कवयित्री अमिता मिश्र 'नीर' हिन्द-युग्म की यूनिकवि प्रतियोगिता में इसके शुरूआती अंकों से भाग ले रही हैं। बीच में कई महीनों तक इनकी कविताएँ हिन्द-युग्म को नहीं मिलीं, लेकिन पिछल महीने इनकी कविता हमें मिली और हमें खुशी है कि उनकी यह कविता हम आपसे बाँट पा रहे हैं। इनकी कविता 'चुप' ने तेरहवाँ स्थान प्राप्त किया।
अमिता जी की एक कविता 'दीप जले अब कैसे' यूनिकवि प्रतियोगिता के मई अंक में टॉप १० में थी।
पुरस्कृत कविता- चुप
दुख बिसूर कर दो डग चलकर
सपने मेरे थक जाते हैं
पलकों को यूँ छल जाते हैं
फिर अनन्त में खो जाते हैं
इन मेरे सपनों को हाँ
लौटा कर लायेगा कोई
दीपक सा जल उठता है
धीरे से खिल उठता है
सूने स्मृति के विहार में
पलकों को छल उठता है
चन्द्रलोक की शीतल किरणों में
ये कैसा जल उठता है
सजल सजल सा प्यार किसी का
दीपक सा खिल खिल उठता है
अँधियारे मे प्यार किसी का
इन अनन्त के पथिकों को हाँ !
फिर बहलायेगा कोई
दिन धँसता है निशि हँसती है
दो क्षण बाद रजनि के उर में
दिनकर की संध्या छुपती है
गंगा गहरी बहरी बहरी सी
चुप बेसुध हो सो जाती है
अर्धरात्रि में भूली भूली
लहरें कहतीं हैं कर कल कल
अपने घर चल अपने घर चल
रूठे पंछी भूले पंथी अब तो घर चल
अपने घर चल अपने घर चल
जजों की दृष्टि-
प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ७, ६
औसत अंक- ६॰५
स्थान- दसवाँ
द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ७॰५, ७॰२, ६॰८, ६॰५ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ७
स्थान- पाँचवाँ
तृतीय चरण के ज़ज़ की टिप्पणी- कविता में हर स्तर पर नयेपन का अभाव है
मौलिकता: ४/० कथ्य: ३/१॰५ शिल्प: ३/२
कुल- ३॰५
स्थान- तेरहवाँ
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
14 कविताप्रेमियों का कहना है :
दिन धँसता है निशि हँसती है
दो क्षण बाद रजनि के उर में
दिनकर की संध्या छुपती है
--- अच्छा प्रयास है.
बढाए.
अवनीश तिवारी
अर्धरात्रि में भूली भूली
लहरें कहतीं हैं कर कल कल
अपने घर चल अपने घर चल
रूठे पंछी भूले पंथी अब तो घर चल
अपने घर चल अपने घर चल
सुंदर लगी आपकी यह रचना अमिता ...शब्द और भाव दोनों अच्छे लगे इस में !!
प्रिय अमिता
बहुत सुंदर लिखा है. विशेष रूप से -सजल सजल सा प्यार किसी का
दीपक सा खिल खिल उठता है
अँधियारे मे प्यार किसी का
इन अनन्त के पथिकों को हाँ !
फिर बहलायेगा कोई
बहुत बहुत बधाई तथा आशीर्वाद
अमिता जी
आपकी कविताये काफी मर्मस्पर्शी होती है. मैंने पहले भी आपकी एक कविता पढी थी काफी सुंदर रचना थी कृपया लिखते रहिये... मुझे आपकी अगली रचना का बेसब्री से इन्तजार होगा
ज्योति
अमिता जी
आपकी कविता इतनी सुंदर है की दिल को सीधे छूती है मैंने पहली बार हिन्दयुग्म पे कविता पढी पर आपकी रचना ने मुझे काफी आकर्षित किया आप काफी अच्छा लिखती है मेरी शुभकामनाएं ......
