चार-पाँच कुत्ते
दरिंदे
एक मासूम सी बिल्ली को
घेरकर झपटते
नोचते-खसोटते
रात के सन्नाटे को चीरती
करूण चीखें
हिचकी लेती आवाज
आँसू से भरी आँखें
टूटती हर साँस
जैसे कहती -मुझे छोड़ दो!
पर शायद वह नहीं जानती
कि रात के अंधकार में
इन वहशियो के लिए वह
है केवल शिकार, माँस
भूख मिटाने का साधन, एक तन
वह नहीं है किसी की माँ, बेटी, बहन
मासूम से छौने
निष्प्राण
एक नहीं दो नहीं
हैवान को शर्मिंदा कर
देने वाले ये पाँच
शव को भोगते
खसोटते
सिसकती भूमि
रोता आसमान
लाचार,
पूछते प्रश्न ,
हे कन्हैया
क्यों नहीं आए रक्षा को
मैं द्रोपदी नहीं इसीलिए
पर तुम तो जगत रक्षक हो
फिर क्यों नहीं आए
प्रिय भाई! क्यों नहीं
हे धरती माँ !
सीता को जगह दे दिया,
तो आज फिर क्यों नहीं आज
आप का सीना फटा,
क्या मैं आपकी पुत्री नहीं
माँ! क्या मैं आपकी पुत्री नहीं
हे भोले, हे परम पिता
जानती हूँ आप हो,
पर शायद न देख पाए
मेरे साथ होता दुष्कर्म!
शायद मेरी चीखें ही
न पहुँच पायी होंगी तुम तक
नहीं है आपका मेरे साथ
हुए पाप में कोई दोष
पर एक गलती तो किया तुमने
मुझे भोग्या बनाकर- नारी बनाकर।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
16 कविताप्रेमियों का कहना है :
राहुल जी!!
अच्छी रचना है...शब्दों का व्यवहार अच्छे ढंग से किया है आपने...शिर्षक का चयन बहुत अच्छा हुआ है...
**********************************
एक नही दो नही
हैवान को शर्मिंदा कर
देने वाले ये पाँच
शव को भोगते
खसोट्ते
हे कन्हैया
क्यो नही आए रक्षा को
मै द्रोपती नही इसीलिऐ
पर तुम तो जगत रक्षक हो
हे भोले, हे परम पिता
जानातीई हू आप हो,
पर शायद न देख पाए
मेरे साथ होता दुष्कर्म!
शायद मेरी चिंखे ही
न पहुच पायी होंगी तुम तक
नही है आपका मेरे साथ
हुए पाप मे कोई दोष
पर एक गलती तो किया तुमने
मुझे भोगया बनाकर- नारी बनाकर.
****************************
बधाई हो!!!!
राहुल जी ,आपकी कविता प्रश्न का एक एक शब्द अर्थपूर्ण तथा प्रभावपूर्ण है !आपने बहुत ही सरलता से एक नारी की मनोस्थिति को दर्शाया है !इस पुरूष प्रधान समाज में नारी की बेबसी ,अत्याचार और शिक़ायत बहुत अच्छे से प्रस्तुत की है !इस सशक्त रचना के लिए बधाई स्वीकार करें.....!
राहुल जी,
आप जिस बिम्ब को ले कर चले हैं उसने आपके कथ्य का चित्र उकेर कर रख दिया है। चित्रनात्मक कविता इतनी सशक्त है कि समाज को कटघरे में खडा करती है। जिन पौराणिक कथाओं से सवाल उठाये हैं उन्होंने आपके कथन को मजबूती प्रदान की है और रचना समसामयिकता नहीं खोती।
अच्छी और सार्थक रचना की बधाई।
(आपके कम्पयूटर में यूनिकोड में संभवत: कोई दिक्कत है, कविता सही तरह से डिस्प्ले नहीं हो रही है।)
*** राजीव रंजन प्रसाद
बेहद जीवंत चित्र उकेरा है आपने राहुल जी एक ऐसा यक्ष प्रश्न है जिसके जवाब में समाज शायद निरुत्तर ही मिलेगा
बहुत ही सुंदर लिखा है आपने राहुल जी कई पंक्तियां दिल को छू गई भाव और शब्द दोनों ही अच्छे लगे नारी से जुड़े जिन प्रश्नों को आपने अपनी कविता में लिया है उनका जवाब शायद अभी भी कहीँ गुम है
लिखते रहे आपकी अगली रचना का इंतज़ार रहेगा !!
