पंछी थे डाल डाल के, जाने कहाँ गये
अरमान आँख ही को पत्थर थमा गये॥
तेरी ज़ुल्फ के अंधेरे, सागर को ढक न पाये
दो बूंद, पलक ही के, कोरों पे छलक आये
वो शाम मन में बैठी, अंगार हो गया तन
आँहों के कदम धीमें, पायल न झनक जाय
दिल रबर की चादर, तुम खींचते हो रहबर
मुझे तोड जो न पाये, अंबर बना गये।
पंछी थे डाल डाल के, जाने कहाँ गये
अरमान आँख ही को, पत्थर थमा गये॥
कोई मेरा हाल पूछे, तेरे दर का मैं पता दूं
दरवेश वो है सब कुछ, उसे किस तरह लुटा दूँ
जिसे नंगे पाँव चल कर परबत पे रख के आया
उसे मंदिरों में पूजो, मैं आत्मा घुटा दूं
सजदा है मेरी तनहा आँखों की बेबसी
अब क्या तलाश होगी, तुम हो खुदा गये।
पंछी थे डाल डाल के, जाने कहाँ गये
अरमान आँख ही को, पत्थर थमा गये॥
तुम्हें क्या पता कि मेरे भीतर ही मेरा मैं है
मेरी मौत मुझपे परदा ना डाल सकी जानम
तेरा नाम सुबहो शाम बन कर अज़ान गूँजा
आँख में गया कुछ, जो गुल पे खिली शबनम
मेरे गम में तेरा दम ना, घुट जाये मेरे हमदम
जो तुम गये तो मेरे, दोनों जहाँ गये।
पंछी थे डाल डाल के, जाने कहाँ गये
अरमान आँख ही को, पत्थर थमा गये॥
*** राजीव रंजन प्रसाद
3.10.2007
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34 कविताप्रेमियों का कहना है :
बढ़िया है राजीव..लिखते रहो.बेहतरीन, जल्द मुलाकात होगी:
पंछी थे डाल डाल के, जाने कहाँ गये
अरमान आँख ही को, पत्थर थमा गये॥
--क्या बात है!! खूब!!
कोई मेरा हाल पूछे, तेरे दर का मैं पता दूं
दरवेश वो है सब कुछ, उसे किस तरह लुटा दूँ
जिसे नंगे पाँव चल कर परबत पे रख के आया
उसे मंदिरों में पूजो, मैं आत्मा घुटा दूं
सजदा है मेरी तनहा आँखों की बेबसी
अब क्या तलाश होगी, तुम हो खुदा गये।
वाह राजीव जी, शब्दों का कैसा जाल बुना है आपने मज़ा आया पढ़ कर, हालांकि कविता थोड़ी जटिल है, कम से कम तीन बार पढ़नी पढी, पर इसे भी आपकी सफलता ही कहूँगा
kuch pankityaan bahut sundar lagin...
buss ek nivedan hai...angrezi shabdon ka prayog na karen...
aap ki kavitaayen adhiktar bhav pradhaan hotin hai..aur angrezi shabdon ke prayog se ek halkapan aa jaata hai...padhte samay pathak ka dhayan mukhya vishay se ek baar hath jaata hai, kuch palon ke liye....
angrezi shabd hasya kavitaon mein prayog hone lagein hain aajkal...par unka aisa hona hamari badalti sanskriti se sambadh rakhta hai ....
...
likhte rahiye
सजदा है मेरी तनहा आँखों की बेबसी
अब क्या तलाश होगी, तुम हो खुदा गये।
बहुत सुंदर राजीव जी ...
आँख में गया कुछ, जो गुल पे खिली शबनम
मेरे गम में तेरा दम ना, घुट जाये मेरे हमदम
बहुत ही भाव पूर्ण और प्यारी सी रचना लगी आपकी यह ..
बहुत बहुत बधाई सुंदर रचना के लिए !!
