नहीं मान्यवर,
मैं जब भी व्यवस्था से विद्रोह करता हूँ,
ग़लत होता हूँ,
मैं जब भी
आपके महान देश और संस्कृति पर
आरोप मढ़ता हूँ,
ग़लत होता हूँ,
नहीं....
इस पवित्र देश में
कभी फ़साद नहीं होते,
यहाँ अपराध हैं ही नहीं
तो किसी जेल में ज़ल्लाद नहीं होते,
जो लड़की रोती है टी.वी. पर
कि उसकी चार बहनों पर
बलात्कार हुआ दंगे में,
वो मेरी तरह झूठी है,
उसकी बहनें बदचलन रही होंगी
या टी.वी. वालों ने पैसे दिए हैं उसे,
और जो रिटायर्ड मास्टर
पेंशन के लिए
सालों तक दफ़्तरों के चक्कर काटने के बाद
भरे बाज़ार में जल जाता है,
उसकी मौत के लिए
कोई पुरानी प्रेम-कहानी उत्तरदायी होगी,
आपका ‘चुस्त’ सिस्टम नहीं,
नहीं मान्यवर,
यह झूठ है
कि एक पवित्र किताब में लिखा है-
विधर्मी को मारना ही धर्म है
और उस धर्म के कुछ ‘विद्यालयों’ से
आपके महान देश में बम फोड़े जा रहे हैं,
नहीं मान्यवर,
यह मेरा नितांत गैरज़िम्मेदाराना बयान है
कि दर्जनों मन्दिरों-मठों की आड़ में
वेश्याएँ पलती हैं
और पचासों बाबाओं के यहाँ
हथियारों की तस्करी के धन्धे किए जा रहे हैं,
यह वह देश नहीं है,
जहाँ बार-बार
धर्म-पंथ के नाम पर
कृपाण उठाकर अलग देश माँगा जाता है,
यह वह देश नहीं है,
जहाँ समाजसेवा के वर्क में लिपटी हुई
चार रुपए की बरफी खिलाकर
आदिवासी बच्चों से
’राम’ की जगह ‘गॉड’ बुलवाया जाता है,
नहीं मान्यवर,
उस बेकरी वाली की बहनों का नहीं,
बलात्कार तो मेरे दिमाग का हुआ है,
जो मैं कुछ भी बके जाता हूँ,
मुझे जाने किसने खरीद लिया है
कि मैं इस महान धरती के
आप महान उद्धारकों को
नपुंसक कहे जाता हूँ,
आप विश्वगुरु हैं,
ग़लत कैसे हो सकते हैं?
जहाँ सोने सा जगमगाता अतीत है,
वहाँ ये पाप कैसे हो सकते हैं?
मान्यवर,
मैं नादान हूँ,
पागल हूँ,
मुँहफट हूँ,
गैरज़िम्मेदार हूँ,
मेरी बातें मत सुनिए,
आप महान हैं, समर्थ हैं,
मेरा मुँह बन्द करवाइए
या जीभ पर कोयले धरवाइए,
ज़ल्लाद ढूंढ़ लाइए मेरे लिए
या मेरे विरुद्ध फतवे जारी करवाइए
क्योंकि
मैं कम्बख़्त
जन्म से ही बिक चुका हूँ,
कड़वे सच और उसकी पीड़ा के बदले में।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
23 कविताप्रेमियों का कहना है :
प्रिय गौरव
ये सब क्या है ? कविता को अपने रोष का माध्यम क्यों बना रहे हो? यह कविता नहीं कवि का आक्रोष है ।
मैं जरा भी नहीं मानती कि तुम झूठे हो या तुम गलत हो । बस विचारों का मतभेद कभी-कभी हो जाता है ।
तुम यग्म के बहुत ही प्यारे और संवेदन शील कवि हो । तुम्हारी कविता की सुबह से प्रतीक्षा थी लेकिन
पढ़ कर मैं स्वयं चिन्तित हो गई हूँ ।
तुम्हारा आक्रोष सकारात्मक हो और समाज को सही सोच दे पाए यही कामना है । आशीर्वाद सहित
