मुझ पर महाकाव्य लिखे गये हैं
पोथे के पोथे पढ़े गये हैं ,
आज मैं अपनी ही कहानी
अपनी ज़ुबानी बताती हूँ ,
मैं "मधुशाला" हूँ!
आओ सच से रूबरू करवाती हूँ |
कोई अछूत समझता है
तो कोई जन्नत मानता है,
कोई प्यार करता है
तो कोई नफ़रत से मुँह बनाता है !
अलग अलग इंसान यहाँ पीने आते हैं
मैं सबकी दोस्त हूँ
सब अपनी तकलीफ़े बताते हैं |
वो रोज़ आता है
घरों में ईंटे जोड़ते, तगाड़ी उठाते थक जाता है
अस्सी रुपये पाता है,
आधे दारू में उड़ाता
चौथाई घर भेजता और चौथाई से रोटी खाता है!
माँ के सपने...
शराब में डूब कर सड़ने लगे हैं,
अनब्याही बहन के भविष्य को
बदबू से भरने लगे हैं!
और वो...
"बुधिया का बाप"
कामचोर है..
पत्नी को मारता है,
बेटी से पैसे छीन
शान से दारू पीने आता है!
घर भी नही पहुँचता,
यहीं सामने पड़ा रहता है|
कल नशे में बुधिया की बाँह मरोडी थी
सूजन है.. आज पैसे नहीं है
वो उधारी के लिए गिड़गिड़ा रहा है ,
मेरा मालिक उसे गाली बक रहा है
भगा रहा है!
और यह...
इसकी बड़ी दर्दीली गाथा है
प्रेमिका का सताया है ,
शाम से ही बैठ जाता है!
कोने में चुपचाप
बड़े धीरे-धीरे पीता है
पुरानी यादों में खोया,
रोज़ तिल-तिल कर के मरता है|
वो वादे,वो कसमें..
एक एक कर याद आते हैं
चखने की ज़रूरत नहीं,
यही काम कर जाते हैं!
जब कोई आँसू प्याले में गिरता है
तो एक अजब सा नशा होता है,
सारा का सारा मदिरालय
क्या औकात रखता है ?
ये कॉलेज के लड़के..
बाप ने लोन लिया है
तब फीस भरता है,
ट्यूशन के लिए मँगाए पैसों से
यहाँ मदिरपान होता है!
बाप ख़ुश है,अपने बेटे के लिए
अभावों को झेल रहा है
अपनी छोटी छोटी ख़ुशियों को
क़ुरबान कर रहा है!
बेटे को चार हज़ार लगते हैं
वो देता है ,
पहले सिगरेट पिया करता था
अब बीडी से काम चलता है!
उसकी माँ अब शादियों में नही जा पाती है
कारण कि अपनी कोई भी साड़ी,
ठीक-ठाक सी नही पाती है!
रोज़ एक कार सामने आकर रुकती है
मेरा मालिक भाग कर जाता है,
काले शीशों के अंदर रोज़ एक बोतल चढ़ाता है!
यह मिनिस्टर है..
यही लाइसेंस बनवाता है,
घाघ है और चालाक भी
रोज़ बदलबदल कर
लड़कियाँ लाता है!
ऊपर दो कमरे भी हैं यहाँ
यहाँ बेबसी का पैसा दिया जाता है,
पास के थाने का टी. आई.
यहाँ नियमित आता है!
आज वो पीकर बहक गया
वेटर को एक थप्पड़ मार दिया,
उसकी दौलत,उसका स्वाभिमान रौंद दिया,
ख़ूंटी पर टाँग दिया!
ग़रीब का स्वाभिमान..
इसका कोई मूल्य नही गिना जाता,
अगर कोई वेश्या को भोगे
तो उसे बलात्कार नही कहा जाता!
पता है ..
मैं भी सोचती हूँ,
सब देखा करती हूँ
प्याले जब टकराते हैं,
तो सिसक उठती हूँ!
जब सुबह सब सो जाते हैं
तो मैं ख़ून के आँसू बहाती हूँ ,
इस लाचारी और बेबसी की दुनिया में
तन्हाई को
अक्सर भीड़ से घिरा पाती हूँ!