अरमान आँख को ही॰॰॰॰॰॰
अत्युत्तम रचना । प्रथम पंक्ति पढकर ही पता चल गया कि ये राजीव जी की कलम ही हो सकती है, जहाँ भावों की प्रधानता, वहाँ राजीव जी ।
यूँ तो पूरी रचना ही तारीफ के काबिल है, किन्तु अंतिम दो पैरा बहुत उम्दा लगे , क्योकि रचना पूरी तरह से तुकबन्दी युक्त नही थी, इसलिये कहीं कहीं सारथी सा' से समर्थित होते हुये रचना को २-३ बार पढना पढा ।वैसे अपनी बात को कहने के लिये सदैव तुकबन्दी की जरुरत नही होती, ये भी आप ही से सिखा हूँ ।
परस्पर विरोधाभासी बातें ????
एक बार पुनः आपकी कलम को नमन प्रेषित करता हूँ ।
आर्यमनु, उदयपुर ।
"अरमान आँख ही को पत्थर थमा गये"
बहुत खूब, बहुत नये बिम्ब अति प्रभावी बन दिये हैं आपने :)
नई सी कविता लगी, हमेशा की तरह सशक्त भाव
"दिल रबर की चादर, तुम खींचते हो रहबर
मुझे तोड जो न पाये, अंबर बना गये।"
"जिसे नंगे पाँव चल कर परबत पे रख के आया
उसे मंदिरों में पूजो, मैं आत्मा घुटा दूं"
बहुत सुन्दर
"सजदा है मेरी तनहा आँखों की बेबसी"
कविता बहुत सुन्दर है, बाकी देशज शब्दों के प्रयोग से कविता को सुग्राह्य बना देने के शैली लाजवाब है
अनुपम रचना के लिये बधाई
सस्नेह
गौरव शुक्ल
राजीव जी,
सुन्दर शब्दों बिम्बों से सजी कविता है... हमेशा की तरह.
दिल रबर की चादर, तुम खींचते हो रहबर
मुझे तोड जो न पाये, अंबर बना गये।
सजदा है मेरी तनहा आँखों की बेबसी
अब क्या तलाश होगी, तुम हो खुदा गये।
आँख में गया कुछ, जो गुल पे खिली शबनम
मेरे गम में तेरा दम ना, घुट जाये मेरे हमदम
राजीव जी
अच्छा लिखा है अपनी चिर-परिचित शैली में । प्रेम में दार्शनिकता का समावेश अच्छा किया है ।
कोई मेरा हाल पूछे, तेरे दर का मैं पता दूं
दरवेश वो है सब कुछ, उसे किस तरह लुटा दूँ
जिसे नंगे पाँव चल कर परबत पे रख के आया
उसे मंदिरों में पूजो, मैं आत्मा घुटा दूं
सजदा है मेरी तनहा आँखों की बेबसी
अब क्या तलाश होगी, तुम हो खुदा गये।
बधाई स्वीकारें ।
"अरमान आँख ही को पत्थर थमा गये॥ "
"तेरी ज़ुल्फ के अंधेरे, सागर को ढक न पाये
दो बूंद, पलक ही के, कोरों पे छलक आये"
"दिल रबर की चादर, तुम खींचते हो रहबर
मुझे तोड जो न पाये, अंबर बना गये।"
:जिसे नंगे पाँव चल कर परबत पे रख के आया"
"तेरा नाम सुबहो शाम बन कर अज़ान गूँजा
आँख में गया कुछ, जो गुल पे खिली शबनम"
"सजदा है मेरी तनहा आँखों की बेबसी"
वाह .......वाह.......
बहुत बहुत बधाई
राजीव जी,
हर शब्द से अनुभव झलकता है | पढ़ कर ही पता चल जाता है क़ि राजीव जी ने लिखा है |हर बार की तरह इस बार भी बहुत ही ज़्यादा अच्छा लिखा है आपने |
यह पंक्तियाँ तो कमाल की थीं ..
