पाँचवीं कविता की ओर बढ़ते हैं। इस स्थान पर काबिज़ हैं हमारे बहुत पुराने प्रसंशक कवि कुलवंत सिंह। इन्होंने फ़रवरी २००७ से अब तक (एक बार छोड़कर) प्रतियोगिता में हिस्सा लिया है। कभी टॉप १० में तो कभी टॉप ५ तो कभी टॉप २० में रहे हैं। इस बार 'भारत' कविता के साथ सम्मिलित हुए थे।-
११ जनवरी १९६७ को रूड़की (उत्तराखण्ड) में जन्मे कवि कुलवंत सिंह की प्राथमिक शिक्षा-दीक्षा करनैलगंज़ (गोंडा, उ॰प्र॰) में हुई। आई आई टी, रूड़की से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की (रजत पदक एवम् तीन अन्य पदकों के साथ)। वर्तमान में भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र, मुम्बई में वैज्ञानिक अधिकारी के पद पर कार्यरत कवि कुलवंत कई बार देश भर की कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। इन्हें साइंस क्विज़ मास्टर भी कहा जाता है। काव्य-पुस्तक 'निकुंज' अनुवाद 'परमाणु एवम् विकास' तथा 'विज्ञान प्रश्न मंच' इनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं।
संपर्क- २ डी, बद्रीनाथ बिल्डिंग, अणुशक्ति नगर, मुम्बई-४०००९४
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पुरस्कृत कविता- भारत
अरुण प्रभात किरणें प्रथम
चूमतीं हिंद भाल अप्रितम,
करतीं आदित्य रश्मियाँ
सृष्टि का अभिषेक प्रथम।
हिम शैल श्रृंगों से
अवतरित हो अप्सरा सी,
झूमती मद नर्तन करतीं
आलोक फैलातीं प्रफुल्ल सी ।
नैसर्गिक सौंदर्य छटा निराली
गूँजते स्वर देवालयों से,
ईश स्तुति, अर्चन, आरती
हिंद के हर नगर से ।
शंखों का पावन नाद
स्पंदित घंटों का निनाद,
डोलते देवों के सिंहासन
भक्तों का अतिरेक उन्माद ।
कान्य कुमारी की सुषमा
मन देख-देख हर्षाता,
तीन दिशा में विस्तृत जलनिधि
बंग, अरब, हिंद लहराता ।
अरुणोदय और अस्तांचल
चरणों में शीश नवाता,
तीन सागरों का संगम
मिल रज-चरण बाँटता ।
मंदाकिनी, कालिंदी, नर्मदा
शोभित करतीं हिंद धरा,
कावेरी, कृष्णा, महानदी
हरित सिंचित उपजाऊ धरा ।
छलका अमृत जहाँ वसुधा
विश्व ख्याति पावन महत्ता,
उज्जैन, नासिक, प्रयाग, हरिद्वार
महाकुंभ तीर्थ लगता ।
जनक विश्व सभ्यता का
हड़प्पा, मोहन-जोदाड़ो का,
शून्य की उत्पत्ति का
प्राचीनतम भाषा संस्कृत का ।
वेदों, उपनिषदों, पुराणों का
रामायण, महाभारत, गीता का,
भाष्कर, मिहिर, आर्यभट्ट का
सुश्रुत, जीवक, चरक का ।
पूर्ण विश्व को पाठ पढ़ाया
दर्शन, संस्कृति, अध्यात्म,
ज्ञान, भक्ति, कर्म त्रिवेणी
अच्युत बहती धारा परमार्थ ।
धर्मों, संस्कृतियों का अद्भुत संगम
पल्लवित अनेक मत संप्रदाय,
विभिन्न मत धाराएं मिलीं
बनी एक-प्राण पर्याय ।
विस्मित करती पुरा वास्तुकला
उन्नत था इतना विज्ञान,
समृद्ध कला, कारीगरी
विश्व करता था सम्मान ।
विद्वानों, वीरों की पुन्य धरा
ज्ञानी, दृष्टा, ॠषि, महात्मा,
बद्री, द्वारका, पुरी, रामेश्वर
हर धाम बसा परमात्मा ।
संघर्ष, सवार्थ, अहंकार, मद
परित्याग का दिया संदेश,
सत्य, अहिंसा, त्याग मर्म
विश्व ने पाया उपदेश ।
तेरी गोद जन्म एक वरदान
माँ स्वीकारो कोटि प्रणाम,
जननी जन्मभूमि स्वर्ग समान
अभिनंदन भूमि लोक कल्याण ।
जजों की दृष्टि-
प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ६, ८, ८॰३
औसत अंक- ७॰४३
स्थान- तीसरा
द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ७॰२, ५॰५
औसत अंक- ६॰३५
स्थान- पाँचवाँ
तृतीय चरण के ज़ज़ की टिप्पणी- राष्ट्र-परक रचनाएँ प्रभावित तो करती हैं। तत्सम शब्दावली का चयन भी विषयानुरूप है, विषय के प्रति संलग्नता का थोड़ा अभाव है। डूब कर लिखिए।
अंक- ६॰३
स्थान- दूसरा
अंतिम ज़ज़ की टिप्पणी-
मातृभूमि की सुन्दर वंदना है, कवि ने बहुत कुछ समाहित किया है और इस प्रयास में तारतम्यता घटी है।
कला पक्ष: ६॰५/१०
भाव पक्ष: ७/१०
कुल योग: १३॰५/२०
पुरस्कार- डॉ॰ कविता वाचक्नवी की काव्य-पुस्तक 'मैं चल तो दूँ' की स्वहस्ताक्षरित प्रति
चित्र- उपर्युक्त चित्र को युवा चित्रकार अजय कुमार ने बनाया है।
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :
भारतीय इतिहास का सफर करती है आपकी कविता.
