कानों में बारूद डाल विस्फोट करूँगा
आहत हो, बेदर्द मगर मैं चोट करूँगा॥
दरिया का पानी घाटी गहरा करता है,
किंतु किनारे वहीं काटता जहाँ जमीं समतल है
गरज गरज कर मेघ मरुस्थल से कहते हैं
जंगल सदा बहार देख कर हम झरते हैं
करवट देखी, ऊँट कहाँ लेटा फिर बैठे,
भीड़ बना कर, भेड़ साथ मिल कर चरते हैं
रंगे सियारों की बस्ती में बकरी बोली,
मै हूँ जिंटलमैन नाम मैं “गोट” करूँगा ।
कानों में बारूद डाल विस्फोट करूँगा
आहत हो, बेदर्द मगर मैं चोट करूँगा॥
खरगोशों के दाँत गिनो और “भरत” कहा लो
लोहे फेंको, चने रखे हैं, वही चबा लो
बीच सड़क पर हिजड़े ताली पीट रहे हैं
सौ रुपये का नोट खरच कर खूब दुआ लो
भूखे रह कर भजन करोगे, हे गोपाला!!
व्रत रक्खो, फल खाओ, छककर मालपुआ लो
दुश्सासन जन नायक है बोला, दुस्साहस
गाँधी के तीनों बंदर की ओट करुँगा ।
कानों में बारूद डाल विस्फोट करूँगा
आहत हो, बेदर्द मगर मै चोट करूँगा॥
अगर सोच के हाथों भर भर चूड़ी डालो
हर जलसे में उसे रिसेप्शन थमा सकोगे
मछली जल की रानी है, सो पानी रखना
अगर शिराओं ही में सारा, बहा न दोगे
पैरों में पाजेब डाल कर भांड़ नाचते
जनरेशन है नयी, सबेरों कहाँ छुपोगे?
टेढ़ा आँगन, टूटी है दीवार, खुली छत
दारू की इक बोतल पर मैं वोट करूँगा
कानों में बारूद डाल विस्फोट करूँगा
आहत हो, बेदर्द मगर मैं चोट करूँगा॥
परबत के सीने से सोते फूट पड़ेंगे
तन कर बंद हुई एक मुट्ठी ही काफी है
अंगारों पर चलने वाले जादूगर हैं
खान कोयले की, केवल चिनगी काफी है
जड़ की बातें जड़ करती हैं गुलशन मेरे
नयी सोच है, अब गुल की टहनी काफी है
एक परिंदा पत्थर ले कर उड़ा जा रहा
कहता है सूराख आसमा में कर दूँगा
कानों में बारूद डाल विस्फोट करूँगा
आहत हो, बेदर्द मगर मैं चोट करूँगा॥
*** राजीव रंजन प्रसाद
29.09.2007
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20 कविताप्रेमियों का कहना है :
कानों में बारुद ड़ाल विस्फोट करुंगा
आहत हो, बेदर्द मगर मै चोट करुंगा॥
-ओजस्वी और उम्दा विचार है, अनेकों शुभकामनायें एवं बधाई, राजीव भाई. जारी रहो ऐसे ही.
राजीव जी
बहुत ही ओज पूर्ण रचना है । एक कवि का सच्चा आक्रोष उभर कर सामने आया है । प्रभावित किया है आपके स्वर ने । कवि कर्म का खूब निर्वाह किया है । आपको अधिकार है कि आप समाज को जगाने के लिए
बारूद का भी उपयोग कदरिया का पानी घाटी गहरा करता है,
किंतु किनारे वहीं काटता जहाँ जमीं समतल है
गरज गरज कर मेघ मरुस्थल से कहते हैं
जंगल सदा बहार देख कर हम झरते हैं
करवट देखी, उँट कहाँ लेटा फिर बैठे,
भीड़ बना कर, भेड़ साथ मिल कर चरते हैं
रंगे सियारों की बस्ती में बकरी बोली,
मै हूँ जिंटलमैन नाम मैं “गोट” करुंगा ।
रें । एक सशक्त रचना के लिए बधाई
कहीं-कहीं विचारों के आवेश में प्रवाह कुछ कम हुआ है ।
u should read some good contemporary hindi poets.....it will hone ur sills even more....nd plz try using newer phrases...
