फुटपाथ पर जूठन खाकर लेटी एक औरत
और दूध माँगता उसका बच्चा जग-जगकर,
कानों में बरसता है मेरे पिघला लोहा,
जब शहर थिरकता रहता है डिस्को पर,
रोते-हँसते, खोए-डूबे सब सो जाते हैं,
मेरे सीने में क्या है कि मैं सो नहीं पाता?
आँखें बन्द, हाथ जोड़े पूजा के सब स्वर,
आकाश में बैठे मन्दिर, मस्ज़िद और गिरजाघर,
शांत रसोई, जूठे बरतन, खेलती देहरी, लड़ते आँगन,
दीदी, अम्मा, बाबूजी, दुनिया के सब घर,
झूठे-सच्चे, बूढ़े-बच्चे, सब सो जाते हैं,
मेरे सीने में क्या है कि मैं सो नहीं पाता?
बाज़ार में ललचाकर ज़िद करता बेचारा बच्चा,
थप्पड़ मारती बेबस माँ के आँसू भरे नयन,
आँसू भरे रूठते चेहरे, पूरे भरे टूटते चेहरे,
पुराने सपने, बिखरे जीवन, नई बारातें, दूल्हा-दुल्हन,
टूटे-बिखरे, छितरे-बिफरे सब सो जाते हैं,
मेरे सीने में क्या है कि मैं सो नहीं पाता?
नर्म बिस्तरों पर भूखे प्यासे बेताब बदन,
टूटे वादों के काँच पे चलते नंगे पाँव,
रेगिस्तान में भटक रहे शापित बंजारे,
तड़के जगकर हल में जुत जाते लाखों गाँव,
भूले-बिछड़े, इतने दुखड़े, सब सो जाते हैं,
मेरे सीने में क्या है कि मैं सो नहीं पाता?
उम्रकैद की सज़ा काटते इतने अपराधी,
रो-रोकर हँसते पागलखानों के सब पागल,
पत्थर के शहर, छलनी सीने और विरह के गीत,
एक लड़की और उसका माँ जैसा आँचल,
घुटते-मिटते, लुटते-पिटते सब सो जाते हैं,
मेरे सीने में क्या है कि मैं सो नहीं पाता?
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29 कविताप्रेमियों का कहना है :
नर्म बिस्तरों पर भूखे प्यासे बेताब बदन,
टूटे वादों के काँच पे चलते नंगे पाँव,
रेगिस्तान में भटक रहे शापित बंजारे,
तड़के जगकर हल में जुत जाते लाखों गाँव,
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बहुत बढिया पंक्तियां
दीपक भारतदीप
गौरव
...मेरे विचार से यह एक और अच्छी कविता हो सकती थी अगर शब्द स्फीति थोडी कम होती. इसका मतलब यह नहीं है कि यह अच्छी कविता नहीं है. यह एक ठीक कविता है. मुझे लगता है कि यह कविता मल्टीलेयर हो सकती थी...तब यह ज्यादा बेहतर होती.
नर्म बिस्तरों पर भूखे प्यासे बेताब बदन,
यहाँ "बेताब" का प्रयोग भी "अन्य अर्थों" को भी उत्पादित कर रहा है.
गौरव जी
बाज़ार में ललचाकर ज़िद करता बेचारा बच्चा,
थप्पड़ मारती बेबस माँ के आँसू भरे नयन,
आँसू भरे रूठते चेहरे, पूरे भरे टूटते चेहरे,
पुराने सपने, बिखरे जीवन, नई बारातें, दूल्हा-दुल्हन,
टूटे-बिखरे, छितरे-बिफरे सब सो जाते हैं,
मेरे सीने में क्या है कि मैं सो नहीं पाता
एक संवेदनशील और भावपरक कविता
शुभकामनायें
Gaurav , I just loved ur poem , mujhe bahut pasand aayi, tum sab logo kay dukh feel kar sakte ho , iske liye mai sure hu .....agar sab log apne neighbors kay needy people ka soche , tou koi dukhi nahi rahega...........aise hee likhte raho........Vijaya ( new york se ) ....dhanywaad ......
प्रिय गौरव
बहुत ही भावपूर्ण कविता है । अपने हृदय की इस तड़प को बनाए रखो । क्योंकि ऐसा सबके साथ नहीं होता ।
तुम्हे ईश्वर ने कुछ अलौकिक प्रतिभा प्रदान की है । कविता के साथ-साथ यदि कोई ऐसा काम जिस से कुछ
बदलाव आ सके किया जाना चाहिए । कविता तो केवल शाब्दिक संवेदना है । आशा है पाठक भी इस दिशा में
कुछ सार्थक करने का विचार बनाएँगे । एक जन चेतना उत्पन्न करने के लिए बधाई ।
गौरव,
तुम्हारी कविता पढते ही मन प्रसन्न हो गया। "मेरे सीने में क्या है कि मैं सो नहीं पाता?" यह भाव स्थापित कर पाने में तुम पूर्णत: सफल हुए हो और उन्हें कुरेदनें में भी, जिन्हें फिर भी नींद गहरी आती है। तुम्हारी कलम से स्वर कलात्मक हो कर निकले हैं:-
शांत रसोई, जूठे बरतन, खेलती देहरी, लड़ते आँगन,
दीदी, अम्मा, बाबूजी, दुनिया के सब घर,
झूठे-सच्चे, बूढ़े-बच्चे, सब सो जाते हैं,
मेरे सीने में क्या है कि मैं सो नहीं पाता?
