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Friday, December 07, 2007

उत्तर-कथा


भोलापन जाता रहा
जैसे-जैसे बढ़ती रही धूप।
जैसे-जैसे दिखने लगा
ढाँक-तोप कर रक्खा हुआ।

जैसे-जैसे बढ़ता रहा सन्नाटा।
जैसे-जैसे सुनाई देने लगा
बहुत सारा अनकहा
बहुत सारा
जबरदस्ती ख़ामोश कराया हुआ।

जैसे-जैसे बढ़ती रही बारिश
जैसे-जैसे उतरने लगे रंग
जैसे-जैसे रपटीली होने लगीं सड़कें
जैसे-जैसे टपकने लगीं छतें

हर चोट के साथ
धातु का मामूली टुकड़ा लेता है आकार
कोई बनता है सन्दूक
कोई बनता है ताला
मैं बनता हूँ चाभी
अपने समय के हथौड़े से लड़ते हुए।

अवनीश गौतम

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12 कविताप्रेमियों का कहना है :

Sajeev का कहना है कि -

जैसे-जैसे बढ़ती रही बारिश
जैसे-जैसे उतरने लगे रंग
जैसे-जैसे रपटीली होने लगीं सड़कें
जैसे-जैसे टपकने लगीं छत
वाह अवनीश भाई, बेहद सुंदर,
मैं बनता हूँ चाबी........क्या बात है

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

हर चोट के साथ
धातु का मामूली टुकड़ा लेता है आकार
कोई बनता है सन्दूक
कोई बनता है ताला
मैं बनता हूँ चाभी
अपने समय के हथौड़े से लड़ते हुए।

सशक्त स्वर।

*** राजीव रंजन प्रसाद

Anonymous का कहना है कि -

हर चोट के साथ
धातु का मामूली टुकड़ा लेता है आकार
कोई बनता है सन्दूक
कोई बनता है ताला
मैं बनता हूँ चाभी
अपने समय के हथौड़े से लड़ते हुए।
एक बेहद जोरदार भाव लिए हुए बेहतरीन रचना.
अवनीश जी, आप निसंदेह बधाई के पत्र हैं.
भविष्य में और अधिक उम्मीदों संग-
अलोक सिंह "साहिल "

Nikhil का कहना है कि -

अवनीश जी,
अच्छी रचना है....एक साथ कई बिम्ब बनाती है....
"कोई बनता है सन्दूक
कोई बनता है ताला
मैं बनता हूँ चाभी
अपने समय के हथौड़े से लड़ते हुए।"
ये तो विशेष पसंद आयीं....

निखिल आनंद गिरि

Anupama का कहना है कि -

जैसे-जैसे बढ़ती रही बारिश
जैसे-जैसे उतरने लगे रंग
जैसे-जैसे रपटीली होने लगीं सड़कें
जैसे-जैसे टपकने लगीं छतें

aacha likha hai....best wishes

रंजू भाटिया का कहना है कि -

जैसे-जैसे बढ़ता रहा सन्नाटा।
जैसे-जैसे सुनाई देने लगा
बहुत सारा अनकहा
बहुत सारा
जबरदस्ती ख़ामोश कराया हुआ।

अच्छा लगा इन पंक्तियों को बार बार पढ़ना !!

anuradha srivastav का कहना है कि -

बिल्कुल अलग सी प्रस्तुती आकर्षित करती है।

Unknown का कहना है कि -

अवनीश जी !

मैं बनता हूँ चाभी
अपने समय के हथौड़े से लड़ते हुए।
सुंदर........

Alpana Verma का कहना है कि -
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Alpana Verma का कहना है कि -

अवनीश जी आपने एक उमर का सफर लगता है कुछ पदों में तय करने की सफल कोशिश कर दी है-बहुत साफ सुधरी ,धुली धुली सी कविता है.
सीधे सादे शब्दों में आपने बहुत कुछ कह दिया है-और अंत में अपने व्यक्तितव और अपने संघर्ष की झलक दिखला दी ये कहते हुए
कि--' मैं बनता हूँ चाभी
अपने समय के हथौड़े से लड़ते हुए।'
एक बात कहना और चाह रही हूँ-आपने शीर्षक बिल्कुल सही दिया है--कई बार पढी आप की यह कविता--एक लम्बी कहानी सी लगने लगी है यह!
इतनी सुलझी कविता है जो सीधे अपना अर्थ बता रही है-
बहुत बहुत बधाई !
--- अल्पना वर्मा

Anonymous का कहना है कि -

अवनीश गौतम जी
मुझे आपकी कविता पसंद आई क्यों की
१) आपने एक कल्पना के माध्यम से अनकहे ही बहुत अच्छा सन्देश दे दिया है..
२) कविता मै लय है और शब्दों को अछे से चुना है
जो बात मै कहना चाहूँगा
१) मुझे कविता मै प्रसंग बहुत देर से समझ आया है..हलाकि अतः सभी पाठको तक आपकी बात देर से पहुचेगी ..अच्छा होगा की आप प्रसंग जरूर दे... ताकि कविता पड़ने से पहले मन मै रहे की आप इस विषय पर कहना चाहते है .. और हमे जल्दी समझ आएगा...

अतः मुझे अंत की ही पंक्तिया समझ आई
"हर चोट के साथ
धातु का मामूली टुकड़ा लेता है आकार
कोई बनता है सन्दूक
कोई बनता है ताला
मैं बनता हूँ चाभी
अपने समय के हथौड़े से लड़ते हुए"

बधाई हो
शैलेश

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

जिस मौलिकता की बात आप करते रहते हैं, आज वो यहाँ इस कविता में परिलक्षित हो रही है। मैं बहुत प्रभावित हुआ।

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