शुक्रिया शुभकामना के साथ
रंजना
http://ranjanabhatia.blogspot.com/
राहुल जी
बहुत ही सशक्त विषय लिया है । यद्यपि कहीं- कहीं शब्दगत अस्त व्यस्तता है किन्तु आपकी दृष्टि ने जो
देखा और अनुभव किया है वह निश्चय ही प्रशंसा के काबिल है । नारी आज उतनी कमजोर नहीं रही कि
उसे पुकार लगानी पड़े । हाँ पाश्विकता का सामना करना सीखना होगा ।इस सन्दर्भ में बस इतना ही
कहना चाहूँगी -
मेरी इच्छा वह दिन आए
जब तू जग में आदर पाए ।
दुनिया के क्रूर आघातों से
तू जरा ना घायल हो पाए
तेरी शक्ति को देखे जो
तो विश्व प्रकंपित हो जाए ।
यह थोथा बल रखने वाला
नर स्वयं शिथिल-मन हो जाए ।
गूँजे जग में गुंजार यही-
गाने वाला नर अगला हो
नारी तुम केवल सबला हो ।
नारी तुम केवल सबला हो ।
बस देना है तो यही सम्बल दें । सस्नेह
राहुल जी आपकी कविता लिखने की शैली बहुत ही जया पसंद आती है मुझे|सच कहूँ तो पहले आपके इसी विषय पर एक बुधिया लिखी जाने वाली थी पर अच्छा हुआ..इस विषय पर कहीं बेहतर रचना आपकी कलम से निकली |
यह जो आप दो-तीन शब्दों में अपनी रचना की एक पंक्ति पूरी करते हैं उसका तो मैं कायल हो गया हूँ जैसे..
शव को भोगते
खसोटते
सिसकती भूमि
रोता आसमान
लाचार,
पूछते प्रश्न ,
और...
एक मासूम सी बिल्ली को
घेरकर झपटते
नोचते-खसोटते
रात के सन्नाटे को चीरती
करूण चीखें
हिचकी लेती आवाज
आँसू से भरी आँखें
टूटती हर साँस...
अपनी बात को इस तरह कहने की कला सचमुच प्रशँशनीय है|वैसे इस मामले में मुझे आपकी श्याम ली ज़्यादा सशक्त लगी..
बस ऐसी ही लिखतें रहे... बधाई !
राहुल जी!
रचना निस्संदेह सशक्त है और भावों को पूरी शिद्दत और मार्मिकता से संप्रेषित करने में आप सफल रहे हैं. परंतु आपका यह कुत्ते और बिल्ली का बिंब मुझे कुछ जमा नहीं. कुत्ते बिल्ली के सिर्फ शव को खाते हैं जबकि आप ने जिस समस्या के संदर्भ में इसे लिया है, वहाँ आत्मा तक घायल हो जाती है. वैसे बिल्ली प्राय: निरीह भी नहीं होती बल्कि बहुत चतुर मानी जाती है और उसके ऐसे हालात में फँसने की संभावना भी अपेक्षाकृत कम होती है.
इस एक कमी के अतिरिक्त पूरी रचना बहुत प्रभावी लगी. बधाई!
राहुल जी,
अच्छी कविता, अच्छी शैली, अच्छा शीर्षक, शब्द चयन कबिले तारीफ, परंतु अजय जी की बात का समर्थन करुँगा,
बधाई स्वीकारें
राहुल जी,
सशक्त शब्दों में मार्मिक चित्रण किया है आपने एक व्यथा का.
बधाई
राहुल जीं,
"हे कन्हैया
क्यों नहीं आए रक्षा को
मैं द्रोपदी नहीं इसीलिए
पर तुम तो जगत रक्षक हो
फिर क्यों नहीं आए
प्रिय भाई! क्यों नहीं "
उत्कृष्ट रचना है....अभी हाल ही में सजीव जीं की एक रचना आई थी..विषय लगभग वैसा ही है मगर भाव आपके और भी आयाम समेटे हुए हैं...आपकी कविता के तेवर बड़े तीखे लगे...आगे पढने की तमन्ना रहेगी...
निखिल अनंद गिरी
"एक गलती तो किया तुमने
मुझे भोगया बनाकर- नारी बनाकर."
चित्रात्मक,
सशक्त ,
सार्थक कविता .....
राहुल जी ,
बधाई !
तिखा प्रहार हॆ ।
बधई ।
- अवनीश तिवारी
राहुल जी,
सशक्त भाव हैं। आपने विचारणीय विषय चुना है और इसे आपने बखूबी निभाया है। इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं।
एक व्याकरण की अशुद्धि पर ध्यान डालना चाहूँगा-
पर एक गलती तो किया तुमने
मुझे भोग्या बनाकर- नारी बनाकर।
यहाँ किया नहीं "की" होना चाहिए था। :)
-विश्व दीपक 'तन्हा'
राहुल जी !
बहुत ही सुन्दर भाव भरी रचना
बस थोड़ा भाषायी नियन्त्रण की ओर
ध्यान देने की आवश्यकता है
बधाई
शुभकामना
rahul ji bhaut hi aachi poem hai
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)