गौरव अगर कविता की दृष्टि से कहूं तो प्रस्तुति अच्छी है और प्रभावशाली है , पर भाव को देखें तो लगता है किसी का स्टेटमेंट है जो सिर्फ़ अपनी विचारधारा पर इतनी सख्ती से कायम है , की वह सारे समाज , सिस्टम से क्षुब्ध है , और सिर्फ़ उसे कोसना चाहता है |ध्यान दे, आलोचना और कोसने मे फर्क है | कीचड़ को देख कर छिः - थू करना एक बात है और उसे साफ करने के उपाय के बारे मे सोचना अलग बात | कवि की जिम्मेदारी सिर्फ़ अपने विचार परोसना नही , कभी कभी कवि समाज को सोचने की दिशा भी देता है | इतनी लंबी चौडी भूमिका का बस यही अर्थ है , की कवि को हमेशा निराशा की बात नही करनी चाहिए , हिंद युग्म पर यह भी एक ट्रेंड न बन जाए |
कविता की बात करे तो कवि जो बात कहना चाहते थे वह बात पाठक तक पहुंचती है |
Hi Gaurav mujhe tumari poem bahut achi lagi , hamesha ki tarah.....sabse bari baat soch.....mai kuch palo kay liye ek aise dream mey chali gayi jaha sab log tumare tarah soch wale ho , jage hue ho......phir ek umeed ho gayi tumari poem parkar kafi log jag jayenge........thnx for nice poem.......mujhe garv hai mai tumari friend list mey hu.....Vijaya from New York..........
..यही आग! बस यही आग तो चाहिये!
पाश ने कहा था
"सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
ना होना तड़प का
सब कुछ सहन कर जाना"
ऐसे कवि और ऐसी कवितायें उम्मीद जगाती हैं
मन नही मान रहा है पाश की पूरी कविता उद्धृत कर रहा हूँ
"सबसे खतरनाक है सपनों का मर जाना"
मेहनत की लूट सबसे खतरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती
गद्दारी, लोभ की मुट्ठी
सबसे खतरनाक नहीं होती
बैठे बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी सी चुप्पी में जकड़े जाना बुरा तो है
पर सबसे खतरनाक नहीं होती
सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
ना होना तड़प का
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौट कर घर आना
सबसे खतरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
-पाश
कृपया पहले यह तय कर दीजिये मैं इसे कविता मान के पढूं या कहानी का सारांश....
मैं आपकी क्षमता पे यकीन करता हूं पर इस कविता(?) पर नहीं कर पा रहा.
अगर साहित्यिक विधा की बात करें तो मै ज़्यादा जानकार ना होनें के बावज़ूद इसे किसी विधा का हिस्सा नहीं मान पा रहा हूं. अगर इसे आपकी पूर्व रचना की प्रतिफल मानें तो एक अलग बिम्ब दिख रहा है; जो कवि/लेखक की व्यक्तिगत समस्या को प्रदर्शित कर रहा है और रचना की महत्वा को कम कर रहा है. कविता अपनी बात कहने का अच्छा माध्यम है पर आप बात अच्छे से कह ना सके और भ्रम की स्थिती बन गयी है.
मैं इस कविता में प्रदर्शित निराशा से ज़्यादा क्षुब्ध नहीं हूं क्यूं की कहीं ना कहीं हमें ऐसे वाकये से दो-चार होना पडता है पर क्या यही हमारी नियती बन गयी है.......मैं इसे मान नही सकता......यह भाव ज़्यादा क्षुब्धा करता है.
हारिये ना मन को........जीत में विश्वास रखिये.
आगे के शुभसंशा.....
.....सिद्धार्थ
..देखने वाली बात यह भी है कि सिर्फ दलित और आदिवासी ही धर्म-परिवर्तन क्यों करतें हैं और सिर्फ स्त्रियाँ ही क्यों जलाई जाती हैं या गले में फंदा लगा कर क्यों लटक जाती हैं. लेकिन इन बातों पर हम क्यों सोचें क्यों बोलें? हमारी संस्कृति तो बडी महान हैं.
