धूप आने दो हमारे पास
सूरज है हमारा भी
तुम हमारी ही जड़ों से
ख़ाद पानी चूस कर
इतरा रहे हो ?
दर्प की हर शाख से
हमको कुचलते जा रहे हो
और कितने झोपड़ों को
यों उजाड़ोगे.. ....?
'सत्तासुन्दरी' का साथ पाने के लिये…
महल आलीशान की हर नींव में
है दबा कोई हमारा भी
धूप आने दो हमारे पास
सूरज है हमारा भी
बाढ़ या सूखा
हमें ही उजड़ना क्यों है
मगरमच्छी आंसुओं में
हर बार हमको डूबना क्यों है
स्वर्ग वासी नियामक
हम 'स्वर्गवासी' हैं
'दूरदर्शन' महाप्रिय प्रभु
दर्शन दूर से ही दो
बन्द मुट्ठी में हवा है
अरे उसको छोड़ दो
आपके इस कुटिल सत्ता खेल में
घर उजड़ता है हमारा भी
धूप आने दो हमारे पास
सूरज है हमारा भी
आस्था के सेतु को
कौटिल्यता से छोड़ दो
युगों से ‘जाग्रत-धरा’ की
‘भावना’ को छोड़ दो
हर न्याय के उपहास को
अपने लिये अब छोड़ दो
अन्यथा…
तूफान आने दो हमारे पास
यौवन है हमारा भी
धूप आने दो हमारे पास
सूरज है हमारा भी।
श्रीकान्त मिश्र 'कान्त'
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
15 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत सुंदर भावो से सजी है यह रचना श्रीकांत जी ...यह पंक्तियां बहुत अच्छी लगी ..
आस्था के सेतु को
कौटिल्यता से छोड़ दो
युगों से ‘जाग्रत-धरा’ की
‘भावना’ को छोड़ दो
हर न्याय के उपहास को
अपने लिये अब छोड़ दो
अन्यथा…
तूफान आने दो हमारे पास
यौवन है हमारा भी
धूप आने दो हमारे पास
सूरज है हमारा भी.
बधाई सुंदर रचना के लिए
आदरणीय श्रीकांत जी,
"धूप आने दो हमारे पास
सूरज है हमारा भी"
यह विचार ही सोच को दिशा देता है।..और जितने प्रश्न आपने खडे किये हैं वह व्यवस्था की नींव पर कुठार चलाने में सक्षम हैं। और अंतिम पंक्तियाँ तूफान को आगाह करने में सक्षम हैं:
तूफान आने दो हमारे पास
यौवन है हमारा भी
धूप आने दो हमारे पास
सूरज है हमारा भी.
*** राजीव रंजन प्रसाद
"धूप आने दो हमारे पास
सूरज है हमारा भी"
*******
"तूफान आने दो हमारे पास
यौवन है हमारा भी"
श्रीकान्त जी, सुगमतापूर्वक आप अपनी बात कह पाने में सफ़ल रहे हैं इस कविता में। जन-सामान्य के स्वर को शब्द देने के लिए साधुवाद।
श्रीकान्त जी
बहुत ही अच्छी कविता लिखी है आपने । एक- एक शब्द अर्थपूर्ण और प्रभावपूर्ण है । इतनी मीठी मार
व्यवस्था को शायद ही कोई दे पाए । ओजस्विता और विनम्रता दोनो एक साथ आगई हैं ।
आस्था के सेतु को
कौटिल्यता से छोड़ दो
युगों से ‘जाग्रत-धरा’ की
‘भावना’ को छोड़ दो
हर न्याय के उपहास को
अपने लिये अब छोड़ दो
अन्यथा…
तूफान आने दो हमारे पास
यौवन है हमारा भी
धूप आने दो हमारे पास
सूरज है हमारा भी.