सुन्दर है.
बधाई
अवनीश
कुलवन्त जी
आपने बहुत ही प्रभावी लिखा है ।
कान्य कुमारी की सुषमा
मन देख-देख हर्षाता,
तीन दिशा में विस्तृत जलनिधि
बंग, अरब, हिंद लहराता ।
अरुणोदय और अस्तांचल
चरणों में शीश नवाता,
तीन सागरों का संगम
मिल रज-चरण बाँटता ।
बधाई स्वीकारें
कुलवंत जी ..
कविता की शेली काफी अच्छी जो भारत की सुन्दरता तथा उसकी सम्पन्नता को प्रदर्शित करती है ..
जनक विश्व सभ्यता का
हड़प्पा, मोहन-जोदाड़ो का,
शून्य की उत्पत्ति का
प्राचीनतम भाषा संस्कृत का ।
बहुत खूब ...
बहुत खूब लिखा है आपने कुलवन्त जी......शब्द और भाव दोनों ही बहुत सुंदर है ..!!
कुलवंत जी,
भारत माता का पूजन आपने निस्संदेह बड़ा हीं मनोरम तरीके से किया है। शब्दों का चयन भी अच्छा है। तत्सम शब्द आपको खासे आकर्षित करते हैं, ऎसा प्रतीत होता है। लेकिन इसके साथ-साथ शिल्प पर भी ध्यान दिया जाना जरूरी होता है। जिसमें आप थोड़े कमजोर पड़ गए है।
उदाहरणार्थ-
अप्सरा सी,
प्रफुल्ल सी
मोहन-जोदाड़ो का
संस्कृत का
आपसे आग्रह है कि जब तुकबंदी करें तो पूरी तरह से करें, नहीं तो कविता खिचड़ी लगने लगती है। कृप्या अन्यथा न लेंगे।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
कुलवंत जी!!!
बहुत ही उम्दा रचना है....मुझे बहुत अच्छी लगी....शब्दों का बहुत ही खुबशूरती से प्रयोग किया है ....हर पन्क्ति लाअवाब है.....बधाई हो!!!
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हिम शैल श्रृंगों से
अवतरित हो अप्सरा सी,
झूमती मद नर्तन करतीं
आलोक फैलातीं प्रफुल्ल सी ।
शंखों का पावन नाद
स्पंदित घंटों का निनाद,
डोलते देवों के सिंहासन
भक्तों का अतिरेक उन्माद ।
अरुणोदय और अस्तांचल
चरणों में शीश नवाता,
तीन सागरों का संगम
मिल रज-चरण बाँटता ।
छलका अमृत जहाँ वसुधा
विश्व ख्याति पावन महत्ता,
उज्जैन, नासिक, प्रयाग, हरिद्वार
महाकुंभ तीर्थ लगता ।
पूर्ण विश्व को पाठ पढ़ाया
दर्शन, संस्कृति, अध्यात्म,
ज्ञान, भक्ति, कर्म त्रिवेणी
अच्युत बहती धारा परमार्थ ।
तेरी गोद जन्म एक वरदान
माँ स्वीकारो कोटि प्रणाम,
जननी जन्मभूमि स्वर्ग समान
अभिनंदन भूमि लोक कल्याण ।
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यह सुंदर शब्दों को जमा करने के चक्कर में आप अपनी मूल शैली नहीं बना पाते, मुझे ऐसा लगता है। आप शिल्प पर कम ही सोचकर भावगत प्रवाह के बारे में सोचा कीजिए। कभी मुझ छोटे जैसों के लिए भी कविता लिखिए।
वैसे यह भी बहुत बढ़िया है। बहुत साधुवाद।
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