मैं जैसे रंगोली..
जीवन के हर रंग से ख़ुद को रंगा पाती हूँ,
जब शाम होती है
तो ग़म के इंतज़ार में,
सज-धज कर
तैयार हो जाती हूँ!
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21 कविताप्रेमियों का कहना है :
वो वादे,वो कसमें..
एक एक कर याद आते हैं
चखने की ज़रूरत नहीं,
यही काम कर जाते हैं!
जब कोई आँसू प्याले में गिरता है
तो एक अजब सा नशा होता है,
सारा का सारा मदिरालय
क्या औकात रखता है ?
वाह विपुल, और ये तो और अच्छा है -
ग़रीब का स्वाभिमान..
इसका कोई मूल्य नही गिना जाता,
अगर कोई वेश्या को भोगे
तो उसे बलात्कार नही कहा जाता!
बुधिया का सन्दर्भ भी बहुत अच्छे तरीके से दिया, विपुल, मधुशाला का एक वास्तविक चेहरा उकेरा है तुमने, हर बार तुम्हे पढ़ना एक नया अनुभव होता है, इसी तरह अपने काव्य को मंझते रहो, धार जबर्दस्त है तुम्हारे प्रहार की
विपुल,
तुमने अपनी कलम की नोक को पैना कर लिया है। बहुत सजीव वर्णन है। आरंभ से ले कर अंत तक कविता मधुशाला के परोक्ष में मानवीय प्रवृत्तियों पर प्रहार करती है और सोच को उकेरती भी है।
अनब्याही बहन के भविष्य को
बदबू से भरने लगे हैं!
जब कोई आँसू प्याले में गिरता है
तो एक अजब सा नशा होता है,
सारा का सारा मदिरालय
क्या औकात रखता है ?
ग़रीब का स्वाभिमान..
इसका कोई मूल्य नही गिना जाता,
अगर कोई वेश्या को भोगे
तो उसे बलात्कार नही कहा जाता!
तन्हाई को
अक्सर भीड़ से घिरा पाती हूँ!
बहुत सुन्दर!! विस्तार घटा कर रचना को और प्रभावी बनाया जा सकता था।
*** राजीव रंजन प्रसाद
विपुल जी,
पहला सवाल- मधुशाला का इतना दर्द कहाँ से जान पाये?
मधुशाला की जुबानी आपने जैसे कितनी ही बन्द परतओं को खोल कर रख दिया ।
राजीव जी से इत्तफाक रखता हूं कि लम्बाई "कुछ दशमलव प्रतिशत" अधिक है, पर ये लम्बाई प्रवाह में कहीं भी बाधक नही बनती।
आपकी कलम समाज की भयावहता को बहुत ही साधारण तरीके से जी जाती है। जैसे कि ये पंक्तियाँ -
"अनब्याही बहन के भविष्य को
बदबू से भरने लगे हैं! "
रचनाधर्मिता ने मन मोह लिया ।
धन्यवाद,
आर्यमनु, उदयपुर ।
विपुल !
मधुशाला समाज के प्याले के पीछे छिपी सूरत को सबके सामने नंगा करती हुयी प्रतीत होती है . विशेष बात यह की इस प्रकार की सामजिक संवेदनात्मक काव्य का प्रयोग आप बहुत ही कम आयु में करने लगे हैं . सभी मित्रों ने सही कहा है कि अब आपकी कलम की धार निरंतर पैनी होती जा रही है . हाँ मेरे विचार से भी कविता बहुत लम्बी नहीं होनी चाहिए फ़िर भी यह लम्बापन खलता नहीं है अपितु आपने उसका सदुपयोग ही किया है
विपुल जी
बहुत ही नवीन कल्पना की है । कविता में एक कहानी डाल दी । कभी-कभी इस नज़र से भी देखना और
दिखाना चाहिए । कवि की नज़र बहुत पैनी होती है ना ? इतनी सूक्ष्म दृष्टि के लिए बधाई स्वीकारें । सस्नेह
प्रसंशनीय "मधुशाला" उचाव
उँची नज़र गहरा भाव
करता आज की
वस्तुस्थिति बे-नकाब..
