फटाफट (25 नई पोस्ट):

Sunday, November 25, 2007

...खुश बहुत हैं ये आदमी जैसे


वक़्त इक रेत की ज़मीं जैसे,
और प्यासी हो ज़िंदगी जैसे...
बुझा-बुझा है उम्मीदों का दिया,
मुँह चिढाती हो रौशनी जैसे...
लुट गया अक्स जश्न में गोया,
फिर भी होठों पे हो हंसी जैसे....
वह मेरे हाल पर भी ना रोया,
कर गया बात अनसुनी जैसे....
बदगुमां देखकर अपने खुदा को,
बेजुबां-सा है आदमी जैसे....
रोज़ ख़्वाबों को वो गुलज़ार करे,
माँ के किस्से की हो परी जैसे.....
मेरी हर बात पर हँसते हैं "निखिल"
खुश बहुत हैं ये आदमी जैसे.....

निखिल आनंद गिरि
+919868062333

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

16 कविताप्रेमियों का कहना है :

शोभा का कहना है कि -

निखिल
बहुत अच्छा लिखा है .
वक़्त इक रेत की ज़मीं जैसे,
और प्यासी हो ज़िंदगी जैसे...
बुझा-बुझा है उम्मीदों का दिया,
मुँह चिढाती हो रौशनी जैसे...
लुट गया अक्स जश्न में गोया,
खिम थोड़ा बहुत भाव बिखरा है . उस पर ध्यान दे .

रंजू भाटिया का कहना है कि -

वक़्त इक रेत की ज़मीं जैसे,
और प्यासी हो ज़िंदगी जैसे...

शुरू बहुत ही सुंदर किया है तुमने इस को निखिल
पर अंत में कही खोयी खोयी सी लगी यह रचना ..भाव बहुत सुंदर है इस के

इस को पढ़ के कुछ यूं ही दिल में आया :)
वक्त के हाथो फिसला तेरी याद का लम्हा था
ज़िंदगी थी पर जीने का सिलसिला न था !!

Dr. sunita yadav का कहना है कि -

अच्छी कविता है ....
बुझा-बुझा है उम्मीदों का दिया,
मुह चिढाती हो रौशनी जैसे ....

बद्गुमन देखकर अपने खुदा को,
बेजुबान-सा है आदमी जैसे..
बधाई हो
सुनीता

Mohinder56 का कहना है कि -

निखिल जी
सुन्दर भाव भरी गजल है और लफ़्ल लफ़्ज सच है.. वक्त तेजी से हाथों से फ़िसल जाता है..किसी को किसी के दर्द से कोई वास्ता नहीं..
दिल की बात को खूबसूरती से कहने के लिये बधाई

anuradha srivastav का कहना है कि -

बुझा-बुझा है उम्मीदों का दिया,
मुह चिढाती हो रौशनी जैसे ....बहुत खूब सुन्दर रचना.

Alok Shankar का कहना है कि -

अक्स - अक़्स
गोया ,फिर भी … पुनरावृत्ति नहीं लगती ?
"वह मेरे हाल पर भी ना रोया,"-- में भी का प्रयोग थोड़ा अटपटा लगता है , प्रवाह के लिये उपयुक्त है , पर अर्थ में खटकता है ।
"
माँ के किस्से की हो परी जैसे....." थोड़ा और परिपक्वत्ता से ढाला जा सकता था ।

मेरी हर बात पर हँसते हैं "निखिल"
खुश बहुत हैं ये आदमी जैसे.....
में व्यंग्य अच्छा है ।

Sajeev का कहना है कि -

बदगुमां देखकर अपने खुदा को,
बेजुबां-सा है आदमी जैसे....
bahut khoob ise tumhari awaaz me sunna aur behtar rahega, apni ghazalon ka padcast kyon nahi karte ?

अवनीश एस तिवारी का कहना है कि -

बहुत सुंदर बना है -


वक़्त इक रेत की ज़मीं जैसे,
और प्यासी हो ज़िंदगी जैसे...

बुझा-बुझा है उम्मीदों का दिया,
मुँह चिढाती हो रौशनी जैसे...

अवनीश तिवारी

गौरव सोलंकी का कहना है कि -

रोज़ ख़्वाबों को वो गुलज़ार करे,
माँ के किस्से की हो परी जैसे.....
मेरी हर बात पर हँसते हैं "निखिल"
खुश बहुत हैं ये आदमी जैसे.....

कुछ शेर साधारण हैं और कुछ बहुत अच्छे।
हाँ, गज़ल पैमाने से बाहर छलक रही है कहीं कहीं ;)

Anonymous का कहना है कि -

बढिया !!! बहुत खूब !
पढ़कर मन खुश हुआ।

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

निखिल जी,

आपकी लेखनी परिपक्वता की ओर अग्रसर है। आपक्प पढने की युग्म के मंच पर प्रतीक्षा रहने लगी है।

वक़्त इक रेत की ज़मीं जैसे,
और प्यासी हो ज़िंदगी जैसे...

वह मेरे हाल पर भी ना रोया,
कर गया बात अनसुनी जैसे....

गहरी रचना।

*** राजीव रंजन प्रसाद

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -
This comment has been removed by the author.
भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

ये कोई गजल-ए-निखिल है
या मेरे अन्दर का दिल है

क्या लिखा है भाई
बहुत बहुत बधाई

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

दिया= दीया

ग़ज़ल की एक विशेषता तो आपको बखूबी पता है, वो है शब्दों का चुनाव (अतिरिक्त शब्दों की छँटनी)

'गोया' और 'फ़िर भी' मुझे भी खटक रहे हैं।

विश्व दीपक का कहना है कि -

वह मेरे हाल पर भी ना रोया,
कर गया बात अनसुनी जैसे....

बदगुमां देखकर अपने खुदा को,
बेजुबां-सा है आदमी जैसे....

निखिल जी,
गज़ल के क्षेत्र में तो आपका कोई सानी नहीं है। बस इस बार "आदमी" शब्द का दो बार काफिये में प्रयोग खल गया। थोड़ा ध्यान देंगे।
बाकी रचना तो शुभान-अल्लाह है।

-विश्व दीपक 'तन्हा'

Tulika Vividh Rang का कहना है कि -

bujha-bujha hai ummido ka diya, mujhe chirati ho roshini jaise,bahut hi achhi aur murmsparshi panktiya hai , aaj maine pahli bar apka blog dekha ,bahut hi arthpurn kavitay hai apki. holy ki shubhkamnay.

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)