ये मुनासिब नहीं हम आग में जलते जाएँ,
राह लम्बी है,सफर दूर तक,चलते जाएँ...
मेरी आंखों में कोई बूँद न थी,वो खुश था,
दिल के सागर को न देखा कि मचलते जाएँ...
ठोकरों के सिवा उम्मीद कैसी पत्थर से....
खुदा बनाने से बेहतर है, संभलते जाएँ...
ये रिवायत ही रही है कि सब अजीज मेरे,
मुझपे महफ़िल में हँसे और निकलते जाएँ....
चाँद की तरह उजालों का दिलासा देकर,
चाँद रातों में ही चुपचाप से ढलते जाएं....
मैं अगर मैं न रहूँ, तू अगर तू न रहे,
तब ही मुमकिन है कि हालात बदलते जाएँ.
निखिल आनंद गिरि
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
चाँद की तरह उजालों का दिलासा देकर,
चाँद रातों में ही चुपचाप से ढलते जाएं....
मैं अगर मैं न रहूँ, तू अगर तू न रहे,
तब ही मुमकिन है कि हालात बदलते जाएँ.
दिल को छु गई ये पंक्तिया ,शायद अकेले सफर आसन कोई साथ हो थो मुश्किल,कभी पर जरुत पड़ती है कोई हो अपना साहिल,तय करना मुश्किल है.कविता खूबसूरत है.महक
खुदा बनाने से बेहतर है,सँभालते जाएं...
ये रिवायत ही रही है कि सब अजीज मेरे,
मुझपे महफ़िल में हँसे और निकलते जाएँ....
चाँद की तरह उजालों का दिलासा देकर,
चाँद रातों में ही चुपचाप से ढलते जाएं....
बहुत सुन्दर लिखा है । बधाई
**अच्छे ख्याल हैं--
***ग़ज़ल के शेरों में अगर थोड़ा अन्तर रखते तो 'देखने ' [जिसको 'विजुअल इम्पक्ट' भी कहते हैं. ] dekhne पढने में और बेहतर होता.यह एक सुझाव है.
**'खुदा बनाने से बेहतर है,सँभालते जाएं...' में 'संभलते' होना चाहिये था -शायद टंकण त्रुटी होगी.लेकिन एक मात्रा से शब्द और शब्द से वाक्य का अर्थ बदल जाता है--कृप्या देखीयेगा.
*अच्छी रचना है.
बहुत सुंदर लगी यह पंक्तियाँ निखिल जी
चाँद की तरह उजालों का दिलासा देकर,
चाँद रातों में ही चुपचाप से ढलते जाएं....
मैं अगर मैं न रहूँ, तू अगर तू न रहे,
तब ही मुमकिन है कि हालात बदलते जाएँ.
निखिल भाई, लंबा समय गुजर गया था.आपको पढे.
मस्त लिखा आपने तो, खासकर इन पंक्तियों ने टू कमाल ही कर डाला.
ये रिवायत ही रही है कि सब अजीज मेरे,
मुझपे महफ़िल में हँसे और निकलते जाएँ....
चाँद की तरह उजालों का दिलासा देकर,
चाँद रातों में ही चुपचाप से ढलते जाएं....
बधाई हो जी
आलोक सिंह "साहिल"
कवि परेशान है क्या? क्या बात है निखिल भावपूर्ण रचना है मगर उदासी लग रही है...जैसे कहीं गहरी चोट खाई रचना...
ये रिवायत ही रही है कि सब अजीज मेरे,
मुझपे महफ़िल में हँसे और निकलते जाएँ....
बधाई! सब के दिल तक छू लेने वाली रचना के लिये...
अल्पना जी,
वो टंकण की ही त्रुटि है..अब मैंने सुधार कर "संभलते" कर दिया है....शुक्रिया....
आगे भी स्नेह बनायें रखें,...
निखिल
निखिल भाई,
बहुत सुंदर |
अवनीश
मैं अगर मैं न रहूँ, तू अगर तू न रहे,
तब ही मुमकिन है कि हालात बदलते जाएँ.
बहुत सुंदर ,
वाह गिरि जी...वाह
मज़ा आ गया पढ़कर..
ठोकरों के सिवा उम्मीद कैसी पत्थर से....
खुदा बनाने से बेहतर है, संभलते जाएँ...
निखिल क्या बात है, कभी कभी तो बिल्कुल गज़ब धा देते हो, और भी शेर है जो लाजावाब है, सुंदर ग़ज़ल के लिए बधाई
मैं अगर मैं न रहूँ, तू अगर तू न रहे,
तब ही मुमकिन है कि हालात बदलते जाएँ.
निखिल जी सुंदर भाव उत्कृष्ट रचना .......
सुनीता यादव
एक बार फ़िर आपके तेवरों का मैं मुरीद हो गया। विशेषरूप से ये-
ठोकरों के सिवा उम्मीद कैसी पत्थर से....
खुदा बनाने से बेहतर है, संभलते जाएँ.
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