दाद देता हूँ साब
गजब का लेखन
जनाब,
बेमोल बे हिसाब..
कहाँ हो आप..
कवि शिरोमणि
पुष्पे गुलाब.
विपुल भाईईईईईईई
बधाई हो बधाईईईई
विपुल जी,
ये आपके लेखन-कौशल ही है की लंबी होने के बावजूद पूरी कविता एक साँस में पढ़ गया।
ये कॉलेज के लड़के..
बाप ने लोन लिया है
तब फीस भरता है,
ट्यूशन के लिए मँगाए पैसों से
यहाँ मदिरपान होता है!
बाप ख़ुश है,अपने बेटे के लिए
अभावों को झेल रहा है
आपकी सूक्ष्म दृष्टि की दाद देता हुँ।
विपुल जी,
ऐसा लगता ही नहीं कि कोई इतनी कम उम्र में जीवन कि इन कड़वी सच्चाइयों का इतना अच्छा वर्णन कर सकता हैं....आपकी इस रचना के लिए जितनी प्रसंशा कि जाये उतनी कम हैं....छात्रो का उदाहरण बहुत सटीक हैं आजकल के परिवेश में.........आगे भी आपकी ऐसे ही रचनाओ की प्रतीक्षा में ...........
पारुल कापरी
विपुल जी,
आपकी प्रतिभा की जितनी प्रशंसा की जाये उतनी कम है...मधुशाला के माध्यम से आपने समाज में फैली कुरीतियों का बहुत ही मार्मिक चित्रण किया है,जो की अत्यन्त सराहनीय है...आपकी सबसे अच्छी बात यह है कि आपने मधुशाला में बुधिया का उदाहरण देकर बुधिया के पुराने प्रशंसको को नाराज़ नही किया...आपको मधुशाला के लिए बहुत-बहुत बधाई!!
आपकी रचनाओ की प्रतीक्षा में....
नेहा गुप्ता
कोई अछूत समझता है
तो कोई जन्नत मानता है,
कोई प्यार करता है
तो कोई नफ़रत से मुँह बनाता है !
अलग अलग इंसान यहाँ पीने आते हैं
मैं सबकी दोस्त हूँ
सब अपनी तकलीफ़े बताते हैं |
विपुल बहुत बहुत सुंदर लिखा है आपने
मधुशाला के दर्द को जिस तरह तुमने जिन्दगी की सच्चाई से जोडा है वह काबिले तारीफ है
अच्छा लगा इसको पढना ..शुभकामनायें
रंजू
विपुल जी,
मधुशाला का एक वास्तविक चेहरा...
जब कोई आँसू प्याले में गिरता है
तो एक अजब सा नशा होता है,
सारा का सारा मदिरालय
क्या औकात रखता है ?
ग़रीब का स्वाभिमान..
इसका कोई मूल्य नही गिना जाता,
अगर कोई वेश्या को भोगे
तो उसे बलात्कार नही कहा जाता!
जब शाम होती है
तो ग़म के इंतज़ार में,
सज-धज कर
तैयार हो जाती हूँ!
बहुत सुन्दर...
मन मोह लिया
इतनी पैनी नज़र के लिए
बधाई
first of all i`d like to congratulate u 4 the innovation of such a good poem. very realistic ,close to common ,awakening,unreaveling.every stanza has its own identity . The subject it self is critical .Anxiety of a students father,wife of a labour,budhiyas all have been picked up fascsinatingly.but it could have been far better if done in in tigtened & less words. but ur work is extremely good.I`m very much inspired by ur work.
vipul..............
achchi kavita hai.......
par kavy-ras ka abhav tha aur jo rajeev ji kah rahe hai uska karan bhi yahi ho sakta hai,,,,,,,
is karan se hi kavita lambi pratet ho rahi hai........
varnan kafi sajeev hai aur bimb bhi achche hai ..........
aur yahi nayi kavita ki jaan hai........
ek adbhut rachna ke liye badhaiyan....
