बचपन में मैने
महाभारत पढ़ी थी
युधिष्ठिर का चरित्र भाया था ।
सोचा था -'मै भी
जीवन में सदैव सत्य बोलूंगा ।'
समझ नही आता -
आज लोग मुझे
'पागल' क्यों कहते हैं ?
बचपन में मैने
गौतम बुद्ध को पढ़ा था
उनका साधूपन भाया था ।
सोचा था - 'मै भी
तन से न सही
मन से अवश्य साधू बनूंगा ।'
समझ नही आता -
आज लोग मुझे
'बेवकूफ' क्यों कहते हैं ?
बचपन में मैने
गीता पढ़ी थी
कृष्ण का उपदेश भाया था ।
सोचा था -'मै भी
कर्मण्येवाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचन
अपनाऊँगा ।'
बस कर्म करूंगा
फल की इच्छा नही रखूंगा ।
समझ नही आता -
आज लोग क्यों कहते हैं -
अरे ! इसका खूब फायदा उठा लो
बदले में कुछ नही मांगता !
बचपन में मैने
पढ़ा था - दहेज कुप्रथा है ।
सोचा था - 'बिना दहेज शादी करूंगा
पत्नी को सम्मान दूंगा,
उसके माँ बाप को
अपने माँ बाप का दर्जा दूंगा ।'
समझ नही आता -
आज लोग मुझे क्यों कहते हैं -
धोबी का --------------
न दामाद न बेटा !
बचपन में मैने
गांधी को पढ़ा था ।
सोचा था - ' मै भी अपनाऊँगा
सादा जीवन उच्च विचार'
समझ नही आता -
आज लोग मुझे
'गधा' क्यों कहते हैं ?
बचपन में मैने
मदर टेरेसा को पढ़ा था ।
सोचा था - 'बड़ा हो कर
मै भी करूँगा
लोगों की निस्वार्थ सेवा ।'
समझ नही आता -
आज लोग मुझे क्यों कहते हैं -
जरूर इसकी निस्वार्थ सेवा में भी
कुछ स्वार्थ होगा !
कवि कुलवंत सिंह
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8 कविताप्रेमियों का कहना है :
बचपन में मैने
पढ़ा था - दहेज कुप्रथा है ।
सोचा था - 'बिना दहेज शादी करूंगा
पत्नी को सम्मान दूंगा,
उसके माँ बाप को
अपने माँ बाप का दर्जा दूंगा ।'
समझ नही आता -
आज लोग मुझे क्यों कहते हैं -
धोबी का --------------
न दामाद न बेटा !
"बहुत अच्छी रचना , बचपन के संस्कारों और जवानी के मूल्यों के फर्क को दर्शाती"
धूमिल हो चुके या हो रहे पदचिन्हों हो अच्छा याद दिलाया है |
सुंदर
अवनीश तिवारी
bahut khub,niswarth seva mein bhi swarth hoga,aise hi sochte hai log aaj kal.
समझ नही आता -
आज लोग मुझे क्यों कहते हैं -
जरूर इसकी निस्वार्थ सेवा में भी
कुछ स्वार्थ होगा !
बहुत सही कहा --आज के समय में.. होम करते हाथ हमेशा ही जलता है.
वर्तमान में एक आदर्शवादी ,सच्चे ईमानदार व्यक्ति की क्या स्थिति है वह आप की कविता स्पष्ट दर्शा रही है.
और शायद इसी के चलते व्यक्ति जाने कितने समझोते करते हुए अपने आप को वर्तमान समय की जरूरतों के अनुरूप ढालने की कोशिश करने लगता है.
तेरी रचना में मिली.... सच्चाई कुलवंत
नेकी की सच हो रही... अनदेखी भगवंत
निःस्वारथ के भाव को स्वारथ समझें लोग
रूखी सूखी भी लगे... जैसे छप्पन भोग
क्षत-विक्षत नित हो रहे मूल्य फर्ज़ ईमान
इंसानों को गर्त मे..... खींच रहा इंसान
साधू सेवा सत्यता सादा संत विचार
अपमानित हो रो रहे मिलता क्यूँ तिरस्कार
- कुलवंत जी बहुत बढिया लिखा आपने बरबस ही उपरोक्त शब्द फूट पडे आपकी कविता पढ़कर..
बचपन में मैने
पढ़ा था - दहेज कुप्रथा है ।
सोचा था - 'बिना दहेज शादी करूंगा
पत्नी को सम्मान दूंगा,
उसके माँ बाप को
अपने माँ बाप का दर्जा दूंगा ।'
समझ नही आता -
आज लोग मुझे क्यों कहते हैं -
धोबी का --------------
न दामाद न बेटा !
अच्छी लगी आपकी यह रचना कविकुलवंत जी
कुलवंत जी !
क्या कहें आज के समय में ऐसी ही तो माया है १८० डिग्री का उलट फेर ... इस और ध्यानाकर्षित करती एक अच्छी रचना के लिए साधुवाद
बहुत सटीक लिखा है आपने यही हो रहा है आज...कोई किसी को चाहे तो भी लोग मतलब समझते है...औरों की बात अलग है खुद कई बार अपने भी सोचते है जरूर इसमे कोई स्वार्थ होगा...
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