प्रीति प्रसाद
दिन धँसता है निशि हँसती है
दो क्षण बाद रजनि के उर में
दिनकर की संध्या छुपती है
गंगा गहरी बहरी बहरी सी
चुप बेसुध हो सो जाती है
अर्धरात्रि में भूली भूली
लहरें कहतीं हैं कर कल कल
अपने घर चल अपने घर चल
रूठे पंछी भूले पंथी अब तो घर चल
अपने घर चल अपने घर चल
क्या खूब लिखी, अमिता जी, चुप का ऐसा भाव बेहद ही सराहनीय है.
बधाइयों समेत
आलोक सिंह "साहिल"
दिन धँसता है निशि हँसती है
दो क्षण बाद रजनि के उर में
दिनकर की संध्या छुपती है
गंगा गहरी बहरी बहरी सी
चुप बेसुध हो सो जाती है
बहुत अच्छे
'सपने मेरे थक जाते हैं
पलकों को यूँ छल जाते हैं
फिर अनन्त में खो जाते हैं'
पंक्तियाँ पसंद आयीं .
और
'दिन धँसता है निशि हँसती है
दो क्षण बाद रजनि के उर में
दिनकर की संध्या छुपती है'
सुंदर अभिव्यक्ति है अमिता जी आप की कविता में.
मगर कविता में पहला अंश एक अलग कविता लगी,
दूसरा व तीसरा एक दूसरे के पूरक लगे,
वहीं चौथा अंश अपने आप में एक अलग कविता मालूम देती है.
दुख बिसूर कर दो डग चलकर
सपने मेरे थक जाते हैं
पलकों को यूँ छल जाते हैं
फिर अनन्त में खो जाते हैं
इन मेरे सपनों को हाँ
लौटा कर लायेगा कोई
"उम्मीद से भरी ये कविता बहुत अच्छी लगी ,
congrates n regards
अमिता !
सोचता हूँ क्या तटस्थ भाव से तुम्हारी कविता पर कोई टिप्पणी कर पाऊंगा ? 'नीर' हाँ यही नाम दिया था मैंने तुम्हारी कविता पर, जब तुम पहली बार मेरे पास अपनी नोट बुक पर लिखी कविता लेकर आए थे. बहुत रोया करते थे तुम बचपन में .... आज तुम्हारी रचनाओं में बहता नीर मेरी आंखों में भर जाया करता है, जब भी तुम्हें पढ़ा करता हूँ. हुम्म... अच्छा प्रयास पर अभी शायद तुम अपने दर्द को पूरी तरह से अभिव्यक्ति नहीं दे पा रहे हो. पता नहीं क्या कहूं .... तुम्हारी पीडा समाप्त हो जाए या फ़िर काव्य ............... परन्तु समाज में अभी भी नारी पीड़ा समाप्त हो सकेगी इतनी आसानी से ............ कोई नहीं जानता पर हमें अपना प्रयास तो जारी रखना ही होगा ...
अमिता जी,
बहुत प्रभावित करने वाली रचना है विषेश कर रचना का प्रवाह और आपका शब्द चयन।
बधाई स्वीकारें।
*** राजीव रंजन प्रसाद
अमिता अमित अथाह लय कविता कवित प्रावाह
ओष्ठ पलक सासें अचल उरहिं पुकारत वाह..
लहरें कहतीं हैं कर कल कल
अपने घर चल अपने घर चल
रूठे पंछी भूले पंथी अब तो घर चल
अपने घर चल अपने घर चल
अमिता जी, बहुत अच्छी कविता है। बधाई।
सूने स्मृति- सूनी स्मृति
कविता अंत तक आते-आते भटक गई है। ऐसी कविताएँ जो अपने प्रारम्भ की पैठ पाठकों में बिना किये ही उपसंहार की जल्दी में रहती हैं, वो दीर्घजीवी नहीं होतीं। खरी, तपी, मँझी हुईं कविताएँ लिखने का अभ्यास करें।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)