काजल की कोठरी में सवेरे ही कब हुए?
तुम एक दिया ले कर
उम्मीद के सूरज ही से आँख मिलाती थी
तोता जिसे कि भैरवी कंठस्थ रही है
ले कर तुम्हारा नाम पेटी बजा रहा था
लगता तो था कि लंगड़ी सुबह
घिसट-घिसट के आयेगी
तसलीमा लायेगी
लेकिन यूं कटोरा भर सिन्दूर पी कर
बहुत सी आँखें फोड़ दी तुमने
"द्विखंडिता” के मुखपृष्ठ पर
लिख कर लाल सलाम
तूफान के पहले सा चुप कोहराम
तुम्हारी आँखों में आखें डाल मुस्कुराता है
कि सुविधाभोगी लेखकों की जमात में स्वागत है
सच के कालीन पर चल कर
बिकाऊ लिखने को बहुत कुछ है।
कोलकाता को
वैसे भी शरणार्थी स्वागत की आदत है
तुमने तरीका सही चुना बाँग्लादेश-निष्कासिता
मशाल से अपना घर जलाया
मशाल ले कर पड़ोस फूँका
फिर जलते हाथ पानी में डोब लिये।
गोबर हो गयी हैं किताबें तुम्हारी
पुस्तकालय लीपने के काम आयेंगी
भैंस के आगे बीन बजायेंगी
आओ काजू-कुरमुरे खाओ
सेमीनारों में मुस्काओ
अब तो फ़तवा देने वालों ने भी
घोषणा कर दी है कि तुम “आज़ाद हो”
जहाँ चाहे रह सकती हो उस देश में
जो कुछ के बाप का है
कुछ की जेब में है
और कुछ उनका है
जिनके मुखौटे
तुम्हारी राह में फूल बिछाते
मुस्कुरा रहे हैं - “अतिथि देवो भवः”
*** राजीव रंजन प्रसाद
2.12.2007
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17 कविताप्रेमियों का कहना है :
इसप्रकार के विवादित बात पर अपना विचार व्यक्त करने के लिए और बाटने के लिए धन्यवाद.
अवनीश तिवारी
राजीव जी आपक कलम इस तरह के विषय पर बाखूबी चलती है और बहुत प्रभावशाली ढंग से अपनी बात कह जाती है
यह सब जो रहा है यह शर्मनाक ही है ..ज़ंग जारी रहेगी इस कलम की और सत्ता की लेकिन कब तक ? यह देखना है अभी हमे अभी ..
वाह क्या जबरदस्त प्रहार है, भाषा और शैली दोनों ही उत्कृष्ट......लगता है हमारे बुद्धिजीवी बर्ग की मानसिकता ही दिखान्दित हो गई है
राजीव जी स्पष्ट शब्दों में कहूं तो तस्लीमा के इस पहलू को मैंने चिंतन ही नहीं किया था, वाह आपकी भावनाओं को दाद देते हैं हम, मानव मन में विचारों का कोलाहल मचा दे ऐसे शब्दों के तो आप वाहक हैं । सटीक चित्रण ।
पुन: आभार ।
घर पर ब्लाग मित्र का फोन और गांव की कुंठा
गोबर हो गयी हैं किताबें तुम्हारी
पुस्तकालय लीपने के काम आयेंगी
भैंस के आगे बीन बजायेंगी
आओ काजू-कुरमुरे खाओ
सेमीनारों में मुस्काओ
जहाँ चाहे रह सकती हो उस देश में
जो कुछ के बाप का है
कुछ की जेब में है
और कुछ उनका है
जिनके मुखौटे
तुम्हारी राह में फूल बिछाते
मुस्कुरा रहे हैं - “अतिथि देवो भव”
दर्द को महसूस कर पा रहा हूँ, विवश और व्यथित होकर...
राजीव जी आपकी ये रचना उत्कृष्ट रचना है। भाषा सटीक और सधी हुई।
काजल की कोठरी में सवेरे ही कब हुए?
तुम एक दिया ले कर
उम्मीद के सूरज ही से आँख मिलाती थी
तूफान के पहले सा चुप कोहराम
तुम्हारी आँखों में आखें डाल मुस्कुराता है
कि सुविधाभोगी लेखकों की जमात में स्वागत है
सच के कालीन पर चल कर
बिकाऊ लिखने को बहुत कुछ है।
मशाल से अपना घर जलाया
मशाल ले कर पडोस फूँका
फिर जलते हाँथ पानी में डोब लिये।
हर पंक्ति अपने में मुकम्मल
गोबर हो गयी हैं किताबें तुम्हारी
पुस्तकालय लीपने के काम आयेंगी
भैंस के आगे बीन बजायेंगी
आओ काजू-कुरमुरे खाओ
सेमीनारों में मुस्काओ
वाह वाह राजीव जी. इस बेबाक लेखन की प्रशंशा के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं. बहुत गहरी चोट की है आप ने उन सब पर जो सुविधा भोगी हैं.
