चाँद में दाग है, फिर भी हँसता रहा,
तुमने अपना चेहरा छिपा क्यों लिया॥
दूर तक नाँव में, पैंजनी पाँव में
ताल में, गाँव में, मेघ की छाँव में
हमने सदियों गुजारे हैं, पल वो जिये
आज आँखों को दर्पण तरसता रहा
तुमने कागज में लिक्खा जला क्यों दिया?
चाँद में दाग है फिर भी हँसता रहा
तुमने अपना चेहरा छिपा क्यों लिया ॥
दर्द को नाम देने की हसरत नहीं
जान अपनी ही लेने की ताकत नहीं
अनकही रह गयी दास्तां भूल कर
कोई चातक को पानी पिलाता रहा
तुमने होठों पे जिह्वा फिरा जो लिया
चाँद में दाग है फिर भी हँसता रहा
तुमने अपना चेहरा छिपा क्यों लिया॥
मैनें पूछा नहीं, तुमसे कुछ भी कभी
मौन की आग से चाँदनी जल गयी
तुमने आँखों में पत्थर लगा तो लिया
क्या वो, पलकों के कोरों पिघलता रहा?
मोम, तम में ये तुमने दीया क्यों लिया?
चाँद में दाग है फिर भी हँसता रहा
तुमने अपना चेहरा छिपा क्यों लिया॥
फूल को ओस खिलना सिखाते रहे
दर्द परबत में पत्थर बढ़ाते रहे
मेरे सीने में जलती रही इक चिता
ख्वाब जिन्दा रहा मुझको छलता रहा
तुमने आँखों में मेरा धुवाँ क्यों लिया?
चाँद में दाग है, फिर भी हँसता रहा
तुमनें अपना चेहरा छिपा क्यों लिया॥
*** राजीव रंजन प्रसाद 22.09.2007
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16 कविताप्रेमियों का कहना है :
दर्द को नाम देने की हसरत नही
जान अपनी ही लेने की ताकत नहीं
अनकही रह गयी दास्तां भूल कर
कोई चातक को पानी पिलाता रहा
तुमनें होठों पे जिह्वा फिरा जो लिया
चाँद में दाग है फिर भी हँसता रहा
तुमनें अपना चेहरा छिपा क्यों लिया॥
waah rajeev ji yun to ek ek pankti kabile-daad hai, par anth to lajavab hai, har baar se hatkar is baar aap purane form me vapas laute hain badhaai
दर्द परबत में पत्थर बढाते रहे
मेरे सीनें में जलती रही इक चिता
ख्वाब जिन्दा रहा मुझको छलता रहा
तुमनें आँखों में मेरा धुवाँ क्यों लिया?
बहुत खूब राजीव जी.. आपकी कविता का यह बदला रूप बहुत पसंद आया :)
आखरी पंक्तियां बहुत ही सुंदर लगी
बधाई सुंदर रचना के लिए !!
दर्द को नाम देने की हसरत नही
जान अपनी ही लेने की ताकत नहीं
rajiv ji naman hai aapko,ooj rash ke bad kuch shringar ka maja alag hi hai
राजीव जी
गेय शैली में बहुत सुन्दर गीत लिखा है । इस बार कुछ अलग अंदाज़ मिला किन्तु शैली आपकी चिरपरिचित ही है ।
भाव प्रवणता भी बढ़िया है । बधाई
राजीव जी... आपकी चिर परिचित शैली में यह रचना भी कमाल कर रही है .. एक एक पंक्ति सीधे दिल से निकली हुई ..
ऐसा बस आप ही लिख सकते हैं...
"कोई चातक को पानी पिलाता रहा "
"मोम, तम में ये तुमने दीया क्यों लिया? "
और..
"दर्द परबत में पत्थर बढ़ाते रहे"
वाह...
पर एक बात कहना चाहूँगा .. एक पंक्ति है "तुमने होठों पे जिह्वा फिरा जो लिया " पर शायद "जिह्वा" के साथ "फिरा जो लिया" के स्थान पर "फिरा जो ली" व्याकरण की दृष्टि से अधिक उपयुक्त होता | गीत को पढ़ते समय यह "फिरा जो लिया" थोड़ा सा खला |
सुंदर रचना के लिए पुन: बधाई ...
राजीव जी!
गीत की लय, गति, भाव सभी कुछ श्रेष्ठ है. मगर आपने मुझे कमी निकालने का मौका इस बार भी दे ही दिया. भाषा के स्तर पर इस बार आप चूक गये हैं.
’तुमने होठों पे जिह्वा फिरा जो लिया’
’फूल को ओस खिलना सिखाते रहे’
इन उदाहरणों में जिह्वा और ओस स्त्रीलिंग शब्द है. ध्यान दीजियेगा.
वैसे गीत अपने भाव और शिल्प दोनों में बहुत सुंदर है. बधाई!
क्या लिखा है, कमाल का लेखन..
अपलक पढ़्ता रहा..
मन ही मन गढ़ता रहा..
हर विराम के बाद,
खुद ब खुद
वाह वाह निकल गयी..
राजीव जी!!!
बहुत सुंदर लिखा है....भाव बहुत ही अच्छे है...
