अनायास ही याद आया मुझे
आज मेरा जन्मदिन है..
४० का हो गया मैं..
५ दिन बाद.....
गुड्डू भी ३५ की हो जाएगी...
कल देखा था..
गुड्डू सफ़ेद बालों को
डाई करना भूल गयी थी
अब इंतज़ार की सफेदी दिखने
लगी है!!
नीरस ज़िन्दगी की ऊब
प्रतिदिन निढाल करने लगी है...
पांच दिन की नौकरी
और सप्तांत एक ऐसे
लड़के के खोज में
बिता देना....
जो 'गहरी सांवली' मेरी
बहिन से ब्याह करे!!
१५ सालों से बिना
बाधा के यही क्रम
रोज़-रोज़.....
गुड्डू से मुझे कोई
संवेदना नहीं...
वह सच में एक
'बोझ' है..
जिसे समाज ने
मुझ पर थोपा है..
और यही समाज
ताने कसेगा अगर
'उसे घर में बिठाये'
मैंने शादी की..
क्या विडम्बना है!!
खीझ, घीन,आक्रोश
अन्दर से खाते है
जब भी उन
'वैरी फेयर' पसंद
करने वालो के पास
गिडगिडाना पड़ जाता
है...
उफ्फ्फ़....ये गुड्डू भाग
नहीं सकती किसी के साथ?
१५ साल पहले
गुड्डू भाग गयी होती..
तो.... तो.........
गुड्डू का कत्ल
मैंने ही किया होता!!
ह्म्म आज मेरा जन्मदिन है...
गुड्डू को कहना पड़ेगा
अपने बाल को डाई
कर ले.....
यूनिकवयित्री- दिव्या श्रीवास्तव
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
दिव्या जी,
इस निर्लज़्ज़ एवं कुटिल समाज में एक बहन के ब्याह के लिए भाई के दिल में उबलती पीड़ा को आपने बड़े हीं मार्मिक शब्दों में प्रस्तुत किया है।
१५ साल पहले
गुड्डू भाग गयी होती..
तो.... तो.........
गुड्डू का कत्ल
मैंने ही किया होता!!
इन शब्दों में वह पीड़ा चरम पर है, आम इंसान इसे खीझ समझ सकता है, लेकिन सच्चे मायने में यह उस दर्द की अतिशयता है, जो कभी भी फूट सकता है।
आपकी अगली रचना के इंतजार में-
विश्व दीपक 'तन्हा'
दिव्या जी
शुभकामनाए स्वीकारें! अच्छी कविता.
bahut achhe se prastut samaj ki ek vidambana,badhai.
"well written and nicely composed, lovedreading it"
Regards
दिव्या जी बहुत सुंदर कविता और जो दर्द में इस में उभर के आया है वह तारीफे काबिल है ..बधाई सुंदर रचना के लिए !!
बहुत बहुत सुंदर व्यथा है |
बिल्कुल सच के समीप है आप |
बधाई |
-- अवनीश तिवारी
अति सुंदर कविता।
दिव्या जी,
रिश्तों और समाज से मिली पीडा का सचित्र चित्रण किया है आपने अपनी रचना के माध्यम से. समाज से लडना आसान है परन्तु अपने मन में उठती हुई भावनाओं से पार पाना मुशकिल.
बधाई.
*दिव्या आपने तो भावों की अभिव्यक्ति और मन के दर्द को
शब्दों में ढाल कर एक अच्छी कविता का रूप दे दिया.
* विषम मनः स्थिति को बहुत ही सरलता से प्रस्तुत किया.
बधाई.
बहुत ही गहरी विडम्बना...
१५ साल पहले
गुड्डू भाग गयी होती..
तो.... तो.........
गुड्डू का कत्ल
मैंने ही किया होता!!
-वाह..
शब्दोंको पार कर यह पीडा भरा आक्रोश पाठक के दिलमें उतर जाता है.....और उसे एक अच्छी रचनापर बधाई देनेके योग्य भी नहीं रखता !
आप ने कविता के रुप मे,कितना बडा सच उगेल दिया, जिन पर ओर जिस पर बितती हो गई वो केसे सहते होगे इस दर्द को
धन्यवाद
दिव्या जी कमाल लिखती हैं आप.एक के बाद एक लगातार बेहतरीन रचनायें, बधाई हो
आलोक सिंह "साहिल"
अत्यंत कोमल और मर्मस्पर्शी भाव हैं आपने शाब्दिक अभिव्यक्ति दी ,साधुवाद स्वीकारिये ;ऐसा लगा कि जो बातें अंदर कसमसा रहीं थीं मेरे भीतर आज शब्द रूप में सामने आ गईं पर खुद ही डर जाता हूं इन भावों को देख कर ................
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