प्रिय गौरव
मेरा स्नेह चिन्तित है अपने गौरव के लिये।
किन्तु अब तो आग लग चुकी है। तुम्हें अब कोई नहीं रोक सकता । अंततोगत्वा एक जाग्रत शिक्षक पुत्र के साथ यह तो होना ही था। शेष मेरी बहुत सी बातें आदरणीय आलोक जी एवं शोभा जी पहले ही कह चुके हैं। ईश्वर तुम्हें, तुम्हारे विचारों को चिरायु करे .
नीचे की पंक्तियां ही उद्धृत कर रहा हूं
आप विश्वगुरु हैं,
ग़लत कैसे हो सकते हैं?
जहाँ सोने सा जगमगाता अतीत है,
वहाँ ये पाप कैसे हो सकते हैं?
मान्यवर,
मैं नादान हूँ,
पागल हूँ,
मुँहफट हूँ,
गैरज़िम्मेदार हूँ,
मेरी बातें मत सुनिए,
आप महान हैं, समर्थ हैं,
मेरा मुँह बन्द करवाइए
या जीभ पर कोयले धरवाइए,
ज़ल्लाद ढूंढ़ लाइए मेरे लिए
या मेरे विरुद्ध फतवे जारी करवाइए
क्योंकि
मैं कम्बख़्त
जन्म से ही बिक चुका हूँ,
कड़वे सच और उसकी पीड़ा के बदले में।
स्नेहकामना के साथ
जो इसे कविता नहीं मानते वह समकालीन कविता पढें छायावाद कब का खत्म हो गया.
अगर मै कहुँ कि पढते वक्त मेरे धमनियो मे उबाल, रोष, अवसाद नही आया, तो गलत होगा और शायद ये पैमाना किसी भी तकनीक पर भारी पडता है| जो लोग इसे कविता नही मानते मै उनको उस श्रेणी मे रखता हुँ जो कविता इस लिये पढते है जिन्हे "लडकी का बलात्कार हो रही है" जैसे पंक्तियो मे व्याकरण नजर आता है|
दिनकर जी ने कहा था...
"समर शेष है ,नही पाप का भागी केवल व्याघ
जो तटस्थ है ,समय लिखेगा उनका भी अपराध।"
"दो में से तुम्हें क्या चाहिए ?
कलम या कि तलवार
मन में ऊँचे भाव
या तन में शक्ति अजय आपार !"
गौरव, उम्मीद करता हूँ कि आप भी अपना कर्तव्य समझेंगे और हमे भी समय समय पर अपने दायित्वो का बोध कराते रहेंगे..
मित्र,
मन भरी है कल के अजमेर शरीफ दरगाह वाले बम ब्लास्ट की ख़बर सुनने के बाद से, विश्वास ही नही होता की इस पवित्र दरगाह मे बम लगाने के बारे मे कोई आतंकी सोच भी कैसे सकता है :(
आपकी कविता 'मैं बिक गया हूँ' पढने के बाद लगता है सच ही कहा आपने "बिक चुके हैं लोग". आज सबेरे सबेरे जब न्यूज़ चैनल मे सोहैब (जिनका इंतकाल हो गया इस हादसे मे) के लड़के की भावुक बातों को सुना मन एक दम से विचलित हो गया है...
...यह झूठ है
कि एक पवित्र किताब में लिखा है-
विधर्मी को मारना ही धर्म है
और उस धर्म के कुछ ‘विद्यालयों’ से
आपके महान देश में बम फोड़े जा रहे हैं,....
" मैं कम्बख़्त
जन्म से ही बिक चुका हूँ,
कड़वे सच और उसकी पीड़ा के बदले में।"
गौरव भाई बहुत अच्छी रचना है, बदकिस्मती से समय कुछ ऐसे हादसे भी दिखा रहा है जो नही होना चाहिए था.
