क्या प्यार का मौसम था कितना तड़पे थे हम।
मेरे सीने में ग़म तेरे भी दिल में ग़म।।
क्या अश्क की बारिश थी उन चाँदनी रातों में।
तेरी पलकें भीगीं मेरी भी आँखें नम।।
जाते-जाते तेरा मुड़कर पीछे तकना।
तुम भी बिल्कुल बेबस मैं भी एकदम बेदम।।
दिल-ए-जन्नत की अब तक है हूर तू ही जानम।
अब तक तो ना हो पाया रत्ती भर प्यार ये कम।।
ग़र देखना चाहो तुम क्या चीज है दिलदारी।
इक मौका दो मुझको फिर देखती जाना तुम।।
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8 कविताप्रेमियों का कहना है :
पंकज जी,
मुझे उम्मीद है इस गज़ल से अभी आप संतुष्ट नहीं होगे, आपका समय इस गज़ल को चाहिये। यद्यपि संवेदनाओं के स्तत पर आपका यह प्रस्तुतिकरण अच्छा है।
क्या अश्क की बारिश थी उन चाँदनी रातों में।
तेरी पलकें भीगीं मेरी भी आँखें नम।।
*** राजीव रंजन प्रसाद
पंकज जी
गज़ल कुछ खोखली सी लगी । प्रेम पर यदि लिखना हो तो उसमें गम्भीरता लाओ । यह तो छिछोरा सा
लग रहा है । सस्नेह
पंकज जी ,मुझको आपकी ग़ज़ल बहुत पसंद आई !आपकी ग़ज़ल में तड़प है ,दर्द है ,बिछुड़ने का गम है ,प्यार पाने की एक आस भी है !
जाते जाते तेरा मुड़ कर पीछे ताकना
तुम भी बिल्कुल बेबस मैं भी एकदम बेदम !
इन २ लाइनों में बेबसी तो देखते बनती है !बधाई!
पंकज जी,
प्रवाह में कमी दिख रही है।
दिल-ए-जन्नत की अब तक है हूर तू ही जानम।
अब तक तो ना हो पाया रत्ती भर प्यार ये कम।।
ये कुछ खास नही लगा।
पंकज जी
'जाते-जाते तेरा मुड़कर पीछे तकना।'
प्रयास चलते रहना चाहिये
शुभकामनायें
यह शेर बहुत अच्छा लगा पंकज जी ..बाकी ठीक ठीक हैं
क्या अश्क की बारिश थी उन चाँदनी रातों में।
तेरी पलकें भीगीं मेरी भी आँखें नम।।
शुभकामनायें
पंकज जी!
भाव की गहराई तो कम है ही, शिल्प भी कमज़ोर है इस बार. आशा है कि अगली बार आपकी हमेशा की तरह एक बेहतर रचना पढ़ने को मिलेगी!
यह शे'र तो बिलकुल अवरोध उत्पन्न करता है
दिल-ए-जन्नत की अब तक है हूर तू ही जानम।
अब तक तो ना हो पाया रत्ती भर प्यार ये कम।।
शेष भी आपकी तत्कालीन स्तर को नहीं छूतीं।
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