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Tuesday, October 09, 2007

कब से आ मन में समाये



स्वप्न बन कर
तुम न जाने
कब से आ मन में समाये.

दृष्टि हरपल खोजती रहती
चर्तुदिक किसे ..... क्यों …
क्यों शूल बनकर हृदय का
है कौन सी छवि आ बसी
त्राण पल भर मिल नहीं पाता
प्रयास अनेक से
प्रिय सूर्य चन्दा नयन बनकर,
हैं मेरे चहुं ओर छाये
कब से आ मन में समाये.

हर निशा निस्तब्ध में
जाग्रत हो ढूंढता है
यह मेरा आकुल हृदय
अतुल नभ नक्षत्र मण्डल
श्वेत शुभ्रा चांदनी में
पास हो तुम क्यों लगे
प्रिय क्षितिज के प्रस्तार तक
काली घटा बन तुम ही छाये
कब से आ मन में समाये.

नदी तट की रेत पर
यूं चांदनी में बैठकर
धवल कल कल
नयन जल जल
हो तिरोहित पल
चले जाते कहां
कौन हो हे ! प्राण मेरे
श्वास बन तन में समाये
कब से आ मन में समाये.

आगमन अरूणिम उदय का
रश्मियां खगवृन्द लेकर
जगत चेतन कर चले जब
उषा का आभास देकर
शान्त नीरव नीड़ से
विह्वल मन पंछी उड़े
सांध्य की फिर प्रतीक्षा में
दिवस बीते ना बिताये
कब से आ मन में समाये.

मिलेंगे क्या इसी युग में
नदी तट तरू पल्लवों में
या कोकिला की कूक में
खोजता कब तक फिरूंगा
सता लो हे ! ‘जीव’ मेरे
धूप छाया खेल के संग
प्रीत मेरी नवल कोमल
क्या कभी समझा सकूंगा
एक तेरे हित तमस में
दीप हूं कब से जलाये
‘कान्त’ हो सब ओर छाये
कब से आ मन में समाये.

स्वप्न बन कर
तुम न जाने
कब से आ मन में समाये।


आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

15 कविताप्रेमियों का कहना है :

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

श्रीकांत जी,

सुन्दर भाव संस्कृत निष्ठ शब्दों में निखर गये हैं।

प्रिय क्षितिज के प्रस्तार तक
काली घटा बन तुम ही छाये

धवल कल कल
नयन जल जल
हो तिरोहित पल

प्रीत मेरी नवल कोमल
क्या कभी समझा सकूंगा
एक तेरे हित तमस में
दीप हूं कब से जलाये
‘कान्त’ हो सब ओर छाये

अच्छे प्रयोग।


*** राजीव रंजन प्रसाद

Sajeev का कहना है कि -

स्वप्न बन कर
तुम न जाने
कब से आ मन में समाये।
वाह श्रीकांत जी बहुत ख़ूब बहुत सुंदर

रंजू भाटिया का कहना है कि -

विह्वल मन पंछी उड़े
सांध्य की फिर प्रतीक्षा में
दिवस बीते ना बिताये
कब से आ मन में समाये.

बहुत सुंदर लिखा है आपने कान्त जी ..विरह भाव और मिलन का मिला जुला रूप सा लगा इस रचना में
बधाई सुंदर रचना के लिए !!

कुणाल किशोर (Kunal Kishore) का कहना है कि -

अब तक यह पाठक यह सोच कर टिप्प्नी करने से कतराता रहा कि भई हमारी तकनीकि ज्ञान तो कम है, अब इतने महानुभाव के बीच हम आलोचना/समीक्षा करे तो क्या करे.. पर फिर कुछ लिखने की खुजली भी हो रही थी, अपनी उपस्थिती दर्ज कराने मे असमर्थ अहम् भी धिक्कार रहा था, उपर से ३०० रुपये की लालच... कल रात मैने ठान ही लिया कि जो भी पहली कविता मिलेगी उसपर टिप्प्नी करुन्गा और अब निरन्तर करुन्गा, आखिर हिन्दी के इस प्रगती रथ मे मेरा भी कुछ अंशदान हो..

हाय रे किस्मत, पहली कविता मिली श्रीकान्त जी की... "तिरोहित".. "अरुणिम्".. "खगवृन्द" ..... इनका अर्थ जब तक समझ मे आये तब तक कविता आपको उस जटिल दूनिया मे ले जाती है जहाँ "मन" है और वो भी अशान्त.. उस पर भी ये "कही प्यार का मामला" लगता है... पर हिन्दी-प्रेमी का प्यार भी "अन्दर की बात है" , आप कुछ अर्थ निकालो और अर्थ का अनर्थ निकल जाये...और कवि दुःखी हो जाये कि ऐसा पाठक/आलोचक ना ही दे तो भला

