाशित हो रहे अमलेन्दु त्रिपाठी की कविता प्रकाशित कर रहे हैं।
कविता- क्या यही जिंदगी है
कवयिता- अमलेन्दु त्रिपाठी, इलाहाबाद
आज मानव लड़ रहा है
आगे बढ़ने के लिए नहीं
खड़े रहने के लिए
जो जहाँ है
वही जूझ रहा है
सिर्फ़ अपने अस्तित्व के लिए
ढ़ेरो मिट जाते है
कीड़े मकोड़ो की तरह
कुछ एक बच जाते हैं
परंतु
वे भी नहीं जान पाते
कि हम बच गए
जिंदगी की जंग जीत गए
क्यों
तब तक
जिंदगी खत्म हो जाती है
वक्त ही नहीं मिलता
होश ही नहीं रहता
जानने का
कि हम जीत गये
क्या यही है जिंदगी?
इसी के लिए सपने देखते हैं
और जूझते हैं
हमसे तो भला है
वो राह का पत्थर
जो पड़ा है चैन से
खाकर ठोकरें पथ पर
क्या हुआ
न उसका ग़म है
क्या होगा
न उसकी चिंता
पड़ा है पथ पर
आती जाती है जनता
क्या मेरे जन्म का
प्रयोजन यही है
शायद नहीं
था तो कुछ और
मगर
हो गया कुछ और
क्यों
एक छाप छोड़ना चाहा था
अंत:करण में
हर किसी के
मगर
तलाश रहा हूँ
थोड़ी सी जगह
इसी जमीं पर
निर्णायकों की नज़र में-
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक-७॰५, ६, ४॰८
औसत अंक- ६॰१
द्वितीय चरण के जजमैंट में मिले अंक-४॰७, ६॰१ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ५॰४
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5 कविताप्रेमियों का कहना है :
जिंदगी खत्म हो जाती है
वक्त ही नहीं मिलता
होश ही नहीं रहता
जानने का
कि हम जीत गये
क्या यही है जिंदगी?
इसी के लिए सपने देखते हैं
और जूझते हैं
"बहुत अच्छा परिचय कराया आपने जिन्दगी के ऐसे रूप से जो शायद हर एक आम इन्सान जीता है. बधाई"
सच कहती है अमलेन्दु त्रिपाठी की कविता कि अपनी पहचान बनने की कोशिश में या फ़िर जन्म का प्रयोजन खोजने में ही कई बार जीवन गुजर जाता है,मगर तलाश तो जारी रखनी ही होगी.
सिर्फ़ अपने अस्तित्व के लिए
ढ़ेरो मिट जाते है
कीड़े मकोड़ो की तरह
कुछ एक बच जाते हैं
परंतु
वे भी नहीं जान पाते
कि हम बच गए
जिंदगी की जंग जीत गए
बहुत ही अच्छी पंक्तियाँ.एक सशक्त प्रस्तुति
बधाई हो
आलोक सिंह "साहिल"
bahut bahut sach kaha,aaj manav jeevan se jyada,apne aham ke astitva ke liye ladh raha hai.
bahut achhi kavita badhai.
अमलेन्दु जी,
बहुत बहुत बधाई...
बढिया लिखा है..
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