सचमुच सुन्दर रचना है आक्रोश के साथ
देश की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत कर दी है कि देश के लोग पथभ्रष्ट हो चुके है
क्या सोच है सब से ऊपर उठकर
गौरव सबसे पहले तो बधाई, इसे मैं कहूँगा तुम्हारा प्रतुत्तर तुम्हारे अपने अंदाज़ में, मेरे ख्याल है की जब कोई भी किसी कविता को पढे तो यह भूल कर पढ़ें की उसे कौन लिख रहा है और क्यों लिख रहा है, हमे मतलब गौरव से नही उसकी इस कविता से है, और हर लिहाज से मैं इसे एक उच्च स्तरीय कविता कहूँगा, जो पूरी तरह से अपने भाव, अपने रोष, अपने आक्रोश को निभाती है, क्या यह आज के भारत का सच नही है ? और एक कवि जिस मनोविचार से गुजर रहा हो वोही तो वह अभिव्यक्त करेगा, हो सकता है यही कवि कल कोई समाधान भी पेश कर दे, कम से कम उसे समस्या का तो बोध है, तुमने सम्प्रदाय , धरम जाती से हटकर बहुत से पहलुवों को छुवा है और गहरी चोट की है, सच को सच कहना ही कवि का धरम है, जिसे तुमने निभाया है, बधाई
गौरव,
निश्चित रूप में एक अच्छी रचना है। व्यवस्था का विरोध करने के लिये जो धार तुमने अपनी कलम में लायी है वह प्रसंशनीय है।
"मैं जब भी व्यवस्था से विद्रोह करता हूँ,
ग़लत होता हूँ"
यह एक स्थापित सत्य है, चूंकि व्यवस्था का विरोध करने पर तलवार की नोक पर कदम धरने आवश्यक हो जाते हैं।....।
हाँ, कविता में भावों को ले कर भी शिकायत है और शिल्प को ले कर भी। पहली आठ दस पंक्तियों के बाद कविता चैनल की भांति समाचारों को सपाट तरीके से रखती जाती है, कोई भी पंक्ति व्यवस्था के खिलाफ तुम्हारा विरोध नहीं दर्ज करती छिपे हुए अर्थों नें असंतोष अवश्य जाहिर् करती है। यहाँ तुम्हारी कलम से मुझे काव्यात्मकता की अपेक्षा थी। काव्यात्मकता और बिम्ब ही गद्य और पद्य के बीच अंतर बनाते हैं और नयी कविता की इस आवश्यक शर्त को अवश्य पूरा किया जाना चाहिये।
यहाँ कवि की कुंठा ही उजागर हो रही है किंतु पता नहीं चलता कि कवि नें एसा क्या किया जिससे उसे यह गुमान हो कि उसके खिलाफ सिसटम खडा हो जायेगा? जब कवि कहता है कि
"मैं नादान हूँ,
पागल हूँ,
मुँहफट हूँ,
गैरज़िम्मेदार हूँ,
मेरी बातें मत सुनिए,
आप महान हैं, समर्थ हैं,
मेरा मुँह बन्द करवाइए"
तब कवि से प्रश्न किया जाना चाहिये कि वह नादानी आपकी कविता में कहीं दिख तो नहीं रही। आप न तो किसी घटना पर अपनी राय प्रकट कर रहे हैं न किसी घटना को दिशा दे रहे हैं और सामान्य भर्तसनाओं के लिये समाचार चैनल कम भी नहीं पडे। इस जगह जिस धार की अपेक्षा थी वह यदि होती तो कवि अपनी संभावित शहादत की घोषणा कर सकता था अंतिम पंक्तियाँ तो बहुत कुछ कहना चाहती हैं:-
गैरज़िम्मेदार हूँ,
मेरी बातें मत सुनिए,
आप महान हैं, समर्थ हैं,
मेरा मुँह बन्द करवाइए
या जीभ पर कोयले धरवाइए,
ज़ल्लाद ढूंढ़ लाइए मेरे लिए
या मेरे विरुद्ध फतवे जारी करवाइए
क्योंकि
मैं कम्बख़्त
जन्म से ही बिक चुका हूँ,
कड़वे सच और उसकी पीड़ा के बदले में।
इस मुह को बंद करवा कर किसी का फायदा नहीं? पानी वाले साँप से बिरले ही डरते हैं? जितनी अपेक्षायें तुमने अपनी कलम से बंधा रखी हैं उसके अनुरूप इस कविता को नहीं पाता। हाँ अवनीश जी नें जिस कवि और कविता को उद्धरित किया है उसे पढने की तुम्हें सलाह अवश्य दूंगा।...। यदि पाश के नजदीक भी पहुँच गये तो गर्व से कहना मेरा
"मुँह बन्द करवाइए
या जीभ पर कोयले धरवाइए,
ज़ल्लाद ढूंढ़ लाइए मेरे लिए"....