पर टिप्प्नी तो करनी है... मै विराम और अल्प्-विराम मे नही जाता जो शायद मेरी "पर्सनल" समस्या है कि कविता के प्रवाह पर कहाँ रुकना है और कहाँ चलना (दुसरे छन्द मे, मै बहुत "स्ट्रगल" कर रहा था)| तीसरा छन्द युँ तो प्रवाह मे अच्छी लगती है पर कही कही खुद मे विरोधाभास है, "काली घटा" का प्र्योग; "नभ नक्षत्र मण्डल" के बाद या तो विचारो की पुनराव्रृती लगती है या शब्दो के अभाव मे महज तुकबन्दी की जरूरत क्योकि पिछ्ले अन्तरे मे ही "छाये-समाये" का प्रयोग हुआ है| आप एक ही "कोम्बीनेशन" सारे अन्तरे मे बनाये रखे या अलग अलग शब्द-युग्मो का प्रयोग करते तो "मेरे हिसाब" से कविता ज्यादा सुन्दर दिखती|

वैसे ये जबरन ठुँसी हुई मेरी आलोचना से परे, यह कविता हिन्दी के इसके मौलिक और प्राचीन शैली मे लिखी एक धरोहर से कम नही है, कवि को मेरा बहुत बहुत साधुवाद | कविता पढ कर मै भी उस द्वन्द मे चला जाता हूँ.... क्या होता है जब किसी की धुन्धली सी छवि, बिन बताये, दिल घर कर जाये और दिन-रात सताये? कैसा लगता है जब कोई निकट है पर प्रकट नही...गुप्त है पर लुप्त नही? दिल मानने को स्वीकार नही कि वो महज एक सपना है, पर ऐसा कोई दिखता क्यो नही जो इतना अपना है?

तपन शर्मा Tapan Sharma का कहना है कि -

कांत जी, क्या कहूँ समझ नहीं आ रहा है। बहुत खूबसूरत तरीके से आपने प्रेम विरह भाव कहा है। जो पंक्तियाँ मुझे अच्छी लगीं :
"हर निशा निस्तब्ध में
जाग्रत हो ढूंढता है
यह मेरा आकुल हृदय
अतुल नभ नक्षत्र मण्डल
श्वेत शुभ्रा चांदनी में
पास हो तुम क्यों लगे
प्रिय क्षितिज के प्रस्तार तक
काली घटा बन तुम ही छाये
कब से आ मन में समाये..."
धन्यवाद

शोभा का कहना है कि -

श्रीकान्त जी
आज तो सारे कवि कुछ अलग ही अंदाज़ में दिख रहे हैं । बहुत सुन्दर । आपकी भाषा तो सर्वोत्तम है ही भाव जगत
में भी आज आपने बाजी मार ली है । प्रेम की इतनी सूक्ष्म अभिव्यक्ति के लिए बधाई । विशेष रूप से निम्न
पंक्तियाँ मिलेंगे क्या इसी युग में
नदी तट तरू पल्लवों में
या कोकिला की कूक में
खोजता कब तक फिरूंगा
सता लो हे ! ‘जीव’ मेरे
धूप छाया खेल के संग
प्रीत मेरी नवल कोमल
क्या कभी समझा सकूंगा
एक तेरे हित तमस में
दीप हूं कब से जलाये
‘कान्त’ हो सब ओर छाये
कब से आ मन में समाये.
भाव विभोर कर देने वाली रचना के लिए पुनः पुनः बधाई ।

SahityaShilpi का कहना है कि -

कांत जी!
क्षमा चाहूँगा, आज शायद पहली बार आपकी किसी रचना पर टिप्पणी कर रहा हूँ और शुरुआत ही आलोचना से!!
भाव की दृष्टि से रचना सुंदर है परंतु आपने इसे तुकांत बनाने का प्रयास किया लगता है. इस लिहाज़ से कई स्थानों पर लयभंग अखरता है. यदि आप इसे अतुकांत रहने देते तो शायद रचना और अधिक प्रभावी होती.
आशा है कि आप मेरी इस धृष्टता के लिये क्षमा करेंगे.

"राज" का कहना है कि -

श्रीकांत जी!!!
हर पन्क्ति सुन्दर है...शब्दों का बहुत ही अच्छा प्रयोग किया है...
***********************
हर निशा निस्तब्ध में
जाग्रत हो ढूंढता है
यह मेरा आकुल हृदय
अतुल नभ नक्षत्र मण्डल
श्वेत शुभ्रा चांदनी में
पास हो तुम क्यों लगे
प्रिय क्षितिज के प्रस्तार तक

धवल कल कल
नयन जल जल
हो तिरोहित पल
चले जाते कहां

आगमन अरूणिम उदय का
रश्मियां खगवृन्द लेकर
जगत चेतन कर चले जब

मिलेंगे क्या इसी युग में
नदी तट तरू पल्लवों में
या कोकिला की कूक में
***********************
अच्छी लगी!!!

Mohinder56 का कहना है कि -

श्रीकान्त जी,

सर्वप्रथम आपको जन्म दिन की बहुत बहुत मुबारक्बाद.

