कौन हूँ मैं …
ले उर में अथाह जलराशि
नील नभ में तैरता ...
हवा के झोंकों पर सवार
ऊपर और ऊपर …
अपने प्रस्तार से
सूरज को ढंक लेने का दंभ लिये
हर पल कोई नया रूप लिये
कोई भटकता बाद्ल ...
किन्तु वादियों में बहुधा उलझ जाता हूँ
नवयौवना की वेणी जैसा गुंथ जाता हूँ
वर्फीली पर्वत चोटियों से नीचा हो जाता हूँ
और मेरा दंभ चूर हो जाता है ...
फिर कौन हूँ मैं …
कौन हूँ मैं …
अछूती कन्या के शील सी
दूर तक पसरी हुयी रेत पर
हवा की ख़ारिशों से लिखा नाम ...
चमकता हूँ दूर तक, सबसे अलग
बेचैनी से ……
और प्रस्तार की प्रतीक्षा में
किन्तु फिर दूब उग आती है
या फिर अंधड़ तूफ़ान के आते ही
ढंक जाता है …
समाप्त हो जाता है मेरा अस्तित्व
फिर कौन हूँ मैं …
कौन हूँ मैं …
काल की अनवरत धारा पर
बनी हुयी एक आकृति …
बहती जा रही है
अपनी क्षणभंगुरता से बेख़बर …
यौवन की देहरी पर खड़ी
आसपास की सभी आकृतियों को
आकृष्ट करने में निरन्तर ….
एक निश्चित दूरी पर,
बहती हुयी धारा में जो भँवर है
वहां पहुंचते ही आकृति विलीन हो जाती है
कहीं कोई नाम नहीं …. कोई निशान नहीं
गीली रेत पर पगचिन्ह…
दोपहर होते ही मिट जाते हैं
फिर कौन हूँ मैं ….
मैं हूँ ... .... ...
शायद एक शाश्वत विचार ...
जो दिया है मैने, युग को ...
या फिर वो अमिट पल
जो जिया है मैने, मिटने से पहले
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
मैं हूँ ... .... ...
शायद एक शाश्वत विचार ...
जो दिया है मैने, युग को ...
या फिर वो अमिट पल
जो जिया है मैने, मिटने से पहले
बहुत ही सुंदर विचार जो आपकी इस रचना में ढले हैं .. ख़ुद को ख़ुद में तलाश करती यह रचना आपकी बहुत अच्छी लगी श्रीकांत जी !!
हूँ ... .... ...
शायद एक शाश्वत विचार ...
जो दिया है मैने, युग को ...
या फिर वो अमिट पल
जो जिया है मैने, मिटने से पहले
"बहुत खूब, अपने आस्तित्व को तलाशती एक सुंदर रचना"
With Regards
ati sundar vichar hai,aakhari ki char panktiya to khubsurat hai bahut sundar.
कांत जी,
हमेशा की तरह एक और सुन्दर रचना..
कौन हूँ मैं …
अछूती कन्या के शील सी
दूर तक पसरी हुयी रेत पर
हवा की ख़ारिशों से लिखा नाम ...
चमकता हूँ दूर तक, सबसे अलग
बेचैनी से ……
और प्रस्तार की प्रतीक्षा में
किन्तु फिर दूब उग आती है
या फिर अंधड़ तूफ़ान के आते ही
ढंक जाता है …
समाप्त हो जाता है मेरा अस्तित्व
फिर कौन हूँ मैं …
सुन्दर.....
अपने प्रस्तार से
सूरज को ढंक लेने का दंभ लिये
हर पल कोई नया रूप लिये
कोई भटकता बाद्ल ...
---या फ़िर --
अछूती कन्या के शील सी
दूर तक पसरी हुयी रेत पर
हवा की ख़ारिशों से लिखा नाम
या फ़िर ==ये पंक्तियाँ---काल की अनवरत धारा पर
बनी हुयी एक आकृति …
बहती जा रही है
अपनी क्षणभंगुरता से बेख़बर '
-कौन सी पंक्तियाँ ली जायें -समझ नही आ रहा-
-कितनी विस्तृत कल्पना है आप की!!!!
-बहुत ही अनूठी!
-पूरी कविता में अभिव्यक्ति को इतनी सुंदर तरीके से प्रस्तुत किया है.