सजदा है मेरी तनहा आँखों की बेबसी
अब क्या तलाश होगी, तुम हो खुदा गये।
"जिसे नंगे पाँव चल कर परबत पे रख के आया
उसे मंदिरों में पूजो, मैं आत्मा घुटा दूं"
हर शब्द से अनुभव झलकता है | पढ़ कर ही पता चल जाता है क़ि राजीव जी ने लिखा है |हर बार की तरह इस बार भी बहुत ही ज़्यादा अच्छा लिखा है आपने |
यह पंक्तियाँ तो कमाल की थीं ..
सजदा है मेरी तनहा आँखों की बेबसी
अब क्या तलाश होगी, तुम हो खुदा गये।
"जिसे नंगे पाँव चल कर परबत पे रख के आया
उसे मंदिरों में पूजो, मैं आत्मा घुटा दूं"
१। दिल रबर की चादर, तुम खींचते हो रहबर
मुझे तोड जो न पाये, अंबर बना गये।
२। सजदा है मेरी तनहा आँखों की बेबसी
अब क्या तलाश होगी, तुम हो खुदा गये।
३। आँख में गया कुछ, जो गुल पे खिली शबनम
मेरे गम में तेरा दम ना, घुट जाये मेरे हम।
राजीव जी,
अगर मैं औरो की तरह ये कहूँ कि वाह राजीव जी, क्या बात है, तो ये कविता पर अन्याय होगा। चूँकि आप कविता लिखते लिखते बार बार अपना सयंम खो देते हो। नंबर १ की दो पंक्तीयों में आप प्रेमी से कह रहे हैं उस ने तुम्हें अम्बर बना दिया। लेकिन नंबर २ पर आप ने प्रेमी को खुदा बना दिया।
नंबे ३ पर आप का दावा है कि तुम्हारे गम में उस का दम ना निकल जाये। जब कि आप की कविता आप के प्रेमी के प्रति रोष परकट करती हुई मालूम होती है।
भावों की कङीयों को सही ढंग से जोङने की कला ही कविता है। ऍक निवेदन है कि झूठी प्रसन्सा से बचें। कइ बार लोग इस लिये भी प्रसन्सा करते हैं कियूँ कि उन्हें कविता के बारे में अधिक मालूम भी नही होता।
यदि आस पास कोइ जाना माना कवि रहता हो तो उस से आप अपनी कविताऍ सुधवा लें तो जलद आप की कविता निखर सकती है।
मेरी शुभ कामनाऍ सदैव आप के साथ हैं। शुरूात बुरी नही है।
हितैषी,
जै बांवरा
बांवरा जी,
बेहद प्रसन्नता हुई आपकी समालोचना पढ कर। आपसे अपेक्षा है कि आप हिन्द युग्म पर नीयमित पधारें।
यह कविता प्रेमिका को संबोधित नहीं है, पूर्णत: आध्यात्मिक मनोवृत्तियों की स्याही से लिखी गयी है जहाँ प्रेम ईश्वर और कवि तीनों जी एक दूसरे के पूरक हैं। क्या कोई भी एक दूसरे के बिना रह सकता है? हाँ कविता आप तक नहीं पहुच सकी यह मेरी संप्रेषणीयता की कमी है, मैं कोशिश करूंगा कि मेरे बिम्ब जटिल न हो और आम पाठक तक सहजता से पहुँचें।
आपने लिखा है कि "ऍक निवेदन है कि झूठी प्रसन्सा से बचें। कइ बार लोग इस लिये भी प्रसन्सा करते हैं कियूँ कि उन्हें कविता के बारे में अधिक मालूम भी नही होता।" आपका स्नेह शिरोधार्य। एसी प्रसंशा की मुझे आवश्यकता नहीं जो झूठी हो। हाँ मैं जाने-माने कवियों के पास जाने की जरूरत नहीं समझता मेरे पथदर्शक मेरे पाठक ही होंगे..और आप भी उनमें से एक हैं।
*** राजीव रंजन प्रसाद
राजीव जी!
