उँचाई -१
तुम आसमान की फुनगी हो
मेरे दिल नें तुम्हें
इतनी ही उँचाई पर पाया था..
उँचाई -२
इतनी उँचाई पर उडती हुई चिडियाँ
मुझे बौना ही समझती होगी
काश कि उसे बता पाता
कि मैं इस धरती पर हूँ
लेकिन इस दुनियाँ का नहीं हूँ..
उँचाई -३
आओ मेरा कत्ल कर दो
कि मुझे इतनी उँचाई चाहिये है
जहाँ खुद से ओझल हो जाऊं..
उँचाई -४
एडियों के बल उचक कर
और हथेलियाँ पूरी खोल कर भी
तुम्हें छू नहीं पाता
और तुम किसी भी पल मुझसे दूर नहीं..
उँचाई -५
तुम्हारी नज़रों से गिर कर
और अपनी नज़रों से फिर गिर कर
मेरा मैं इतने उँचे जा बैठा है
कि अब हथेलियों में नहीं आता..
उँचाई -६
मेरी पीठ से चढ कर
मेरे सर पर जा बैठा
फिर कूद कर सातवें आसमान में
मेरा मन लौट नहीं आता
लगातार चीख रहा है
कि दिल में दिल ही रहेगा
या मैं कूद कर जान दे दूं अपनीं.
उँचाई -७
मुझसे उँची मेरी आशा
उससे उँचा मेरा गम
मैं अपना बौनापन ले कर
तनहाई के साथ चला हूँ
पर्बत-पर्बत
शायद तुम तक आ पहुँचूंगा
*** राजीव रंजन प्रसाद
२९.०५.१९९७
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16 कविताप्रेमियों का कहना है :
राजीव जी,
अवकाश के उपरान्त आपका स्वागत है..
उंचाई पर सुन्दर क्षणिकायें बन पडी हैं मुझे सभी पसन्द आईं. मैं भी एक जोड रहा हूं..
उस पर्वत के पार भी आसमान है
यह सोचना तुम्हें है कितनी ऊंचाई चाहिये
उस शिखर के पीछे फ़िर से ढलान है
बधाई
तुम्हारी नज़रों से गिर कर
और अपनी नज़रों से फिर गिर कर
मेरा मैं इतने उँचे जा बैठा है
कि अब हथेलियों में नहीं आता
सुंदर और ऊंचाई को छूती लगी आपकी यह क्षणिकायें राजीव जी ..सब सुन्दर है पर मुझे यह बहुत पसन्द आई !!
इतनी उँचाई पर उडती हुई चिडियाँ
मुझे बौना ही समझती होगी
काश कि उसे बता पाता
कि मैं इस धरती पर हूँ
लेकिन इस दुनियाँ का नहीं हूँ..
गजब की उंचाइयां हैं आपकी
क्षणिकाओं में
मुझसे उँची मेरी आशा
उससे उँचा मेरा गम
मैं अपना बौनापन ले कर
तनहाई के साथ चला हूँ
पर्बत-पर्बत
शायद तुम तक आ पहुँचूंगा
सुंदर बना है.
अवनीश तिवारी
अच्छी क्षणिकाएँ.
क्षणिकायें गहरी बहुत रजीव रंजन भाई..
उँचाई शरमा रही देख के यह उँचाई..
एक बार पुनः बधाई
तुम्हारी नज़रों से गिर कर
और अपनी नज़रों से फिर गिर कर
मेरा मैं इतने उँचे जा बैठा है
कि अब हथेलियों में नहीं आता..
aapki kavitaaon ki oochaai ambar se bhi pare hai
और अपनी नज़रों से फिर गिर कर
मेरा मैं इतने उँचे जा बैठा है
कि अब हथेलियों में नहीं आता..