rajeev जी इस बार आपने सभी shikayaton को दूर कर दिया, सधी हुई रचना, मुहावरों का जैसे आपने इस्तेमाल किया है लाजवाब है, हर अंतरा पहली दो पक्तियों को और सशक्त कर देता है, उत्कृष्ट रचना, एक कवि की taqat को pukhta रूप से रखता हुआ, यही रूप है आपका, विशिष्ट असरदार, और शब्द शब्द में प्रहार , बहुत बहुत बधाई आपको
राजीव जी,
आपने आज की परिस्थियों पर मन के आक्रोश को बहुत ही सुन्दर शब्दों में ढाला है,
निम्न पंकितियां मुझे बहुत भायी.
गरज गरज कर मेघ मरुस्थल से कहते हैं
जंगल सदा बहार देख कर हम झरते हैं
टेढ़ा आँगन, टूटी है दीवार, खुली छत
दारु की इक बोतल पर मैं वोट करुंगा
जड़ की बातें जड़ करती हैं गुलशन मेरे
नयी सोच है, अब गुल की टहनी काफी है
एक परिंदा पत्थर ले कर उडा जा रहा
कहता है सूराख आसमा में कर दूंगा
""कानों में बारुद ड़ाल विस्फोट करुंगा
आहत हो, बेदर्द मगर मै चोट करुंगा॥""
राजीव जी!!!
बहुत ही अच्छी रचना है...हर पंक्ति अच्छी है...भाव की अभिव्यक्ति बहुत ही अच्छी हुई है....
बधाई!!
राजीव जी,
एक सशक्त रचना
कानों में बारुद ड़ाल विस्फोट करुंगा
आहत हो, बेदर्द मगर मै चोट करुंगा॥
वही मारक शैली......बहुत खूब......कई विषयों पर तीखा व्यंग्य....फिर से अन्तर्मन को झकझोर देने वाली रचना.....
वही आक्रोश,वही तपते तवे जैसे तपते तेवर....अरे बाबा....इतनी तेज ज्वाला लेकर चलते हो.....झुलस ना जाना......
खान कोयले की, केवल चिनगी काफी है
जड़ की बातें जड़ करती हैं गुलशन मेरे
नयी सोच है, अब गुल की टहनी काफी है
एक परिंदा पत्थर ले कर उडा जा रहा
कहता है सूराख आसमा में कर दूंगा
कल के कर्णधार.... युवा वर्ग के प्रति आपकी आस्था....मुझे अच्छी लगी..
आभार
बधाई,
स-स्नेह
गीता पण्डित
दरिया का पानी घाटी गहरा करता है,
किंतु किनारे वहीं काटता जहाँ जमीं समतल है
-शुरू की यह दो पंक्तियोही आगे की कविता का चरित्र देखा देती हैं ,बहुत सारी व्याख्या छुपी है आप की कविता मॆं-
ऐसा लगता है जैसे सारा आक्रोश कुछ पंक्तियों में सिमटने की कोशिश कर रहा हो -
बधाई एक जोश भरी रचना के लिए-
rajeev ranjan जी , आपकी कविता कि शेली काफी ओज पूर्ण है jisme मन और मस्तिष्क दोनो को ही झजकोरने कि छमता है ...यह हमे एक संदेश देती है कि हमे हर paristithiyon का मुक़ाबला himmat से करना chaiye '' कानों में बारूद डाल विस्फोट करूँगाआहत हो, बेदर्द मगर मै चोट करूँगा॥''.....vastav mai sarahniye pryas hai...
बहुत ही जोश वाली और एक पुकार सी लगी आपकी यह रचना राजीव जी
जड़ की बातें जड़ करती हैं गुलशन मेरे
नयी सोच है, अब गुल की टहनी काफी है
एक परिंदा पत्थर ले कर उड़ा जा रहा
कहता है सूराख आसमा में कर दूँगा
बहुत ख़ूब ....सशक्त रचना के लिए बधाई !!