अपना एक शेर आप की इस रचना के नाम :
नीलाम गर तुम्हारा इमान हुआ तो
हैरत नहीं जो तेरा सम्मान हुआ तो
बहुत बहुत बधाई. यूँ ही बे खौफ लिखते रहें.
नीरज
कविता में एक कटु सत्य से परिचय सफलता से कराया गया है. लेकिन वर्तमान में इस सच को समझना --आँखें खोल कर देखना भी हिम्मत ही है--- धन्यवाद
बहुत जबरदस्त रचना है राजीव जी!
मेरी तो कलम मौन हो गई
किसी तात्कालिक घटना पर कुछ रचना आसान नहीं होता लेकिन भावुक मन और सही सोच रचाने वाले रचनाकार इसे भी सच कर दिखाते हैं. राजीव जी ने कलम की नोक से जो नश्तर चुभोये हैं, वे पाठक तक अपनी बात पुरी शिद्दत से पहुंचाते हैं.
बधाई
राजीव जी! समझ नहीं पा रहा हूँ कि आखिर क्या कहूँ?
लेकिन यूं कटोरा भर सिन्दूर पी कर
बहुत सी आँखें फोड दीं तुमने
शायद हम सब की सोच को ज़ुबान दे दी है आपने. आभार!
मैं समझ सकता हूँ आपकी व्यथा। लेकिन आपकी कलम यह संकेत दे रही है कि आप उन कालीनों पर नहीं चलेंगे।
राजीव जी
देर से टिप्पणी के लिए क्षमा करें । दरअसल मुझे इसके बारे में बहुत जानकारी नहीं थी । कल पूरा मसला समझा । अभिव्यक्ति बहुत सुन्दर है ।
लेकिन यूं कटोरा भर सिन्दूर पी कर
बहुत सी आँखें फोड़ दी तुमने
"द्विखंडिता” के मुखपृष्ठ पर
लिख कर लाल सलाम
तूफान के पहले सा चुप कोहराम
तुम्हारी आँखों में आखें डाल मुस्कुराता है
कि सुविधाभोगी लेखकों की जमात में स्वागत है
सच के कालीन पर चल कर
बिकाऊ लिखने को बहुत कुछ है।
मुझे लगता है कि हर व्यक्ति के निर्णय के पीछे कुछ कारण होते हैं । क्या हम उसके प्रति इतना कठोर लिखकर अनाधिकार चेष्टा तो नहीं कर रहे ?
Only one word....."Mesmerizing"....
राजीव जी!
वैसे तो आपकी पूरी कविता ही सशक्त है।लेकिन जिन लाईनों का मैं मुत्तासिर हुआ-
सच के कालीन पर चल कर
बिकाऊ लिखने को बहुत कुछ है।
गोबर हो गयी हैं किताबें तुम्हारी
पुस्तकालय लीपने के काम आयेंगी
बहुत ही सुंदर,जलती,जलाती; रचना
राजीव जी, क्या कहूँ?
आप रोज रोज इतनी अच्छी कवितायें लिखेंगे तो हम कब तक अपने घिसे पिटे शब्दों से आपकी ओजपूर्ण कविता की तारीफ़ करते रहेंगे.
बहुत खूब,आपकी पिचली कविता पढने के बाद आपसे ढेरों अपेक्षाएं पाल रखी थी,हर्ष की बात है अपने निराश नहीं kiya.
अलोक सिंह "साहिल"
कि सुविधाभोगी लेखकों की जमात में स्वागत है
सच के कालीन पर चल कर
बिकाऊ लिखने को बहुत कुछ है।
मशाल से अपना घर जलाया
मशाल ले कर पड़ोस फूँका
फिर जलते हाथ पानी में डोब लिये।
जो कुछ के बाप का है
कुछ की जेब में है
और कुछ उनका है
जिनके मुखौटे
तुम्हारी राह में फूल बिछाते
मुस्कुरा रहे हैं - “अतिथि देवो भवः”
राजीव जी,
इस रचना को पढकर मैं फिर से मूक हूँ। आपके अंदर का आक्रोश साफ झलक रहा है। ऎसे कम हीं कवि होते हैं, जो अपने आक्रोश को शब्द दे पाते हैं। आप सर्वथा से हीं इसमें सफल रहे हैं।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
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