विपुल जी ,
इस कविता के माध्यम से आपने मदिरा के करण लोगो की हो रही दशाओं का जो सजीव चित्रण किया है वो अद्भुत है ....मैं ख़ुद एक कॉलेज विद्यार्थी हूँ और अपने आस-पास कई ऐसे लड़को को जनता हूँ जो मदिरा के पीछे अपना तथा अपने परिवार के सपनो को तबाह कर रहे है .....इस कविता आलोचना का कहीं मौका नही देती ....कविता पढ़ते हुए मन व्याकुल हो उठा है .....बस ,,, और कुछ नही कह पाऊंगा ...
ये कॉलेज के लड़के..
बाप ने लोन लिया है
तब फीस भरता है,
ट्यूशन के लिए मँगाए पैसों से
यहाँ मदिरपान होता है!
बाप ख़ुश है,अपने बेटे के लिए
अभावों को झेल रहा है
अपनी छोटी छोटी ख़ुशियों को
क़ुरबान कर रहा है!
बेटे को चार हज़ार लगते हैं
वो देता है ,
पहले सिगरेट पिया करता था
अब बीडी से काम चलता है!
उसकी माँ अब शादियों में नही जा पाती है
कारण कि अपनी कोई भी साड़ी,
ठीक-ठाक सी नही पाती है!
अद्भुत चित्रण है ...
विपुल,
तुम तो पहली हीं पंक्ति से सम्मोहित कर लेते हो। आगे पढे बिना रहा हीं नहीं जाता।
मुझ पर महाकाव्य लिखे गये हैं
पोथे के पोथे पढ़े गये हैं ,
"मैं मधुशाला हूँ" कविता यथार्थ की मधुशाला का चित्रण करती है।किस तरह इसके पाश में आकर लोगों ने अपनी जिंदगी तबाह की है।गरीब से गरीब हो या अमीर से अमीर , सब की जिंदगी यहाँ आकर समान हीं हो जाती है। "बच्चन " साहब ने इसे सकारात्मक पक्ष माना था, लेकिन तुमने जिस तरह से इसमें नकारात्मकता दर्शायी है, दिल दहल जाता है।
बुधिया का वर्णन मीठे अनुभव देता है।( इस विषय पर तुम सीरिज निकाल कर हीं छोड़ोगे :) )
तुमसे आगे ऎसे हीं कविताओं की उम्मीद रहेगी। बधाई स्वीकारो। ( और कभी वक्त निकाल कर मेरी कविता पर भी टिप्पणी कर देना :) )
-विश्व दीपक 'तन्हा'
विपुल जी , कहते हैं जहाँ न पहुंचे रवि , वहाँ पहुंचे कवि !यह पंक्ति आप पर चरितार्थ होती है ! मुझे आश्चर्य है कि इतनी खूबसूरती से आप कोई भी विषय चुन कर उस पर इतने प्रभावपूर्ण तरीके से लिखते हैं कि पढने वाला मधुशाला गए बिना ही महसूस करने लगता है जैसे ये सब उसने अपनी आंखों से देखा हो ...! आपकी हर रचना बहुत प्रभावपूर्ण और सामाजिक बुराई को दर्शाती है !मुझे आपकी कविता का इंतज़ार रहता है ! इतनी अच्छी रचना के लिए बधाई स्वीकार करें !
बिपुल जी,
आपकी रचना की सबने तारीफ़ की है... अच्छी रचना है...परन्तु आप भी एक ही तरह के लेखन में न उलझें कुछ न कुछ परिवर्तन लायें. साथ ही बहुत से पक्षों को एक कविता में रखने से उसमें बिखराव आ जाता है.. एक थीम चुन कर उस पर अपनी शक्ति व कल्पना का जामा पहनायें... रचना अवश्य ही अनोखी होगी.. मुझे आप की क्षमता पर पूरा भरोसा है.
Vipul...man u rock....
i am studying alon with him in the college n beleive me he's too good at poetry......
it is as if he's been made for it and everything is so spontaneous ans so well linked like any other senior author...man you have a long way to go ahead......
keep rocking.....
vipul aapki kavita mujhe bahut achchi lagi aage bhi aese kavita likha kare
aasha karti hun
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