बहुत समय के बाद बस्तर (अपने गृह नगर) आया हूँ अपने पुराने संग्रह से कुछ ऐसी रचनायें प्राप्त हुईं जिन्हें मैं स्वयं भूल चुका था आज पाठकों के समक्ष ऐसी ही एक रचना प्रस्तुत कर रहा हूँ, यह रचना अप्रकाशित है किंतु १४.०९.१९९१ को इस कविता के वाचन पर मुझे क्षेत्र का प्रतिष्ठित स्व. बाल गंगाधर सावंत पुरस्कार प्राप्त हुआ था अपनी ही भूली-बिसरी यह रचना हिन्द युग्म के मंच पर हर्ष के साथ प्रस्तुत कर रहा हूँ:-
पाषाणों के इस जीवन में,
मंद समीरन का क्या मोल
वंशी में रोती सी लहरी
वीणा में कातर सा राग
अभिलाषों की ढली साँझ
अंतस में आशा की आग
जीवन की आँखों में अंबर
उमगों की चोली में दाग
सुमनों का आया पतझर है
काँटों की डाली में डोल
पाषाणों के इस जीवन में,
मंद समीरन का क्या मोल
उस चूल्हे की राख हैं आँखें
खाली बरतन जिसपर चुप है
उसके कदम थके-माँदे से
अंधियारा चेहरे पर घुप है
रोटी चाँद सरीखा सपना
खेल रहा उससे लुकछुप है
आज नियति कल की आशा से
जा ढुकता तम खोली खोल
पाषाणों के इस जीवन में,
मंद समीरन का क्या मोल
मानव की ही इस दुनिया में
मानव मिट्टी का ढेला क्यों?
जीवन बद से बदतर होता
तिस पर लाशों का खेला क्यों?
कुछ आँखों में क्यों दीवाली
अश्कों आहों का मेला क्यों?
अब हो जाओगे रेत सुनो
यह ऊँचे परबत से दो बोल
पाषाणों के इस जीवन में,
मंद समीरन का क्या मोल
*** राजीव रंजन प्रसाद
११.०८.१९९१
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19 कविताप्रेमियों का कहना है :
मानव की ही इस दुनियाँ में मानव मिट्टी का ढेला क्यों?जीवन बद से बदतर होतातिस पर लाशों का खेला क्यों?कुछ आँखों में क्यों दीवालीअश्कों आहों का मेला क्यों?
राजीव जी यह रचना पुरस्कार के ही लायक है बहुत ही सुंदर भाव हैं इसके
मुझे यह पंक्तियाँ बहुत बहुत पसंद आई
शुभकामना के साथ
रंजू
बढिया है!
कई बार पढने के बाद समझ पाया.
गंभीर है.
बधाई
अवनीश तिवारी
गंभीर!!
बहुत खूब!!
घर में रहने का आनंद लें! कहां नेट पर आ ही जा रहे हैं!!
दीपावली की शुभकामनाएं
"उस चूल्हे की राख हैं आँखें,खाली बरतन जिसपर चुप है
उसके कदम थके-माँदे से, अंधियारा चेहरे पर घुप है
रोटी चाँद सरीखा सपना, खेल रहा उससे लुकछुप है "
अनीश जी की ही तरह मुझे भी कविता से चार बार रु-ब-रु होना पड़ा, तब जाकर मुझ बौढ़म को समझ आई ।
मुझे आज भी एक बात समझ नही आती, आप इतने गहन भाव लाते कहां से है ?
तीसरे पैरा मे आपने भारत और इंडिया दोनो को बखूबी समझा है, और यहां आपके विचार जयनारायणजी व्यास की भाषा बोलते प्रतीत होते है ।
"अब हो जाओगे रेत सुनो, यह ऊँचे परबत से दो बोल
पाषाणों के इस जीवन में, मंद समीरन का क्या मोल "
पंक्तियाँ विशेष रुप से पसंद आई,
अपने अनुज की बधाई स्वीकार करें,
आर्यमनु, उदयपुर ।
कई बार पढने के बाद काव्य की आत्मा का अनुभव होता है , निःसंदेह कविता पुरुस्कार के लिये उचित चयन थी और कविता पुरुस्कार से कहीं आगे मानव मन की बात कहती है |
उस चूल्हे की राख हैं आँखें
खाली बरतन जिसपर चुप है
उसके कदम थके-माँदे से
अंधियारा चेहरे पर घुप है
रोटी चाँद सरीखा सपना
खेल रहा उससे लुकछुप है
आज नियति कल की आशा से
जा ढुकता तम खोली खोल
पाषाणों के इस जीवन में,
मंद समीरन का क्या मोल
ये पंक्तिया पाठक को खाली बरतन की खोखली आवाज सुनाती है , इन पंक्तियों को हम तक लाने के लिये साधुवाद
अब हो जाओगे रेत सुनो
यह ऊँचे परबत से दो बोल
पाषाणों के इस जीवन में,
मंद समीरन का क्या मोल
bahut sundar rachna....badhaayii
राजीव जी
बहुत ही सुन्दर और प्रभावी कविता है । एक-एक शब्द दिल को छू लेने वाला है । आपने एक पीड़ा को
वाणी दी है और आप इसमें पूरी तरह सफल हुए हैं ।
मानव की ही इस दुनिया में
मानव मिट्टी का ढेला क्यों?