आँसू भरे रूठते चेहरे, पूरे भरे टूटते चेहरे,
पुराने सपने, बिखरे जीवन, नई बारातें, दूल्हा-दुल्हन,
टूटे-बिखरे, छितरे-बिफरे सब सो जाते हैं,
मेरे सीने में क्या है कि मैं सो नहीं पाता?
तड़के जगकर हल में जुत जाते लाखों गाँव,
भूले-बिछड़े, इतने दुखड़े, सब सो जाते हैं,
मेरे सीने में क्या है कि मैं सो नहीं पाता?
बरबस ही बार बार पढने को जी करता है कि तुम्हारी संवेदना उद्वेलित कर रही है, तुम्हारे शब्द झकझोर रहे हैं और तुम्हारी अपनी मौलिकता उन सभी को तुम्हारी काव्यात्मक प्रतिभा से उत्तर भी दे रही है जिन्होंने तुम पर प्रशन उठाये....और उनमे एक मैं भी हूँ।
सबकुछ समेटा है तुमने, इस रचना में, और तुम्हारे शब्द मारक हैं। बिम्ब उत्कृष्ट। हिन्द-युग्म अपने गौरव पर एसे ही गर्व नहीं करता। बधाई।
*** राजीव रंजन प्रसाद
गौरव जी ,
कमाल की सम्वेदनशीलता, एक पूर्ण कविता जो समेटे है अथाह भाव, बिम्ब व यथार्थ..
मेरी शुभकामनायें
प्रिय सोलंकी जी
बहुत ख़ूब लिखा है, आपकी रचना तारीफ के काबिल है...
नर्म बिस्तरों पर भूखे प्यासे बेताब बदन,
टूटे वादों के काँच पे चलते नंगे पाँव,
रेगिस्तान में भटक रहे शापित बंजारे,
तड़के जगकर हल में जुत जाते लाखों गाँव,
भूले-बिछड़े, इतने दुखड़े, सब सो जाते हैं,
मेरे सीने में क्या है कि मैं सो नहीं पाता?
गौरव जी,
मन की बेकली आ सुन्दर उदाहरण दे कर वर्णन किया है आपने
aah!
गौरव जी!
रचना सुंदर है परंतु आपकी क्षमता को देखते हुये अभी सुधार की कुछ और गुंज़ाइश थी. फिर भी अपनी बात आप पाठकों तक प्रभावी ढंग से पहुँचाने में सफल हुये हैं. बधाई!
गौरव जी, दिल आपका सुंदर और भावुक जान पड़ता है तभी तो सबके दर्द से आप व्याकुल हो जाते हैं . एक बेहतरीन यथार्थपरक रचना .
बहुत ही सुंदर और भावुक कर देने वाली रचना है गौरव यह आपकी
अच्छा लगा इसको पढ़ना समझना !!
गौरव जी !
एक भावपूर्ण कविता .....
बाज़ार में ललचाकर ज़िद करता बेचारा बच्चा,
थप्पड़ मारती बेबस माँ के आँसू भरे नयन,
आँसू भरे रूठते चेहरे, पूरे भरे टूटते चेहरे,
पुराने सपने, बिखरे जीवन, नई बारातें, दूल्हा-दुल्हन,
टूटे-बिखरे, छितरे-बिफरे सब सो जाते हैं,
मेरे सीने में क्या है कि मैं सो नहीं पाता
सार्थक कविता......
बधाई
नर्म बिस्तरों पर भूखे प्यासे बेताब बदन,
टूटे वादों के काँच पे चलते नंगे पाँव,
रेगिस्तान में भटक रहे शापित बंजारे,
तड़के जगकर हल में जुत जाते लाखों गाँव,
भूले-बिछड़े, इतने दुखड़े, सब सो जाते हैं,
मेरे सीने में क्या है कि मैं सो नहीं पाता?
गौरव सीने की इस तड़प को सोने मत देना....
मेरे सीने में क्या है कि मैं सो नहीं पाता?
कानों में बरसता है मेरे पिघला लोहा,
आँसू भरे रूठते चेहरे, पूरे भरे टूटते चेहरे,
भूखे प्यासे बेताब बदन,
टूटे वादों के काँच पे चलते नंगे पाँव,
उम्रकैद की सज़ा काटते इतने अपराधी,
टूटे-बिखरे, छितरे-बिफरे सब सो जाते हैं,
घुटते-मिटते, लुटते-पिटते सब सो जाते हैं,
मेरे सीने में क्या है कि मैं सो नहीं पाता?
ye panktiyan marmsparshi hen..achi kavita he..badhaai
sunita
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