जागती आँखें भी देखती हैं सपना
ख्वाबों की लम्बी फेहरिस्त से
नींद का पता नहीं चलता
लाख देखे हों किसी ने जख्म लेकिन
बिन फटे अपने पैर में बिबाई
दर्द का पता नहीं चलता
अपनों की भीड़ का क्या गुमाँ करना
वक़्ते-नाजुक जिन्दगी में आये बिना
रिश्तों का पता नहीं चलता
रोजमर्रा की जिन्दगी नहीं भाती सबको
जब तलक गम से न हो रूबरू आदमी
खुशी का पता नहीं चलता
दूर से हर मँजर दिलकश नजर आता है
बिन छुये चाँद को कभी उसकी
तपिश का पता नहीं चलता
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
मोहिन्दर जी!!
बढिया लगी आपकी रचना...हकीकत बयान करती है ये नज़म......
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जागती आँखें भी देखती हैं सपना
ख्वाबों की लम्बी फेहरिस्त से
नींद का पता नहीं चलता
लाख देखे हों किसी ने जख्म लेकिन .
बिन फटे अपने पैर में बिबाई
दर्द का पता नहीं चलता
दूर से हर मँजर दिलकश नजर आता है
बिन छुये चाँद को कभी उसकी
तपिश का पता नहीं चलता
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शुभकामनायें!!!
अपनों की भीड़ का क्या गुमाँ करना
वक़्ते-नाजुक जिन्दगी में आये बिना
रिश्तों का पता नहीं चलता
बहुत ख़ूब लिखा है आपने
यही आज कल की सच्चाई भी है-
इसलिए हर अपना भी अक्सर बेगाना लगता है-
जाना पहचाना हर शख्स भी अनजाना लगता है-------
बधाई
मोहिंदर जी , आपकी कविता मात्र सुंदर और रचनात्मक ही नही है ...बल्कि यह जीवन के यथार्थ को भी दर्शाती है ....साथ ही मुझे आपके द्वारा चुनी हुई तस्वीर जो आकाश तथा धरती के मेल को दर्शाती है काफी अच्छी लगी...आशा है कि आगे भी हमे इसी प्रकार की सुंदर रचनाये पड़ने को मिलेंगी .....
दूर से हर मँजर दिलकश नजर आता है
बिन छुये चाँद को कभी उसकी
तपिश का पता नहीं चलता...
बहुत खूब मोहिंदर जी ....सुंदर है नज़्म और चित्र भी बहुत सुंदर लगा बधाई !!
बन्धुवर
मोहिंदर जी
बड़ी ही प्यारी नज़म है
विशेषकर ये पंक्तियां
लाख देखे हों किसी ने जख्म लेकिन
बिन फटे अपने पैर में बिबाई
दर्द का पता नहीं चलता
अपनों की भीड़ का क्या गुमाँ करना
वक़्ते-नाजुक जिन्दगी में आये बिना
रिश्तों का पता नहीं चलता
बहुत बहुत शुभकामनायें
गहरी है आपकी रचना इतनी
कि थाह का पता नहीं चलता
...
*** राजीव रंजन प्रसाद
मोहिन्दर जी,
बहुत सुन्दर!!बरबस मुँह से वाह-वाह निकलता है।
जागती आँखें भी देखती हैं सपना
ख्वाबों की लम्बी फेहरिस्त से
नींद का पता नहीं चलता
लाख देखे हों किसी ने जख्म लेकिन
बिन फटे अपने पैर में बिबाई
दर्द का पता नहीं चलता
अपनों की भीड़ का क्या गुमाँ करना
वक़्ते-नाजुक जिन्दगी में आये बिना
रिश्तों का पता नहीं चलता
सच को इतने सुन्दर साँचे मे ढालकर प्रस्तुत करने के लिए बधाई।
मोहिन्दर जी
पता नहीं क्यूँ मुझे काव्यानन्द प्राप्त नहीं हुआ । रचना सबको पसन्द आई है तो निश्चित ही अच्छी होगी ।
बढ़िया ख्याल है, मोहिन्दर भाई.
मोहिन्दर जी!
भाव बहुत अच्छे हैं, मगर रचना काव्य से ज़्यादा गद्य प्रतीत हुई.
रोजमर्रा की जिन्दगी नहीं भाती सबको
जब तलक गम से न हो रूबरू आदमी
खुशी का पता नहीं चलता
दूर से हर मँजर दिलकश नजर आता है
बिन छुये चाँद को कभी उसकी
तपिश का पता नहीं चलता
बहुत खूबसूरत सोच है मोहिन्दर जी और सच भी । अच्छी लगी ।
- सीमा कुमार
मोहिंदर जी आपकी रचना का चित्र बहुत दिलकश लगा !बधाई स्वीकार करें !अति संवेदनशील रचना !
अपनों की भीड़ का क्या गुमान करना
वक्त-ऐ -नाज़ुक ज़िन्दगी में आए बिना
रिश्तों का पता नहीं चलता
मार्मिक सच को दर्शाती एक अच्छी कविता !
मोहिन्दर जी,
बेहतरीन भाव के आप तो स्वामी है, इसलिए इस बारे में कुछ कहना मैं लाजिमी नहीं समझता। बस एक जिज्ञासा है- अगर आपकी यह कविता "नई कविता" के अंतर्गत आती है, तब तो शिल्प की कमी का प्रश्न नहीं उठता, लेकिन अगर आपने इसे नज़्म या गज़ल बनाना चाहा था, तो यह सिर्फ गद्य बनकर रह गई है। आपसे आग्रह है कि आप इस ओर ध्यान दें।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
मोहिंदर जी देरी के लिए माफ़ी चाहूँगा, नज़्म युग्म पर बहुत कम पढने को मिलती है, आपकी नज़्म पूरी तरह से मीटर में हैं और बहुत बहुत अच्छी भी -
लाख देखे हों किसी ने जख्म लेकिन
बिन फटे अपने पैर में बिबाई
दर्द का पता नहीं चलता
क्या बात है, मोहिंदर जी आपको पढ़कर बहुत मज़ा आया
यह नज़म अलग-अलग वाक्यांशों का गुच्छा कही जा सकती है। यह सब जल्दीबाज़ी के नतीज़े हैं। शब्दों की भलीभाँति काँट-छाँट होनी चाहिए।
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