रात पिघलकर आ गिरी
मेरी आँखों में,
कसमसाती रही
कि दर्द की बाँहों से छूटकर
कहीं छिप जाए
या कुछ न हो
तो कूद मरे
ख़्वाहिशों के छज्जे से,
और दर्द की एकतरफा मोहब्बत थी
कि रात से लिपटकर
रोता रहा,
मिन्नतें करता रहा
जैसे देवी की तपस्या करता हो,
बेचारी रात मजबूर है
कि किसी एक की कैसे हो?
बेचारा दर्द बहुत अकेला है,
अब किससे कहे,
कहाँ फरियाद करे अपनी?
रात की गलती थी
कि भटकती हुई
मेरी आँखों में आ गिरी,
और बेचारा दर्द
जाने किस पगली घड़ी में
रात से प्यार कर बैठा,
अब रात
कैसे आज़ाद हो
दर्द की मोहब्बत से
और दर्द
किसके गले लगकर रोए उसके सिवा?
सदियों से
रात पिघलकर
मेरी आँखों में आ बैठती है
और दर्द
अपना प्रणय-निवेदन दोहराता रहता है,
कसमसाती मजबूर रात
और बेचारा पागल दर्द...
बिन जवाब मिले
कोई आशिक क्या करे,
कहाँ डूब मरे?
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16 कविताप्रेमियों का कहना है :
गौरव जी,
रात और दर्द दोनों को समझ लेना चाहिये कि प्रेम त्याग का नाम है व्यक्तिगत इच्छाओं का नहीं.
और वैसे भी डा. कंवर बैचेन के शब्दों में
" चांदनी चार कदम, धूप चली मीलों तक "
रात की गलती थी
कि भटकती हुई
मेरी आँखों में आ गिरी,
कुछ अटपटा लगा....
बाकी दर्दे दिल की खूबसूरत दास्तान है
रात और दर्द के दास्तान को अच्छा बताया है.
अवनीश तिवारी
आपकी कविता तो सुंदर है परन्तु आपसे एक प्रश्न पूछना चाहूंगी कि आपकी सभी कविताऐं हमेशा इतना दर्द समेटे हुऐ क्यों होती हैं?
रात का दर्द है या दर्द की रात है
कोइ किसी का भी नही है वाह क्या बात है..
कहाँ छुपा रखी है पोटली गौरव जी..
बहुत बहुत बधाई
सुन्दर बिम्बों में गढी गयी संवेदनायें हैं। कविता अच्छी है किंतु बिम्बों ने इतना टेक्निकल बना दिया है कि समझने के लिये उलझे उन की गुच्छी खोलनी पडेगी।
*** राजीव रंजन प्रसाद
रात पिघलकर आ गिरी
मेरी आँखों में,
कसमसाती रही
कि दर्द की बाँहों से छूटकर
कहीं छिप जाए
या कुछ न हो
तो कूद मरे
ख़्वाहिशों के छज्जे से,
और दर्द की एकतरफा मोहब्बत थी......
उफ़, कसमसाती हुई ये मोहब्बत, कैसे चुडाये कोई दामन, चुडाना भी चाहे अगर
मोहिन्दर जी,
अटपटा क्यों लगा? कृपया स्पष्ट करें, ताकि आपकी शिकायत दूर कर सकूँ।
दीप्ति जी,
कुछ रंग पर, कुछ राग पर
दीवाली पर और फाग पर,
सौन्दर्य पर, अभिसार पर,
संगीत पर, झनकार पर
कैसे कहूँ?
है बहुत कहने को जब
अंतर की जलती आग पर,
संसार के दुर्भाग्य पर,
अनुत्तरित आकाश पर,
अंत पर, निराश पर...
रात से प्यार कर बैठा,
अब रात
कैसे आज़ाद हो
दर्द की मोहब्बत से
और दर्द
किसके गले लगकर रोए उसके सिवा?
बहुत ही प्यारा लगा गौरव जी आपका लिखा दिल को छु लेने वाला लिखा है आपने यह दर्द !!
कसमसाती मजबूर रात
और बेचारा पागल दर्द...
बिन जवाब मिले
कोई आशिक क्या करे,
कहाँ डूब मरे?
कविता खूबसूरत है। पर मैं थोड़ा-सा कन्फ्यूज हो गया हूँ। यह दर्द का दर्द है या तुम्हारा :) ।
मजाक कर रहा हूँ। कविता सच में दमदार है। पर मेरा तुमसे आग्रह है कि थोड़ी प्यार-मोहब्बत की कविताएँ भी लिख लिया करो, दुनिया में इतना भी दर्द नहीं है।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
गौरव जी अति उत्तम ....
मेरा मानना है की दर्द
क चुभन के बिना प्यार
की कल्पना ही नही की
जा सकती है .........
तकलीफ जब ज्यादा बढ जाए तो नींद की गोली खा कर सो जाना चाहिए. :) बढिया कविता!
सदियों से
रात पिघलकर
मेरी आँखों में आ बैठती है
कविता सच बढिया है .प्यार-मोहब्बत की कविताएँ दर्द समेटे हुऐ क्यों होती हैं?
रात को तरह-तरह के रूपों बहुत खूबसूरती से ढाला है अमृता प्रीतम में, लेकिन मैं कहूँगा रात और दर्द की यह कहानी ज्यादा कालजयी है।
gaurav ji raat aur dard ki jo galbanhiya aapne prastut ki hai,kamaal hai.
bahut bahut sadhuwaad
alok singh "sahil"
gaurav ji bahut hi umda rachna.
badhai ho
alok singh "sahil"
Bahut achha likhte ho Gaurav ji... meri request hai ki aisi dard e dil ki dastan aage bhi likhte rho...
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