मुझसे उँची मेरी आशा
उससे उँचा मेरा गम
मैं अपना बौनापन ले कर
तनहाई के साथ चला हूँ
पर्बत-पर्बत
शायद तुम तक आ पहुँचूंगा
राजीव जी
.. उँची और उँची... स्वागत अवकाश के बाद
इतनी उँचाई पर उडती हुई चिडियाँ
मुझे बौना ही समझती होगी
काश कि उसे बता पाता
कि मैं इस धरती पर हूँ
लेकिन इस दुनियाँ का नहीं हूँ..
वाह राजीव जी बहुत दिनों बाद आपने अपनी क्षणिकाएँ निकली हैं
एडियों के बल उचक कर
और हथेलियाँ पूरी खोल कर भी
तुम्हें छू नहीं पाता
और तुम किसी भी पल मुझसे दूर नहीं
बहुत सुंदर, यूं टू सभी एक से बढ़कर एक हैं
मुझसे उँची मेरी आशा
उससे उँचा मेरा गम
मैं अपना बौनापन ले कर
तनहाई के साथ चला हूँ
पर्बत-पर्बत
शायद तुम तक आ पहुँचूंगा
bahut sundar bani hai raajiv ji,
par aapne pahle kaafi achchi kshanikayen likhi hain.. aur unke star se dekhne par ye bhi thodi aur tarashi jaa sakti thi
राजीव जी
बहुत अच्छी क्षणिकाएँ लिखी हैं ।
एडियों के बल उचक कर
और हथेलियाँ पूरी खोल कर भी
तुम्हें छू नहीं पाता
और तुम किसी भी पल मुझसे दूर नहीं..
बधाई ।
राजीव जी,
सुन्दर क्षणिकाएँ हैं।
इतनी उँचाई पर उडती हुई चिडियाँ
मुझे बौना ही समझती होगी
काश कि उसे बता पाता
कि मैं इस धरती पर हूँ
लेकिन इस दुनियाँ का नहीं हूँ.
बधाई।
तुम आसमान की फुनगी हो
मेरे दिल नें तुम्हें
इतनी ही उँचाई पर पाया था..
इतनी उँचाई पर उडती हुई चिडियाँ
मुझे बौना ही समझती होगी
काश कि उसे बता पाता
कि मैं इस धरती पर हूँ
लेकिन इस दुनियाँ का नहीं हूँ..
मुझसे उँची मेरी आशा
उससे उँचा मेरा गम
मैं अपना बौनापन ले कर
तनहाई के साथ चला हूँ
पर्बत-पर्बत
शायद तुम तक आ पहुँचूंगा
अच्छी क्षणिकाएँ हैं।
आओ मेरा कत्ल कर दो
कि मुझे इतनी उँचाई चाहिये है
जहाँ खुद से ओझल हो जाऊं..
तुम्हें छू नहीं पाता
और तुम किसी भी पल मुझसे दूर नहीं..
तुम्हारी नज़रों से गिर कर
और अपनी नज़रों से फिर गिर कर
मेरा मैं इतने उँचे जा बैठा है
कि अब हथेलियों में नहीं आता..
मैं अपना बौनापन ले कर
तनहाई के साथ चला हूँ
पर्बत-पर्बत
शायद तुम तक आ पहुँचूंगा
इसे कहते हैं देर आये दुरूस्त आये। बहुत हीं सुंदर क्षणिकाएँ हैं राजीव जी। ऊँचाई के हर रूप दिखा दिये आपने।
बधाई स्वीकारें।
राजीव जी,
गौरव, मनीष, तन्हा और निखिल की क्षणिकाओं को पढ़कर जाना हूँ कि ऊँचाइयाँ क्या हैं। आपकी ज्यादातर क्षणिकाओं में सबकुछ कह दिया गया है, मुझे लगता है कुछ पाठकों के लिए भी जगह छोड़ा कीजिए।
५ और ७ नं॰ की क्षणिकाएँ मुझे बहुत पसंद आईं।
राजीव जी आपको कविताओं के मध्यम से पढ़ना हमेशा से ही आनंदकारी रहा है,और सच कहूँ टू आज भी कोई अलग अनुभूति नहीं है,
बहुत प्यारी रचना
आलोक सिंह "साहिल"
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