भोलापन जाता रहा
जैसे-जैसे बढ़ती रही धूप।
जैसे-जैसे दिखने लगा
ढाँक-तोप कर रक्खा हुआ।
जैसे-जैसे बढ़ता रहा सन्नाटा।
जैसे-जैसे सुनाई देने लगा
बहुत सारा अनकहा
बहुत सारा
जबरदस्ती ख़ामोश कराया हुआ।
जैसे-जैसे बढ़ती रही बारिश
जैसे-जैसे उतरने लगे रंग
जैसे-जैसे रपटीली होने लगीं सड़कें
जैसे-जैसे टपकने लगीं छतें
हर चोट के साथ
धातु का मामूली टुकड़ा लेता है आकार
कोई बनता है सन्दूक
कोई बनता है ताला
मैं बनता हूँ चाभी
अपने समय के हथौड़े से लड़ते हुए।
अवनीश गौतम
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
12 कविताप्रेमियों का कहना है :
जैसे-जैसे बढ़ती रही बारिश
जैसे-जैसे उतरने लगे रंग
जैसे-जैसे रपटीली होने लगीं सड़कें
जैसे-जैसे टपकने लगीं छत
वाह अवनीश भाई, बेहद सुंदर,
मैं बनता हूँ चाबी........क्या बात है
हर चोट के साथ
धातु का मामूली टुकड़ा लेता है आकार
कोई बनता है सन्दूक
कोई बनता है ताला
मैं बनता हूँ चाभी
अपने समय के हथौड़े से लड़ते हुए।
सशक्त स्वर।
*** राजीव रंजन प्रसाद
हर चोट के साथ
धातु का मामूली टुकड़ा लेता है आकार
कोई बनता है सन्दूक
कोई बनता है ताला
मैं बनता हूँ चाभी
अपने समय के हथौड़े से लड़ते हुए।
एक बेहद जोरदार भाव लिए हुए बेहतरीन रचना.
अवनीश जी, आप निसंदेह बधाई के पत्र हैं.
भविष्य में और अधिक उम्मीदों संग-
अलोक सिंह "साहिल "
अवनीश जी,
अच्छी रचना है....एक साथ कई बिम्ब बनाती है....
"कोई बनता है सन्दूक
कोई बनता है ताला
मैं बनता हूँ चाभी
अपने समय के हथौड़े से लड़ते हुए।"
ये तो विशेष पसंद आयीं....
निखिल आनंद गिरि
जैसे-जैसे बढ़ती रही बारिश
जैसे-जैसे उतरने लगे रंग
जैसे-जैसे रपटीली होने लगीं सड़कें
जैसे-जैसे टपकने लगीं छतें
aacha likha hai....best wishes
जैसे-जैसे बढ़ता रहा सन्नाटा।
जैसे-जैसे सुनाई देने लगा
बहुत सारा अनकहा
बहुत सारा
जबरदस्ती ख़ामोश कराया हुआ।
अच्छा लगा इन पंक्तियों को बार बार पढ़ना !!
बिल्कुल अलग सी प्रस्तुती आकर्षित करती है।
अवनीश जी !
मैं बनता हूँ चाभी
अपने समय के हथौड़े से लड़ते हुए।
सुंदर........
अवनीश जी आपने एक उमर का सफर लगता है कुछ पदों में तय करने की सफल कोशिश कर दी है-बहुत साफ सुधरी ,धुली धुली सी कविता है.
सीधे सादे शब्दों में आपने बहुत कुछ कह दिया है-और अंत में अपने व्यक्तितव और अपने संघर्ष की झलक दिखला दी ये कहते हुए
कि--' मैं बनता हूँ चाभी
अपने समय के हथौड़े से लड़ते हुए।'
एक बात कहना और चाह रही हूँ-आपने शीर्षक बिल्कुल सही दिया है--कई बार पढी आप की यह कविता--एक लम्बी कहानी सी लगने लगी है यह!
इतनी सुलझी कविता है जो सीधे अपना अर्थ बता रही है-
बहुत बहुत बधाई !
--- अल्पना वर्मा
अवनीश गौतम जी
मुझे आपकी कविता पसंद आई क्यों की
१) आपने एक कल्पना के माध्यम से अनकहे ही बहुत अच्छा सन्देश दे दिया है..
२) कविता मै लय है और शब्दों को अछे से चुना है
जो बात मै कहना चाहूँगा
१) मुझे कविता मै प्रसंग बहुत देर से समझ आया है..हलाकि अतः सभी पाठको तक आपकी बात देर से पहुचेगी ..अच्छा होगा की आप प्रसंग जरूर दे... ताकि कविता पड़ने से पहले मन मै रहे की आप इस विषय पर कहना चाहते है .. और हमे जल्दी समझ आएगा...
अतः मुझे अंत की ही पंक्तिया समझ आई
"हर चोट के साथ
धातु का मामूली टुकड़ा लेता है आकार
कोई बनता है सन्दूक
कोई बनता है ताला
मैं बनता हूँ चाभी
अपने समय के हथौड़े से लड़ते हुए"
बधाई हो
शैलेश
जिस मौलिकता की बात आप करते रहते हैं, आज वो यहाँ इस कविता में परिलक्षित हो रही है। मैं बहुत प्रभावित हुआ।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)