एक सशक्त रचना के लिए बधाई ।
श्रीकांत जी,
'सत्तासुन्दरी' का साथ पाने के लिये…
महल आलीशान की हर नींव में
है दबा कोई हमारा भी
धूप आने दो हमारे पास
सूरज है हमारा भी
आस्था के सेतु को
कौटिल्यता से छोड़ दो
युगों से ‘जाग्रत-धरा’ की
‘भावना’ को छोड़ दो
हर न्याय के उपहास को
अपने लिये अब छोड़ दो
अन्यथा…
तूफान आने दो हमारे पास
यौवन है हमारा भी
एक परिपक्व सोच को आपने लफ्जों का जामा बडी ही खूबसूरती से पहनाया है.
आज जब सारा संसार महात्मा गाधीं के जन्मदिन को विश्व अहिसां दिवस के रूप में मना रहा है, मैं सुबह से ही उत्सुक था। उठकर समाचार पत्र में गाधीं विचार पढकर मैं सीधा हिन्द युग्म पर पहुंचा। परन्तु यहां बापू से सम्बधित कोई भी रचना ना पाकर मैंने सोचा कि शायद कुछ समय बाद यह आ जाएगी परन्तु अब तो रात होने को आई है लेकिन युग्म के माननीय कवियों के पास बापू के लिए कुछ नहीं था।शायद मैंने ही व्यर्थ में युग्म से आशाएं बांध ली थी। परन्तु दससे युग्म के प्रति मेरी आस्था ध्वस्त हुई है।
अलविदा युग्म!
श्रिकांत जी!!
बहुत बढिया लिखा है...बहुत ही भावपूर्ण रचना है..सटिक शब्दों का प्रयोग किया है आपने...
**********************************
धूप आने दो हमारे पास
सूरज है हमारा भी
'सत्तासुन्दरी' का साथ पाने के लिये…
महल आलीशान की हर नींव में
है दबा कोई हमारा भी
मगरमच्छी आंसुओं में
हर बार हमको डूबना क्यों है
स्वर्ग वासी नियामक
हम 'स्वर्गवासी' हैं
आस्था के सेतु को
कौटिल्यता से छोड़ दो
युगों से ‘जाग्रत-धरा’ की
‘भावना’ को छोड़ दो
हर न्याय के उपहास को
अपने लिये अब छोड़ दो
अन्यथा...
'सत्तासुन्दरी' का साथ पाने के लिये…
महल आलीशान की हर नींव में
है दबा कोई हमारा भी''
डेमोक्रेटिक कहे जाने वाले गाँधी के इस भारत देश में आज भी एक आम आदमी अपने हक और अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है-- आज की राजनीति को भी सही चित्रित करती हुई आप की कविता यथार्थ के बहुत करीब है -बधाई !
- अल्पना वर्मा
सुनिल डोगरा जालिम जी,
दु:ख के साथ मुझे स्पष्टीकरण जारी करना पड रहा है।
युग्म नें गाँधी जयंति "बाल-उद्यान" स्तंभ पर मनायी है और पूरे जोर शोर से मनायी है। बच्चे ही आधार स्तंभ है और कल के भारत की आशा और इस लिये हमें यही उचित लगा कि जयंति के फीचर्स और रचनायें वहाँ प्रकाशित की जायें। श्री तुषार जी की कहानी और श्री रजनीश जी की दो दो कविताओं के साथ हमने नयी पीढी मे लिये गाँधी जी की विचार धारा प्रस्तुत किया है और सम्मान दिया है।
युग्म का अर्थ केवल "कविता" भाग ही नहीं इसमें अन्य स्तंभ भी हैं और आपसे अनुरोध है कि उसे भी पढ कर रचनाकारों का उत्साह अवश्य बढायें।
आपने व्यर्थ युग्म से आशा नहीं बाँधी, अपितु आपने केवल कविता सेक्शन तक ही युग्म के विस्तार को सीमित मान लिया। कई बार कवि श्लिष्ट भी हो जाता है। जब कवि गाँधी जयंति पर युग्म में प्रकाशित कविता में कहता है कि:
दुश्सासन जन नायक है बोला, दुस्साहस
गाँधी के तीनों बंदर की ओट करुंगा ।
वहाँ आदरणीय बापू के लिये सम्मान भी है। कृपया अपनी आस्थायें इतनी शीघ्र ध्वस्त न करें आपसे यह अपेक्षा है।
(मित्रों इस सेक्शन में कविता पर ही चर्चा हो यह आवश्यक है। ज़ालिम जी की टिप्पणी महत्वपूर्ण थी अत: यहाँ स्पष्टीकरण देते हुए मैं युग्म के तकनीकी बंधुओं से आग्रह करना चाह्ता हूँ कि एसा कॉलम जनरेट करने की आवश्यकता आन पडी है जहाँ इस प्रकार के विचार और युग्म को किस दिशा में ले जाया जाये इस संदर्भ में पाठकों के विचार संग्रहित हो सकें)
अंत में, जालिम जी श्रीकांत जी की कविता पर आपकी टिप्पणी अभी प्रतीक्षित ही है।
प्रतीक्षारत,
*** राजीव रंजन प्रसाद
श्रीकांत जी ,आपकी कविता गम्भीर ,विचारशील और सशक्त कविता है हर एक पंक्ति गूढ़ है कटु सत्य को सुंदर तरीके से दर्शाया गया है !आप बढ़ायी के पात्र हैं !
सर्वप्रथम राजीव जी एवं हिन्दयुग्म से पूर्व में की गई अपनी टिप्पणी के लिए क्षमा प्रार्थी हूं। सच पूछिए तो कभी आभास ही नहीं हुआ कि कविता विभाग के अलावा भी युग्म का कॊई दूसरा अंग है। यही कारण रहा कि मैं युग्म की निष्पक्षता एवं बापू के प्रति सम्मान को जानने से कुछ समय के लिए अपरिचित रह गया था परन्तु भविष्य में ऎसा ना हो इसके लिए मैं सजग रहूंगा साथ ही पुनः क्षमा चाहता हूं।
जहां तक श्रीकातं जी की कविता की बात है तो यह इतने सुन्दर ढंग से लिखी गई है कि मानो मोती उमडे पडें हैं।
********* सुनील डोगरा जालिम*******
हर न्याय के उपहास को
अपने लिये अब छोड़ दो
अन्यथा…
तूफान आने दो हमारे पास
यौवन है हमारा भी
धूप आने दो हमारे पास
सूरज है हमारा भी.
कांत जी, सच्चाई और दर्द बयां करती इस कविता के प्रकाशन का आपने जो दिन चुना है , वह बहुत हीं सही है। गाँधी जयंती के अवसर पर आपने गाँधी जी के सबसे प्रिय लोगों (सामान्य जन) की पीड़ा को आपने बखूबी लेखनी दी है। इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
सशक्त रचना श्रीकांत जी कहीँ कहीँ "लाल झंडे" के आरंभिक तेवर यहाँ नज़र आते हैं
राजीव जी
मैं सुनील डोगरा जी से सहमत हूँ । मुझे भी कुछ यही लगा था । आपने जो स्पष्टीकरण दिया वह
काफ़ी नहीं । एक राष्ट्रीय दिवस को हम अपने मुख्य पृष्ठ पर भूल जाते हैं ? भविष्य में इस बात पर
ध्यान अवश्य जाना चाहिए । यह बात विवाद के लिए नहीं कह रही केवल सुधार के लिए कह रही हूँ ।
कृपया अन्यथा ना लें ।
जहाँ कविताओं से प्रवाह गायब होता जा रहा है, वैसे भी आपकी यह जोश भरी रचना नई कविता होते हुए भी प्रवाहमयी है। कुछ उपमाएँ ध्यान आकृष्ट करती हैं-
स्वर्ग वासी नियामक
हम 'स्वर्गवासी' हैं
'दूरदर्शन' महाप्रिय प्रभु
दर्शन दूर से ही दो
शेष कविता साधारण है, यद्यपि अंत बहुत पसंद आया।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)