सूख गए हैं सब सपने इन पलकों तक आते आते
माना उनको जाना ही था ,लेकिन मुझ से कह कर जाते
गुजरी रात अमावस की जब पूनम आने वाली थी
मुख की आभा जब मेरे तन मन पर छाने वाली थी
कुछ देर अगर रुक जाते तो सारांश नेह का पा जाते
माना उनको जाना ही था लेकिन मुझ से कह कर जाते
सिन्दूर लगा का लगा रह गया शृंगार किया का किया रह गया
मेरे अनुनय और विनय का व्यवहार धरा का धरा रह गया
इक नज़र देख लेते मुझको तो मुझ पर नयन ठहर जाते
माना उनको जाना ही था लेकिन मुझ से कह कर जाते
संबंध निभाए मैंने पर कोई कमी रही होगी
जिसे पाया सानिध्य उनका वो प्यासी जमीं रही होगी
वो गए छोड़ कर मुझ को पर नयनो में नहीं रही होगी
मैं उन से अलग रहूँ कैसे जो मुझ से दूर न रह पाते
माना उनको जाना ही था लेकिन मुझ से कह कर जाते
मैं आज सोचती हूँ शायद की मेरा प्यार अधूरा है
मेरी तृष्णा से निर्मित मेरा संसार अधूरा है
तुम ही तो थे दर्पण मेरे तुम ही तो मुझे सजाते थे
बिना तुम्हारे अब मेरा षोडस शृंगार अधूरा है
काश मेरे स्वामी मेरी कुछ भूलों को बिसरा पाते
माना उनको जाना ही था लेकिन मुझ से कह कर जाते
प्रत्येक प्रहर इस रैना का इस विरह गीत को गायेगा
हर पल मधुयामिनी की बैरन स्मृतियाँ सज़ा कर लाएगा
कैसे मैं खुद को बहलाऊँ कैसे मैं मन को समझाऊँ
यदि कक्ष चूड़ियों के टूटन की कथा कभी दोहराएगा
प्रस्थान भाग्य था पर फिर भी अधरों से अधर छू कर जाते
माना उनको जाना ही था लेकिन मुझ से कह कर जाते
उस प्रथम मिलन की मधुस्मृति मुझ को कैसे सोने देगी
और तुम्हारे हाथों की वो छुअन नहीं रोने देगी
बिस्तर की हर सिलवट से है महक तुम्हारी ही आती
तुम और किसी के हो जाओ ये मुझे नहीं होने देगी
मन की इतनी सी थी इच्छा तुम बस मेरे हो कर जाते
माना उनको जाना ही था लेकिन मुझ से कह कर जाते
हर रात नेह के साथ मुझे स्पर्श तुम्हारा मिलता था
और प्रेम से परिपूर्ण संसर्ग तुम्हारा मिलता था
नई भोर के साथ सदा उत्कर्ष हमारा खिलता था
एक ठिठोली खिलती थी और हर्ष हमारा खिलता था
इक बार मुझे चलते चलते आलिंगनबद्ध ही कर जाते
माना उनको जाना ही था लेकिन मुझसे कह कर जाते
इस विरह वेदना का कैसे आघात सहूंगी इस मन पे
जाते जाते वो छोड़ गए वृद्धावस्था इस यौवन पे
निर्जीव देह रह गई मात्र थे प्राण वे ही तो इस तन के
जाना ही था "गर" उनको तो श्वासों का ऋण दे कर जाते
माना उनको जाना ही था लेकिन मुझ से कह कर जाते
लेकिन मुझ से कह कर जाते......बस मुझ से कह कर जाते......
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20 कविताप्रेमियों का कहना है :
पता नहीं मैं सही समझ रहा हूँ या नहीं...संभवत: आपने गौतम बुद्ध के गृह त्याग का संदर्भ उठाया है? विपिन जी, गीत को आपने बखूबी निभाया है और नारी-वेदना को भी। आपको बधाई।
*** राजीव रंजन प्रसाद
वाह !!!
इस कविता का हर छंद भावनापूर्ण है . बहुत ही गहरी वेदना की अनुभूती करती है यह कविता.
सुंदर रचना है.
बधाई.
अवनीश तिवारी
आपका गीत पढकर ये पंक्तियां
स्वतः मन में उठीं...ज्यूँ की त्यूँ
आपको लिख रही हूं.....
"नीर भरे नयनों से तकती,
राह तुम्हारी ओ साथी !
एक बार जो तुम आ जाते,
श्वासों की सरगम गा जाती,
कभी इतराती,कभी इठलाती,
रास नेह संग खूब रचाती,
ओढ ओढनी तेरे नाम की,
अम्बर तक फहरा आती, "
बेहद भावपूर्ण रचना...मन उद्वेलित हो गया...
पीड़ा का पूरा संसार ही रच दिया आपने ...
विपिन जी......
बधाई...