जीवन बद से बदतर होता
तिस पर लाशों का खेला क्यों?
कुछ आँखों में क्यों दीवाली
अश्कों आहों का मेला क्यों?
अब हो जाओगे रेत सुनो
यह ऊँचे परबत से दो बोल
पाषाणों के इस जीवन में,
मंद समीरन का क्या मोल
ओजस्वी रचना के लिए हार्दिक बधाई ।
no words....its Mesmerizing.....u really deserved the award
बस्तर आपका ग्रह नगर है जानकर प्रसन्नता हुई, आपकी लेखनी का कायल हूँ
आज नियति कल की आशा से
जा ढुकता तम खोली खोल
पाषाणों के इस जीवन में,
मंद समीरन का क्या मोल
मानव की ही इस दुनिया में
मानव मिट्टी का ढेला क्यों?
जीवन बद से बदतर होता
तिस पर लाशों का खेला क्यों?
कुछ आँखों में क्यों दीवाली
अश्कों आहों का मेला क्यों?
अब हो जाओगे रेत सुनो
यह ऊँचे परबत से दो बोल
पाषाणों के इस जीवन में,
मंद समीरन का क्या मोल
हृदयस्पर्शी ............
राजीव जी,
सुन्दर रचना के लिए बधाई।
अब हो जाओगे रेत सुनो
यह ऊँचे परबत से दो बोल
पाषाणों के इस जीवन में,
मंद समीरन का क्या मोल
बहुत पसंद आई।
राजीव जी क्या खून, मन्त्र-मुग्ध हो गया हूँ, आजकल आप की रचनाओं मे भी में श्याद इस तरह की सादगी चाहता हूँ, वाह बहुत ही सुंदर रचना,
पाषाणों के इस जीवन में,
मंद समीरन का क्या मोल
मर्म को भेदती, गहरी उतरती, फ़िर भी शांत गंभीर, बहुत आनंद आया
राजीव जी,
निश्चय ही यह एक पुरस्कार योग्य कविता है..
जीवन के संघर्ष का चित्राकंन करती हुई एक सहज सरल शब्दों की रचना
वंशी में रोती सी लहरी
वीणा में कातर सा राग
अभिलाषों की ढली साँझ
अंतस में आशा की आग
जीवन की आँखों में अंबर
उमगों की चोली में दाग
राजीव जी......
पुरस्कार आपको कहाँ मिला पुरस्कार तो हमने पाया है..
जो इतनी सुन्दर अभिव्यक्ति इतनी सुन्दर सुन्दर कविताये / कथायें / जानकारियां वाला व्यक्तित्व हमारे परिवार में है..
नमन रजीव जी नमन
उस चूल्हे की राख हैं आँखें
खाली बरतन जिसपर चुप है
उसके कदम थके-माँदे से
अंधियारा चेहरे पर घुप है
मानव की ही इस दुनिया में
मानव मिट्टी का ढेला क्यों?
जीवन बद से बदतर होता
तिस पर लाशों का खेला क्यों?
राजीव जी,
देर से टिप्पणी करने के लिए क्षमा चाहता हूँ।वाकई यह कविता पुरस्कार के लायक है। हर एक पंक्ति खुलकर बोलती प्रतीत होती है। आपने कविता को बखूबी जिया है। सच हीं कह रहे हैं आप कि इस पत्थर की दुनिया में एक हल्के झोंके का कोई मोल नहीं है। दुनिया ऎसी हीं है। लेकिन हवा को संघर्ष करते रहना होगा। सफलता मिलेगी हीं।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
अब पता चला कि आज का राजीव यहाँ से चलकर पहुँचा है-
उस चूल्हे की राख हैं आँखें
खाली बरतन जिसपर चुप है
उसके कदम थके-माँदे से
अंधियारा चेहरे पर घुप है
रोटी चाँद सरीखा सपना
खेल रहा उससे लुकछुप है
राजीव जी..
अच्छी शिर्षक और बढिया भाव...बहुत अच्छी रचना है...
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पाषाणों के इस जीवन में,
मंद समीरन का क्या मोल
वंशी में रोती सी लहरी
वीणा में कातर सा राग
अभिलाषों की ढली साँझ
अंतस में आशा की आग
जीवन की आँखों में अंबर
उमगों की चोली में दाग
उस चूल्हे की राख हैं आँखें
खाली बरतन जिसपर चुप है
उसके कदम थके-माँदे से
अंधियारा चेहरे पर घुप है
रोटी चाँद सरीखा सपना
खेल रहा उससे लुकछुप है
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राजीव जी बेहद सुन्दर प्रयास है..
जैसे एक और टिपण्णी मै कहा गया है की कई बार पद कर समझ आई ..
मेरा एक छोटा सा सुझाव है,,. अगर आपको लगे की कुछ शब्द थोडा अप्रचलित प्रयोग हुए हैं तो आप
उनको कविता के अंत मै.. शब्दार्थ मै लिख सकते है...
अंत मै यही कहूँगा.. आपकी रचना.. बधाई योग्य है...
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