स्वाद चखा कल आँसू का जब बरसों बाद।
आया समन्दर का खारापन मुझको याद।।
दिल का दर्द पिघलकर बाहर आया था;
बहने दिया मैंने भी खुलकर बरसों बाद।
बहुत ज़रूरी है जीवन में रोना भी;
सीखा यारों मैंने जाकर ये बरसों बाद।
अश्कों ने धो डाला दिल के घावों को;
आज मिली कुछ राहत मुझको बरसों बाद।
वैसे तो रोना फितरत है हसीनों की;
सीख लो उनसे ये गर रहना है आबाद।
पता नहीं अब कब रोऊँगा अगली बार;
शायद बहेगा मन का नमक फिर बरसों बाद।
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
पंकज जी,
आप की रचना अच्छी लगी,
कवि के अंतर्मन को आपने खूब सिसकने दिया.
शुरू में गहरे अर्थ लिए थे लेकिन आख़िर तक आते -आते आप सतही हो गए.
इन पंक्तियों में आप ने तो व्यंग्य भी कर दिया-'
''वैसे तो रोना फितरत है हसीनों की;
सीख लो उनसे ये गर रहना है आबाद।''
खूब कहा!
-धन्यवाद.
"स्वाद चखा कल आँसू का जब बरसों बाद।
आया समन्दर का खारापन मुझको याद।।
दिल का दर्द पिघलकर बाहर आया था;
बहने दिया मैंने भी खुलकर बरसों बाद।"
अच्छी रचना के लिए बधाई पंकज जी...
वैसे आजकल हालता बस में ना होने से कोई भी रो देता है चाहे वो लडका हो या फिर लडकी....
भले ही कुछ देर के लिए ही सही लेकिन रोने के बाद मन शांत हो जाता है...हलका हो जाता है....
कुछ चिल्ला कर...तो कुछ बौखला कर...तो कुछ सबके सामने गुस्सा जाहिर कर अपने अन्दर की
तकलीफ को बाहर निकाल देते हैँ..
उसी तरह कभी कभार अकेले में रोना लेना भी अच्छा ही होता है ....
पंकज जी, आपने तो रोने का इतना बखान कर डाला की अब बरबस रोने का जी करने लगा.
भावों पेर बेहतरीन नियंत्रण.सच कहूँ मेरे बगल में मेरे एक कवि मित्र बैठे हैं,उन्होंने खुले कंठ से आपकी कविता के लिए आपको सह्दुवाद दिया है,साथ में मेरी भी है,
उम्मीद करता हूँ आप हम दोनों की शुभकामनाओं को स्वीकार करेंगे.
अलोक सिंह "साहिल"
दिल का दर्द पिघलकर बाहर आया था;
बहने दिया मैंने भी खुलकर बरसों बाद।
वाह क्या बात है पंकज जी ....
लगता है एक ही शेर को कई बार कहा गया है. सतर्क रहिये.
रचना अच्छी है.. मगर 'बारसों बाद' की पुनरावृति थोडा शिल्प बिगाड़ रही है..
स्वाद चखा कल आँसू का जब बरसों बाद।
आया समन्दर का खारापन मुझको याद।।
दिल का दर्द पिघलकर बाहर आया था;
बहने दिया मैंने भी खुलकर बरसों बाद।"
अंतर्मन की स्थिती व्यक्त की है कवि ने..
बधाई
अश्कों ने धो डाला दिल के घावों को;
आज मिली कुछ राहत मुझको बरसों बाद।
लगता है बहुत रोयें है......
कोई खास दर्द है क्या?
पंकज जी
अच्छी गज़ल लिखी है -
दिल का दर्द पिघलकर बाहर आया था;
बहने दिया मैंने भी खुलकर बरसों बाद।
पंकज जी,
मुझे भी ऐसा आभास हो रहा है कि 'बरसो बाद' का बारम्बार प्रयोग पूरी ग़ज़लनुमा कविता का मज़ा किरकिरा कर रहा है। आपको याद होगा मैंने एक कविता लिखी थी 'उनका मज़ा', उसमें 'उन्हें मज़ा आता है' बारम्बार आ रहा था और वो उस कविता को हल्की बना रहा था। मेरे हिसाब से इस कविता के साथ भी यही परेशानी आ गई है।
ज़रा गौर कीजिएगा।
१) आपने अश्को का नया रूप दिखानेे की कोशिश की है जो दिल के घाव धो डालता है
२) बहुत अच्छे रूपक दिए है जैसे " मन का नमक"
३) आपने विज्ञानिक सत्य को अब कविता मै भी ढल दिया है, की रोने के क्या फायदे होते है "वैज्ञानिक तोर पर ये पता चला है की रोने से हार्ट अटैक कम आते है.. क्यों की औरते मर्दो से ज्यादा रोटी है अतः उनको कम हार्ट अटैक आते है "
४) और कुछ टिपण्णी या पूरक औरतों को भी दिया है की वो अपने रोने से कई बार अपनी ख़ुशी हासिल करती है..(emotionally blackmail ) मैंने ऐसा समझा उस पंक्ति को ( वैसे तो रोना फितरत है हसीनों की;
सीख लो उनसे ये गर रहना है आबाद।)
सादर
शैलेश
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