सस्नेह
गीता पंडित
इस विरह वेदना का कैसे आघात सहूंगी इस मन पे
जाते जाते वो छोड़ गए वृद्धावस्था इस यौवन पे...
निर्जीव देह रह गई मात्र थे प्राण वे ही तो इस तन के
बेहद भावपूर्ण ....
विपिन जी......
बधाई...
सस्नेह
गीता पंडित
विपिन जी !...आप अपने गीत की छुअन का अहसास देखिये....
"नीर भरे नयनों से तकती,
राह तुम्हारी ओ साथी !
एक बार जो तुम आ जाते,
श्वासों की सरगम गा जाती,
कभी इतराती,कभी इठलाती,
रास नेह संग खूब रचाती,
ओढ ओढनी तेरे नाम की,
अम्बर तक फहरा आती,
फिर सुबह की प्राची मैं होती,
होती चाँदनी रातों की,
रात की रानी सी खिलकर.
महकाती सारी यामिनी भी,
कभी तारों संग जगमग करती,
कभी उडगन सी जलती बुझती,
ओढ चाँदनी तेरे नाम की,
भोर भये तक जग जाती,"
आभार
गीता पंडित
...मुझे समझ में नहीं आता कि स्त्रियों के साथ इस बेचारेपन को जोड कर कब तक देखा जाएगा. यह पूरी तरह से एक मर्दवादी कविता है जिसमे ना तो किसी स्त्री का सही दुख प्रकट हुआ है और ना ही उसका प्रेम.
मैंने अब तक जितनी विरह कवितायें पढ़ी हैं, उनमें ऊपर की २-३ कविताओं में आपकी ये रचना जरूर आयेगी। बहुत उम्दा। दिल छू लिया।
धन्यवाद,
तपन शर्मा
सूख गए हैं सब सपने इन पलकों तक आते आते
माना उनको जाना ही था ,लेकिन मुझ से कह कर जाते
आपकी ये दो पंक्तियाँ हीं कविता का पूरा भाव प्रकट कर देतीं हैं
सच कहूँ तो एक स्त्री-ह्रदय कि सारी वेदना एक निष्ठुर ह्रदय को भी सिसकने के लिए बाध्य कर देंगी...
बधाई और सिर्फ बधाई.....
bhav achche hain .. aur kavita bhi..lay mein hai ..
यशोधरा की वेदना के चित्रांकन का प्रयास सफल रहा है.
विपिन जी आप अच्छा लिख रहे हैं.. कोशिश कीजिए मात्राएं गिन कर छंदों में लिखने की..निखार एवं लय बद्धता आयेगी ।
बहुत अच्छा लिखा है विपिन जी......कमाल लिखा है....आप सच में बेहतरीन लिखते है....
विपिन जी
वियोग रस से पूर्ण भावभरी कविता है । प्रेम की एक दीर्घ परम्परा का वर्णन है । अन्त में दार्शनिकता ने
कविता को और प्रभावशाली बना दिया । बधाई
"मन की इतनी सी थी इच्छा तुम बस मेरे हो कर जाते
माना उनको जाना ही था लेकिन मुझ से कह कर जाते"
bahut hi bhavpoorn kavita hai jo nari man ki vedna ko mukharit karti hai.
humari or se bahut badhai......
shalini
विरह वेदना वहाँ तक नहीं झलक पाई जहाँ तक अपेक्षा थी, लेकिन अच्छी कविता है।
विपिन जी, मुझे तो यह रचना गुप्त जी के ’सखि वे मुझसे कह कर जाते’ के आसपास से गुजरती हुई प्रतीत होती है।
यह कविता प्रथम दृष्टया यशोधरा के वियोग की पीड़ा लगती है (वो शायद इसलिए भी क्योंकि गुप्त जी की पंक्तियाँ 'सखी वो मुझसे कहकर जाते' अत्यधिक प्रसिद्ध हैं)। आगे पूरी कविता पढ़ने पर प्रेम रस का माधुर्य छा जाता है। सुंदर शब्दों को जीवित रखने का काम मुझे लगता है कि आप विपिन जी अकेले संभाले हुए हैं।
हाँ लेकिन अवनीश जी की टिप्पणी ध्यान देने योग्य है। यहाँ नायिका उसी रूप में आई है जिसपर रूप में रीतिकालीन कवियों ने उसकी कल्पना की है। आपसे भी कुछ विचार प्रधान कविताओं की अपेक्षा है।
सुंदर..
मेरा दिल जलाने वाले
तेरे घर में रौशनी हो...
©राम
आपकी रचना की ऊपर की छह पँक्तियों को मैं अपनी लघुकथा पर बनी लघु फिल्म में प्रयोग कर रही हूँ
Bhai meri lucknow wali gf ki yaad aa gayi jise maine 2018 me bina kuchha bataye chhod kar chala aayaa mai bahut swarthi ladaka hu mujhe maaf kardena please
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