-कई बार पढी ,हर बार जैसे अपनी ही मन की बात लगी... शायद हर किसी के मन की बात[?]
क्योंकिये जानते हुए भी कि जवाब वोही होता है जो अंत में कविता दे रही है मगर एक उम्र बीत जाती है ख़ुद को तलाशने में--
साथ दिए गए चित्र का चयन बहुत सटीक है--
चित्र देख कर कविता लिखी है या कविता सुनकर चित्र बना है?
श्रीकन्त जी
मेरे पास वो शब्द नहीं हैं कि मैं इस कविता की प्रशंसा करूँ । इस प्रकार के प्रश्न उठना ही एक दिशा है । उत्तर बहुत से हो सकते हैं । प्रत्येक की अपनी तलाश और अपनी मंज़िल होती है। आपके विचार बहुत सुन्दर रूप में प्रस्तुत किए हैं मैं हूँ ... .... ...
शायद एक शाश्वत विचार ...
जो दिया है मैने, युग को ...
या फिर वो अमिट पल
जो जिया है मैने, मिटने से पहले
-अति सुन्दर । बधाई स्वीकारें
अल्पना जी !
चित्र के बारे में आपकी सहज जिज्ञासा का उत्तर दे रहा हूँ. कवि का कल्पनालोक आप जानती ही हैं कि अनूठा ही होता है प्रायः और फ़िर जीवन दर्शन को चित्र में उतारने के लिए कोई एक चित्र यों सहज ही मिल जाए यह भी सम्भव नहीं है. अतः मैंने कविता लिखने के बाद ही फोटोशॉप का अपना अनुभव प्रयोग करते हुए गैलाक्सी, सम्पूर्ण सूर्यग्रहण और करोना के साथ घूमती हुयी पृथ्वी, अतुल जल प्रवाह के बीच बना हुआ भंवर एवं पृथ्वी पर ध्यान में लीन सृष्टिकी प्रतीक एक वेणीयुत नारी, इन चार चित्रों के युग्म से कविता की पृष्ठभूमि और स्वयम को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है
अस्तु सर्वेषां शुभम मंगलम
मैं हूँ ... .... ...
शायद एक शाश्वत विचार ...
जो दिया है मैने, युग को ...
या फिर वो अमिट पल
जो जिया है मैने, मिटने से पहले
waah adbhut kavita, srikant ji bahut anand aaya padhkar kuch pal ko to doob ho gaya
धन्यवाद श्रीकांत जी मेरे प्रश्न का उत्तर देने के लिए ,
बहुत ही आकर्षक, अनोखा और अद्भुत चित्र है--कविता के भावों को समाये हुए-आप की कल्पना भी कमाल है! मानना पड़ेगा तकनीकी aur kalpna का इतना सुंदर और कुशल mishran -
hats off to you!
बहुत खूब! बधाई!
कौन हूँ मैं …
काल की अनवरत धारा पर
बनी हुयी एक आकृति …
बहती जा रही है
अपनी क्षणभंगुरता से बेख़बर …
यौवन की देहरी पर खड़ी
आसपास की सभी आकृतियों को
आकृष्ट करने में निरन्तर ….
एक निश्चित दूरी पर,
बहती हुयी धारा में जो भँवर है
वहां पहुंचते ही आकृति विलीन हो जाती है
कहीं कोई नाम नहीं …. कोई निशान नहीं
गीली रेत पर पगचिन्ह…
दोपहर होते ही मिट जाते हैं
फिर कौन हूँ मैं ….
बहुत ही सुंदर विचारों को उकेरा है आपने.बहुत ही अच्छी कविता.
आलोक सिंह "साहिल"
श्रीकान्त जी,
सुन्दर उपमाओं द्वारा आत्म विशलेषण करती एक सशक्त रचना के लिये बधाई
अगर आप सचमुच यह जानना चाहते हैं की " मैं कौन हूँ ? " तो मैं आपकी मदद कर सकता हूँ।
मैनें आपके प्रशन ' मैं कौन हूँ ? " के उत्तर अपने ब्लॉग http://mainhoshhoon.blogspot.com/ पर दिए हैं।
अगर फिर भी आप संतुष्ट न हों तो मुझे kad.vinod@gmail.com पर और सवाल पूछ सकते हैं।
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