इस कविता के पीछे एक कहानी है। एक युवक सर्दी की एक रात में सिगरेट के धुँओं में खुद को खो रहा है, ताकि रिश्तों से मिले दर्द को भुला सके। कमरे के अंदर उस युवक का दिल तड़पकर शब्दों को बोल दे रहा है और वहीं बाहर एक बंजारा उसके बोल को अपना दिल.....और दिल के भाव .......
(ग्रामीण हिंदी के शब्द बंजारे के हैं और उर्दू के लफ़्ज उस युवक के)
मन बासी-बासी अब होए चला,
कतरों को है खुद पर ढोए चला,
धुक-धुक कर सब अरमान जले,
दे आग, आँख मेरा सोए चला।
मेरे बंजर सफ़ों में या रब! कुछ सज़दे शोक जुटाते हैं,
छाले के छल्लों में खुद को, हर्फों-सा थोक लुटाते हैं।
कुछ छुपते हैं, कुछ रिसते हैं, जो बुझे-अनबुझे रिश्ते हैं,
कुछ कुहरे में फँस जाते हैं, सीसे पर पल-पल पिसते हैं।
मन स्याही, स्याही की सिकुड़न से,
शब में है सुबह को पिरोए चला,
मन बासी-बासी अब होए चला,
कतरों को है खुद पर ढोए चला।
उस अंबर के अंतस में अब ,बस धुंध हीं धुंध क्यों दीखती है,
मत रोक मुझे, जल जाने दे, मुझे विरह-पत्र वह लिखती है।
'चरमर' मरती धड़कन के यहाँ, कुछ पुर्जे शोर मचाते हैं,
कुरबत में तड़पते तकिये पर,हम कई आदमखोर सजाते हैं।
मन फँसा, फसाने के अंदर,
यादों की फसलें बोए चला,
मन बासी-बासी अब होए चला,
कतरों को है खुद पर ढोए चला।
एक कश, दो कश , दो गज़ और फिर दो जहां मेरे, तेरे जानिब हैं,
एक इस करवट, एक उस करवट , मझधार में दोनो साहिल हैं।
खाली नज़रें, खाली है समां , ठिठुरी-ठिठुरी हर ख्वाहिश है,
सौ मील हैं लम्बे अंधियारे , सौ मील धंसी हर जुंबिश है।
मन गला है गीली मिट्टी-सा,
हर गली में धीरज खोए चला,
मन बासी-बासी अब होए चला,
कतरों में है खुद को ढोए चला।
शब्दार्थ-
*सफ़ा- पृष्ठ
* हर्फ- अक्षर
*कुरबत - नजदीक
*साहिल - किनारा
* जुंबिश - हरकत , गति
-विश्व दीपक 'तन्हा'
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत ही सुंदर प्रयोग दीपक ..मुझे बहुत बहुत पसंद आया .दोनों ने गजब कर दिया है ..
कुछ छुपते हैं, कुछ रीसते हैं, जो बुझे-अनबुझे रिश्ते हैं,
कुछ कुहरे में फँस जाते हैं, सीसे पर पल-पल पीसते हैं।
कमाल का दर्द उभर के आया है इन में ...
मन स्याही, स्याही के सिकुड़न से,
शब में है सुबह को पिरोए चला,
सुंदर.......लाजवाब कर दिया आपकी इस रचना के मुझे बधाई !!
गीत के भाव बहुत गहरे हैं तन्हा भाई और नई तरह का प्रयोग भी है। सुनने में और भी अच्छा लगेगा।
बधाई।
लेकिन शिल्प और व्याकरण को लेकर कई शिकायतें हैं।
'स्याही के सिकुड़न' में स्याही की सिकुड़न आएगा।
बस धुंध हीं धुंध क्यों दीखता है,
धुंध तो स्त्रीलिंग है, 'दिखती है' आएगा और इससे अगली लाइन के साथ तुक बिगड़ जाएगा।
जुंबिश भी मेरे ख़याल से स्त्रीलिंग है।
आशा है अगली बार ऐसे ही खूबसूरत भावों के साथ बिना एक भी कमी के रचना पढ़ने को मिलेगी।
एक अच्छी कविता !!
पुनरुक्ति अलंकार का प्रयोग आकर्षक है. यथा- बासी-बासी, धुक-धुक, ठिठुरी-ठिठुरी.
हाँ, लिंग-संबंधी त्रुटियों पर ध्यान अपेक्षित है.
2345बड़ा गज़ब का है.
अच्छा लगा.
अवनीश तिवारी
बड़ा गज़ब का है.
अच्छा लगा.
अवनीश तिवारी
हाय क्या कहूँ, आशिक कर दिया आपने
मेरे बंजर सफ़ों में या रब! कुछ सज़दे शोक जुटाते हैं,
छाले के छल्लों में खुद को, हर्फों-सा थोक लुटाते हैं।
और ये अंदाजे बयां
एक कश, दो कश , दो गज़ और फिर दो जहां मेरे, तेरे जानिब हैं,
एक इस करवट, एक उस करवट , मझधार में दोनो साहिल हैं।
खाली नज़रें, खाली है समां , ठिठुरी-ठिठुरी हर ख्वाहिश है,
सौ मील हैं लम्बे अंधियारे , सौ मील धंसी हर जुंबिश है।
उस ग्रामीण के स्वर कानो में गूंजते रह जाते हैं -
मन गला है गीली मिट्टी-सा,
हर गली में धीरज खोए चला,
मन बासी-बासी अब होए चला,
कतरों में है खुद को ढोए चला।
वाह vd भाई तारीफ जितनी भी की जाए कम है
तनहा जी
बहुत ही सुन्दर भाव-प्रधान गीत लिखा है -
मन गला है गीली मिट्टी-सा,
हर गली में धीरज खोए चला,
मन बासी-बासी अब होए चला,
कतरों में है खुद को ढोए चला।
इतनी सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए बधाई
फिलम दिखा रहे है तन्हा जी...बढिया है.
प्रसंशनीय प्रयोग है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
तन्हा जी,
निश्चय ही एक सुन्दर रचना बन पडी है.. गा कर सुनने में और मजा आयेगा..दर्द के अहसास के साथ... गौरव सौलंकी जी की बात से मैं भी सहमत हूं.
मोहिन्दर जी,
गौरव जी की टिप्पणी के बाद मैने अपनी कविता में वांछित परिवर्तन कर दिये हैं। अब यदि अभी भी इसमें कुछ खामियाँ हैं तो कृप्या मुझे इससे अवगत कराएँ।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
sahii likhe ho bhaai ji :)
waise 1 baat ki taareef karenge.......ye naya prayog jo kiye ho......
2 samaanaantar chalti baatein .......aur unki samaanantar baato me samanta :)
kaafi achchhi lagti hia padhne me.....
waise dekh lijiye .....exam ke beech me bhi aapki kavitaayein padhne ka samay nikaala humne.....aur khushi hui 1 achchhi rachnaa...n apaka naya prayog dekh kar!!!!!
good
keep the good work going!!! :)
U rockkk!!!!!
तन्हा जी, अच्छा लगा आपका प्रयोग।
मन बासी-बासी अब होए चला,
कतरों को है खुद पर ढोए चला,
धुक-धुक कर सब अरमान जले,
दे आग, आँख मेरा सोए चला।
विश्च दीपक जी,
इस प्रयोग कि ज़ारी रखा जाय। जब हम इस तरह के प्रयोग पर ही एक ऑडियो अल्बम करेंगे तो मज़ा आ जायेगा।
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