राजीव जी
कानों में बारूद डाल विस्फोट करूँगा
आहत हो, बेदर्द मगर मैं चोट करूँगा॥
खरगोशों के दाँत गिनो और “भरत” कहा लो
लोहे फेंको, चने रखे हैं, वही चबा लो
बहुत ही ओज के साथ एक एक छन्द बहरे कानों पर हथौड़े की चोट करने में सक्षम। झकझोर देने वाली रचना है। राजसत्ता के मद में चूर क्षुद्र स्वार्थी राजनीतिकों के कानों को इस कविता में भगतसिंह के शब्दों की अनुगूंज सुनायी देनी चाहिये। बहुत बहुत शुभकामनायें
राजीव जी,
शिल्प के स्तर पर आपकी आलोचना होनी चाहिए। पिछले २-३ गीतों में आप कहीं न कहीं प्रवाह तोड़ रहे हैं, शायद यह आपकी व्यस्तता की वज़ह से हो, क्योंकि मैं इसे बहुत बड़ी समस्या नहीं मानता, हाँ अभ्यास ज़रूरी हो जाता है। आपने इस गीत में मुहावरों को सुंदर चित्रात्मकता प्रदान की है। लेकिन पहले छंद में यहाँ
दरिया का पानी घाटी गहरा करता है,
किंतु किनारे वहीं काटता जहाँ जमीं समतल है
और अंतिम छंद में यहाँ-
एक परिंदा पत्थर ले कर उड़ा जा रहा
कहता है सूराख आसमा में कर दूँगा
जो तारतम्य लेकर आप चले हैं, वो खंडित हुआ है। कृपया ध्यान दें।
राजीव जी,
बेहद सशक्त प्रस्तुति! रचना की ओजपूर्ण शैली किञ्चित प्रवाहभंग को खटकने नही देती।
कानों में बारूद डाल विस्फोट करूँगा
आहत हो, बेदर्द मगर मैं चोट करूँगा॥
खरगोशों के दाँत गिनो और “भरत” कहा लो
लोहे फेंको, चने रखे हैं, वही चबा लो
बीच सड़क पर हिजड़े ताली पीट रहे हैं
सौ रुपये का नोट खरच कर खूब दुआ लो
टेढ़ा आँगन, टूटी है दीवार, खुली छत
दारू की इक बोतल पर मैं वोट करूँगा
ये पंक्तियाँ काफ़ी असरदार हैं।
राजीव जी,
कवि का आक्रोश कविता में उभरकर आया है । कवि जब भी हृदय से लिखता है , तो इतनी ही उम्दा कविता बनती है । शैलेश जी की बातों पर ध्यान दें , पर आप स्वयं शिल्प के महारथी हैं ।
दिनकर जी की पंक्तियाँ :
प्रत्यय किसी बूढ़े कुटिलनीतिज्ञ के व्यवहार का
जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है ।
राजीव जी आपकी कविता हमेशा ही दिमाग़ पर सीधे चोट करती है | एक कवि का जो कर्तव्य होता है उसे आप बख़ूबी निभाते चले आ रहे हैं |
" साहित्य समाज का दर्पण होता है" यह उक्ती आपकी कविताओं को पढ़कर बिल्कुल सत्य जान पड़ती है |
कविता अपनी बात पूरी तीव्रता से कहती है ..
"खरगोशों के दाँत गिनो और “भरत” कहा लो
लोहे फेंको, चने रखे हैं, वही चबा लो
बीच सड़क पर हिजड़े ताली पीट रहे हैं
सौ रुपये का नोट खरच कर खूब दुआ लो"
वाह...
वैसे शैलेश जी की बात से मैं भी सहमत हूँ... प्रवाह में कमी स्पष्ट झलक रही है | ऐसी कमी आपकी रचनाओं में अच्छी नहीं लगती ...