बहुत सुंदर गीत लिखा है, परंतु बिम्ब निश्चय ही कुछ जटिल हो गये हैं. कहीं कहीं दोबारा पढ़ना पढ़ा. परंतु कुल मिला कर गीत बहुत अच्छा लगा. बधाई!
मेरा मानना है राजीव जी, इस तरह की शायरी शायर को इक और ऊँचे पयेदान पर ले जाती है. इतनी उम्दा शायरी के लिए मेरी तरफ़ से बधाई.
"कोई मेरा हाल पूछे, तेरे दर का मैं पता दूं
दरवेश वो है सब कुछ, उसे किस तरह लुटा दूँ
जिसे नंगे पाँव चल कर परबत पे रख के आया
उसे मंदिरों में पूजो, मैं आत्मा घुटा दूं
सजदा है मेरी तनहा आँखों की बेबसी
अब क्या तलाश होगी, तुम हो खुदा गये।"
वाह क्या बात है.
रजीव जी,
थोड़ी जटिलता के चलते कविता का भाव समझने में वक्त तो लगा.. मगर सच में शब्द सागर से जो मोती चुन चुन पिरोये है.. सच में कबिले तारीफ है.
वरन कहना चहुँगा कि तारीफ की कोई सुपरलेटिव डिग्री होती तो वो इस्तेमाल करता..
सस्नेह...
मित्र राजीव जी
आपकी रचना के लिये पुल बांधने की आवशयकता नहीं पड़ती है किसी को. न ही आपकी विशिष्ट शैली को किसी प्रमाण पत्र की आवश्यकता है. रचनाकार किसी की अपेक्षानुसार रचना करता है मेरे अपने अनुभव से कवि स्वयं भी कविता का रचनाकार होने का दंभ भरे तो यह मिथ्या ही है
कविता वह बीज है जो किसी भी संवेदनशील हृदय में
पड़कर अपना अंकुरण पोषण स्वयमेव ही उसकी छाती
को भेदकर करवा लेती है. कवि उसका जन्मदाता मात्र होकर उसके साये में वैसे ही प्रतिष्ठा रूपी प्रसाद
पा जाता है जैसे कोई पुजारी किसी मंदिर की सेवा
अर्चना में
अतः मैं कविताओं को पुत्री बेटी अथवा जो भी कहें
वही समझता हूं
यह रीतिकाल नहीं है मित्र जहां हमें राजा को
प्रसन्न कर अशर्फियां लेकर उदर पोषण करने
के लिये उनकी प्रसन्नता के लिये रचना करनी है हमारा काम है ...
आप के ही शब्दों में
"कानों में बारूद डाल विस्फोट करना" साहित्य के लिये, भी और युग धर्म के लिये भी ..
अब इतनी लम्बी टिप्पणी क्यों यह कहने की आवश्यकता नहीं. पाठक की शब्दावली एवं पठनीयता का निरंतर विकास भी साहितयकार का
दायित्व है काव्य में शिल्पगत दोष का निराकरण एवं परिमार्जन पाठक का सहज अधिकार है, और उसका निर्वहन का सतत प्रयास हम
सब करते भी रहते हैं रहेंगे
आपकी इस रचना की निम्न पंक्तियां मेरे हृदय को छू गयी हैं.
जिसे नंगे पाँव चल कर परबत पे रख के आया
उसे मंदिरों में पूजो, मैं आत्मा घुटा दूं
सजदा है मेरी तनहा आँखों की बेबसी
अब क्या तलाश होगी, तुम हो खुदा गये।
पंछी थे डाल डाल के, जाने कहाँ गये
अरमान आँख ही को, पत्थर थमा गये॥
शुभकामनायें
Rajeevji after a long time a romantic poem with touch of pain and sentiments.......bade dino baad aai hu yugm pe magar aapko padha to man khush ho gaya....mehsoos ho raha hai ki kitna kuch miss kar rahi hu.
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