‘होमो सेपियंस !!’
हाँ, यही बताई थी
उसने अपनी जाति
तिस पर,
नेताजी ने चेहरे पर
बिना भाव बदले
उसे लताड़ा था --
’अरे तू कैसे हो गया होमो सेपियंस ?
फिर हम क्या हैं ?
कुछ पता भी है
समाज के प्रबुद्ध लोग कहलाते हैं—
होमो सेपियंस !’
‘पर ‘सर’ मैंने तो पढा है कि
सम्पूर्ण आधुनिक मानव....’
‘ऐसा विज्ञान कहता होगा,
समाज नहीं ;
जानते नहीं विज्ञान समाज का दास है...
तू विज्ञान की नज़र से देख रहा है
मैं प्रबुद्ध समाज की नज़र से
और
जहाँ से मैं देख रहा हूँ
तू मुझे आदिम होमो इरेक्टस या होमो.......
नज़र आता है;
नहीं तो कमबख़्त अपने नाम से पहले
तू अपनी जाति बताता
यूँ मुझे आधुनिकता का पाठ न पढ़ाता।’
नेताजी को सहसा कुछ याद आया
शांत-संयत हो कहा –
‘भई, जाओ मिहनत करो
हम सुसंस्कृत भारतीय हैं
यूँ आधुनिकता के नाम पर
हमें बर्बाद करने की
कोशिश तो न करो ।’
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
ऐसा विज्ञान कहता होगा,
समाज नहीं ;
जानते नहीं विज्ञान समाज का दास है...
तू विज्ञान की नज़र से देख रहा है
मैं प्रबुद्ध समाज की नज़र से
विशिष्ट प्रकार के नेताओं पर प्रहार सटीक है.
सुंदर
अवनीश तिवारी
अभिषेक जी
वाह अच्छा लिखा है -
ऐसा विज्ञान कहता होगा,
समाज नहीं ;
जानते नहीं विज्ञान समाज का दास है...
तू विज्ञान की नज़र से देख रहा है
मैं प्रबुद्ध समाज की नज़र से
बधाई स्वीकारें ।
भाई पाटनी जी !!
बहुत सही कहा आपने. जो नेतृत्व-शक्ति दुहाई देते नहीं थकती है-परम्पराओं की, वास्तव में वे स्वयं उन चीजों से अनभिज्ञ होते हैं. इन नेताओं पर निम्न पंक्तियाँ सटीक बैठती हैं -
आपसी चर्चा के दौरान
'तिरंगा झंडा' में
"कौन-सा रंग नीचे होता है?"
जब वह नहीं जाना,
तब कहीं जाकर
विदेशियों ने उसे
'भारतीय नेता' माना |
अभिषेक जी ,
बहुत ही सुंदर है आपकी कविता ...ऐसे ही लिखते रहिये ..नए विषय पर ....बधाई स्वीकार करे
‘ऐसा विज्ञान कहता होगा,
समाज नहीं ;
जानते नहीं विज्ञान समाज का दास है...
तू विज्ञान की नज़र से देख रहा है
मैं प्रबुद्ध समाज की नज़र से
और
जहाँ से मैं देख रहा हूँ
तू मुझे आदिम होमो इरेक्टस या होमो.......
नज़र आता है;
नहीं तो कमबख़्त अपने नाम से पहले
तू अपनी जाति बताता
यूँ मुझे आधुनिकता का पाठ न पढ़ाता।’
बहुत ही सुंदर अभिषेक जी ...
तू विज्ञान की नज़र से देख रहा है
मैं प्रबुद्ध समाज की नज़र से
बधाई!!
तू मुझे आदिम होमो इरेक्टस या होमो.......
नज़र आता है;
नहीं तो कमबख़्त अपने नाम से पहले
तू अपनी जाति बताता
यूँ मुझे आधुनिकता का पाठ न पढ़ाता।’
कलम बहुत पैनी है, व्यंग्य में कवि की महारत है। उत्कृष्ट रचना।
*** राजीव रंजन प्रसाद
नया विषय, नया कौशल, प्रेरक व्यंग
अच्छा लिखा है
बधाई
bahut sahi.....
अभिषेक जी ,
बहुत सही व्यंग्य है-
नेताजी को सहसा कुछ याद आया
शांत-संयत हो कहा –
‘भई, जाओ मिहनत करो
हम सुसंस्कृत भारतीय हैं
यूँ आधुनिकता के नाम पर
हमें बर्बाद करने की
कोशिश तो न करो ।’
‘होमो सेपियंस !!’
हाँ, यही बताई थी
उसने अपनी जाति
नहीं तो कमबख़्त अपने नाम से पहले
तू अपनी जाति बताता
यूँ मुझे आधुनिकता का पाठ न पढ़ाता।’
तीखा कटाक्ष।
बधाई अभिषेक जी।
कुछ पता भी है
समाज के प्रबुद्ध लोग कहलाते हैं—
होमो सेपियंस !
जानते नहीं विज्ञान समाज का दास है...
तू मुझे आदिम होमो इरेक्टस या होमो.......
नज़र आता है;
नहीं तो कमबख़्त अपने नाम से पहले
तू अपनी जाति बताता
यूँ मुझे आधुनिकता का पाठ न पढ़ाता।
हम सुसंस्कृत भारतीय हैं
पाटनी जी,
शब्दों का आपने ऎसा मायाजाल बुना है कि कविता खुद-ब-खुद व्यंग्य की परिधि को परिभाषा देती है। बहुत हीं सटीक व्यंग्य है। अच्छा प्रयोग दिख रहा है। आपसे अब उम्मीदें बढ गई हैं।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
आपके तेवर बहुत भाते हैं मुझे।
The award given for this poem speaks for itself
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