सुंदर रचना के लिए बधाई...
परबत के सीने से सोते फूट पड़ेंगे
तन कर बंद हुई एक मुट्ठी ही काफी है
अंगारों पर चलने वाले जादूगर हैं
खान कोयले की, केवल चिनगी काफी है
जड़ की बातें जड़ करती हैं गुलशन मेरे
नयी सोच है, अब गुल की टहनी काफी है
एक परिंदा पत्थर ले कर उड़ा जा रहा
कहता है सूराख आसमा में कर दूँगा
कानों में बारूद डाल विस्फोट करूँगा
आहत हो, बेदर्द मगर मैं चोट करूँगा॥
वैसे तो पुरी कविता ही शानदार थी लेकिन इनका अंत और भी शानदार था.......अंत भला तो सब भला.........ये पंक्तियां मुझे काफ़ी अच्छी लगी
राजीव जीं,
क्या हो गया है आपको....आप तो "पगलाते" जा रहे हैं....व्यवस्था में विराजमान "बुद्धिजीवी' आपकी कविता का खाद बनते जा रहे हैं....
कहीँ ये पारी वही से तो शुरू नही, जहा पिछली बार छोड़ा था
"आहत हो, बेदर्द मगर मै चोट करुंगा॥"
खैर,
रंगे सियारों की बस्ती में बकरी बोली,
मै हूँ जिंटलमैन नाम मैं “गोट” करुंगा ।
इसमे अगर पहली पंक्ति में "बकरा" कर लेते तो भी अपके भाव नही मरते और लिंग भी सुधर जाता..
"खरगोशों के दाँत गिनो और “भरत” कहा लो
लोहे फेंको, चने रखे हैं, वही चबा लो"
"दुश्सासन जन नायक है बोला, दुस्साहस....."
ये किसकी तरफ़ इशारा है??? वैसे, अच्छा है और ज़रूरी भी...
आगे प्रवाह तो अच्छा है, मगर कुछ शब्द jabardasti dalne पड़े हैं...खैर, कविता और nikhri ही है....
अपने tevar ekaaek बदलने के लिए saadhuvaad....ummid है आपके क्रांति की लौ ज्वाला bankar bhadkegi....मैं साथ hun...
nikhil anand गिरि
राजीव जी!
इतनी टिप्पणियों के बाद; अब मैं जो कुछ कहूँगा, पुनरावृति ही होगा. और सुधार की आशा के साथ, एक अच्छी रचना के लिये बधाई!
राजीव जी,
मैं आपका शुक्रगुजार हूँ कि जो आपने मुझसे कहा था, उसपर आपने अमल नहीं किया। अन्यथा , हम आपकी इस कविता से वंचित रह जाते। पूर जोश औ' खरोश के साथ आपका आना पाठकों को बहुत हीं भाता है।
कुछ पंक्तियाँ जो दिल को छू गईं-
कानों में बारूद डाल विस्फोट करूँगा
आहत हो, बेदर्द मगर मैं चोट करूँगा॥
खरगोशों के दाँत गिनो और “भरत” कहा लो
लोहे फेंको, चने रखे हैं, वही चबा लो
बीच सड़क पर हिजड़े ताली पीट रहे हैं
सौ रुपये का नोट खरच कर खूब दुआ लो
दुश्सासन जन नायक है बोला, दुस्साहस
गाँधी के तीनों बंदर की ओट करुँगा ।
मछली जल की रानी है, सो पानी रखना
अगर शिराओं ही में सारा, बहा न दोगे
परबत के सीने से सोते फूट पड़ेंगे
तन कर बंद हुई एक मुट्ठी ही काफी है
कुछ मित्रों ने जो शिल्प की बात की है, वो मुझे बस एक हीं जगह खटकी है-
एक परिंदा पत्थर ले कर उड़ा जा रहा
कहता है सूराख आसमा में कर दूँगा
इस पंक्ति पर पुन: ध्यान देंगे-
विश्व दीपक 'तन्हा'
बहुत अच्छी और सच्ची रचना।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)