साथ ही सुन्दर शब्दों से सज्जित भावपूर्ण रचना के लिये बधाई

गीता पंडित का कहना है कि -

श्रीकांत जी,


संस्कृत निष्ठ सुन्दर शब्द ....

भावपूर्ण सुन्दर रचना

बधाई

Alok Shankar का कहना है कि -

श्रीकांत जी,
लय कहीं कहीं अटकती है पर मैं अजय जी से सहमत नहीं हूँ । कविता का जो सौन्दर्य अभी झलकता है वह
अतुकांत लिखने से आ ही नहीं सकता था । हाँ अब तत्समबहुल भाषा लोगों की समझ में न आये ये तो होगा ही , आज तक मैं ही यह सुनता आया था , अब आप को भी सुनने को मिल सकता है … पर इस रचना को देख कर जो आनन्द हुआ वह मैं बयान नहीं कर सकता , इसे कहते हैं कविता !

शिवानी का कहना है कि -

श्रीकांत मिश्र जी
आपकी कविता मुझे बहुत पसंद आई !खासतौर से ये पंक्तियां
नदी की रेत पर
यूं चांदनी में बैठ कर
धवल कल कल
नयन जल जल
हो तिरोहित पल
चले जाते कहाँ
कौन हो हे प्राण मेरे
श्वास बन तन में समाये
कब से आ मन में समाये !
सुंदर भाव ,सुंदर अभिव्यक्ति
बधाई स्वीकारें ........!

Unknown का कहना है कि -

स्नेही मित्रों !
आप सबके टिप्पणी करने के अधिकार का सदुपयोग मुझे निरन्तर सीखने रहने के लिये प्रेरित करता है.
आप सभी की टिप्पणियों से ही प्रत्येक रचनाकार, निरंतर स्रजन के अपने धर्म का निर्वहन कर पाने में सक्षम हो पाता है.

अब आता हूं बन्धु अजय जी की टिप्पणी पर तो उसका उत्तर बन्धु आलोक जी की टिप्पणी ने स्वयं ही दे दिया है.

रही बात भाषायी क्लिष्टता की तो इसके लिये प्रत्येक भाषा का अपना एक परिपूर्ण शब्दकोश होता है. निरन्तर प्रयोग से वह परिमार्जित एवं परिपूर्ण भी होता है. फिर मां के गर्भ से तो हम कोई भी
भाषा सीख कर नहीं आते हैं.निरन्तर प्रयोग ही हमारी भाषा की शब्दावली पुष्ट करता है। हां सहजता के लिये यदि हम मूल शब्दों का उपयोग ही नहीं करेंगे तो एक दिन हमारे शब्दकोष, हमारी भाषा, भाषाग्यान एवं उससे जुड़ी संस्कृति ही विलुप्त हो जायेगी. फिर हमें 'हिन्द युग्मीय' आंदोलन चलाने की आवश्यकता ही क्या है ... ?

निष्कर्ष के लिये मै यह कहना चाहता हूं कि हमें अपनी भाषा के सभी स्वरूपों से निरंतरता बनाये रखना आवश्यक है.

अब सर्वाधिक हृदयस्पर्शी टिप्पणी युवा मित्र कुणाल जी की है. मेरे होठों पर आपने सहज ही मुस्कान ला दी इसके लिये आपका हार्दिक आभार. भाई आप की हर टिप्पणी की मुझे सदैव प्रतीक्षा रहेगी

गीत कितना गेय है यह मेरे अंर्तमन की निरंतर धुन जानती है. शीघ्र ही स्वर में आप सब सुधी मित्रों के सन्मुख हो ऐसा प्रयास करूंगा

पुनश्च सनेहादर सहित

विश्व दीपक का कहना है कि -

स्वप्न बन कर
तुम न जाने
कब से आ मन में समाये।

श्रीकान्त जी,
मुझे बहुत खुशी है कि आलोक जी को अपना एक सहकर्मी मिल गया :) । संस्कृत के शब्दों पर आपकी बहुत हीं उम्दा पकड़ है। यही बात आपकी रचना को बाकी रचनाओं से भिन्न बनाती है। आपने अपनी रचना में श्लेश और अनुप्रास अलंकार का ( जहाँ तक मुझे पता है) सुंदर प्रयोग किया है। भाव भी अतिसुंदर हैं।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक 'तन्हा'

praveen pandit का कहना है कि -

श्रीकांत जी!

हिंदी के मूल स्वरूप का दर्शन कराया आपने।
इस सुख के लिये तो सामान्यतः प्यासा ही रहना पड़ता है ।
प्रिय आलोक जी अब अकेले नहीं रहे,कविता के रसास्वादन के साथ यह दूसरा सुख मिला।
बीचों-बीच गहरे मे खड़े हैं , भीगने का डर-प्रश्न नहीं ।
परमानंद कराते रहिये बंधुवर!

सस्नेह
प्रवीण पंडित

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