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दूर तक नाँव में, पैंजनी पाँव में
ताल में, गाँव में, मेघ की छाँव में
हमने सदियों गुजारे हैं, पल वो जिये
आज आँखों को दर्पण तरसता रहा
राजीव जीं,
कविता ठीक थी, मगर लगा की ताज़ा लिखी हुई है..इसीलिये कुछ दोष भी दिख गए...खैर, आपने गीत ही परोसने की ठान ली है तो हम भी इसका पूरा जायका ले रहे हैं...
निखिल
राजीव जी,
सुन्दर रचना है..ये पंकितयां बडी प्रभावी बन पडी हैं
चाँद में दाग है, फिर भी हँसता रहा,
तुमने अपना चेहरा छिपा क्यों लिया॥
मैनें पूछा नहीं, तुमसे कुछ भी कभी
मौन की आग से चाँदनी जल गयी
तुमने आँखों में पत्थर लगा तो लिया
क्या वो, पलकों के कोरों पिघलता रहा?
फूल को ओस खिलना सिखाते रहे
दर्द परबत में पत्थर बढ़ाते रहे
मेरे सीने में जलती रही इक चिता
ख्वाब जिन्दा रहा मुझको छलता रहा
तुमने आँखों में मेरा धुवाँ क्यों लिया?
"हमने सदियों गुजारे हैं, पल वो जिये
आज आँखों को दर्पण तरसता रहा
तुमने कागज में लिक्खा जला क्यों दिया?
चाँद में दाग है फिर भी हँसता रहा "
"अनकही रह गयी दास्तां भूल कर
कोई चातक को पानी पिलाता रहा "
"मौन की आग से चाँदनी जल गयी
तुमने आँखों में पत्थर लगा तो लिया
क्या वो, पलकों के कोरों पिघलता रहा? "
बहुत ही सुंदर गीत.......
भाव बहुत अच्छे ...
सुंदर रचना
के लिए.....
राजीव जी !
बधाई
राजीव जी,
"रामसेतु पर मेरी बात" से मैंने आपको पढ़ना प्रारंभ किया है, और उसके बाद मैं आपकी लेखनी का कायल हो गया. आपकी क्रान्तदर्शिता प्रशंसनीय है. आपकी हर रचना नूतन कथ्यों-तथ्यों से पूरित है. ऐसा नहीं लगता कि कहीं भी आप "पिष्टपेषण" के शिकार हैं.
अस्तु, प्रस्तुत कविता "तुमने अपना......" ने मेरी इस धारणा को और पुष्ट किया, इसके लिए आपको साधुवाद.
"दूर तक नाँव में, पैंजनी पाँव में
ताल में, गाँव में, मेघ की छाँव में "
इन पंक्तियों की अनुप्रासिकता ने अभिभूत किया.
पुनः बधाई..
मणि
मित्र राजीव जी
किस अंतरे पर टिप्पणी करूं किस पर ना करूं
काव्य तो समग्र रूप में ही आनन्द देता है। फिर
भी निम्न पंक्तियां मेरा अधिक ध्यानाकर्षण कर लेती है
फूल को ओस खिलना सिखाते रहे
दर्द परबत में पत्थर बढ़ाते रहे
मेरे सीने में जलती रही इक चिता
ख्वाब जिन्दा रहा मुझको छलता रहा
तुमने आँखों में मेरा धुवाँ क्यों लिया?
अब एक निजी बात ये "आप ये इतनी आनन्द मयी प्रवाहमयी शैली के कहां से खोज लाये .. ?मुझे ही नहीं सभी बन्धुओं को कितनी प्यारी लगती है आप अच्छी तरह जानते हैं
मैनें पूछा नहीं, तुमसे कुछ भी कभी
मौन की आग से चाँदनी जल गयी
तुमने आँखों में पत्थर लगा तो लिया
क्या वो, पलकों के कोरों पिघलता रहा?
Aap Bimbon ke baadshaah hain.
Hamesha aapse kuch seekhne ko milaa aur milta rahega.
तुमने अपना चेहरा छिपा क्यों लिया॥
तुमने कागज में लिक्खा जला क्यों दिया?
तुमने होठों पे जिह्वा फिरा जो लिया
मोम, तम में ये तुमने दीया क्यों लिया?
तुमने आँखों में मेरा धुवाँ क्यों लिया?
राजीव जी,
जबरदस्त पंक्तियाँ हैं। प्रेम का सुमधुर वर्णन देखकर हृदय मंत्र-मुग्ध हो गया। प्रकृति का प्रयोग हर रचना में आप जिस तरह से करते हैं, हर बार कुछ न कुछ सीखने को मिल जाता है। शायद अब मैं भी ऎसा कुछ लिख सकूँ :)
कुछ शिकायत भी कर लूँ। इन शब्दों या पंक्तियों में कुछ अशुद्धियाँ है। ध्यान दीजिएगा :) -
नाँव
जिह्वा फिरा जो लिया
ओस खिलना सिखाते रहे
-विश्व दीपक 'तन्हा'
देरी के लिये क्षमाप्रार्थी ,
"अनकही रह गयी दास्तां भूल कर
कोई चातक को पानी पिलाता रहा"
ठीक वही भाव, जिसके लिये राजीव "कवि" जाने जाते है ।
प्रवाहमयी, भावमयी, विरहमयी गीत, जिसे पढकर अतीत मे चला गया।
एक बेहतर रचना के लिये आपका साभार,
आर्यमनु, उदयपुर ।
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