गौरव सोलंकी से गौरव सोलंकी की रचना मिले लंबा अंतराल हो गया...
*** राजीव रंजन प्रसाद
प्रिय गौरव, तुम्हारी रचना कटुसत्य है। कहां-कहां से किस पंक्ति को उद्धृत करुं समझ नहीं आ रहा है क्योंकि हर कटाक्ष अपने आप में ढेरों पीडा और आक्रोश को समेटे है। नियती मान कर मौन आखिर कब तक रहा जा सकता है। कभी ना कभी , किसी ना किसी को तो चुप्पी तोडनी ही होगी ना। ढेरों सवाल,ढेरों घटनायें जेहन में घूम गई। तुम सफल रहें अपने रचनाकर्म में। जिस पीढी का तुम प्रतिनिधित्व कर रहें हो उनको जागरुक करने और होने की जरुरत भी है। तुम्हारे उज्जवल भविष्य की कामना के साथ।
कविता तो अपनी जगह है मुझे आपके भाव बड़े अच्छे लगे|
सच कहूँ तो जब मैने सिर्फ़ यह कविता पढ़ी तब बड़ी अच्छी लगी|आपने जिन मुद्दों, जिन बातों को कविता में स्थान दिया है वह प्रशँशनीय है|आज के समाज और व्यवस्था की पोल खोलने के लिए पहले उसकी जानकारी होना आवश्यक हैं | जो आप करना चाहते थे वह बख़ूबी किया है | जिस निराशा की बात ऊपर हो रही है जब मैने कविता पढ़ी तो वह तो दूर की बात थी पहले इन पंक्तियों ने ध्यान खींचा...
1..
उसकी बहनें बदचलन रही होंगी
या टी.वी. वालों ने पैसे दिए हैं उसे,
2..
उसकी मौत के लिए
कोई पुरानी प्रेम-कहानी उत्तरदायी होगी,
3..
दर्जनों मन्दिरों-मठों की आड़ में
वेश्याएँ पलती हैं
4..
चार रुपए की बरफी खिलाकर
आदिवासी बच्चों से
’राम’ की जगह ‘गॉड’ बुलवाया जाता है,
आह् ! " इंडिया शाइनिंग" की बात करने वाले
इस देश में आज भी ऐसा होता है | आज क्या बल्कि सदियों से ऐसा चला आ रहा है!अब ऐसी बातों को देखकर निराशा और क्षोभ नही तो और क्या जन्म लेगा?
ख़ैर .. ग़ौरवजी आप यहाँ सहीं हैं तो बहुत सी जगह ग़लत भी ..आपकी निराशा कुछ अज़ीब से तेवर लिए हुए दिखती है ..
"आप विश्वगुरु हैं,
ग़लत कैसे हो सकते हैं?"
ग़लत हो सकते हैं, क्यों नही हो सकते.. आप इस बात को नही झूठला सकते की जिन बातों का आपने उल्लेख किया है उससे परे भी बहुत कुछ है.. जो विश्वगुरु कहलाने ले लिए काफ़ी है| आपकी निराशा और क्षोभ जायज़ है बस अभिव्यकती में थोड़ी गड़बड़ हो गयी है जो अमूमन "गौरव सोलंकी " से नही हुआ करती |
आपकी अगली संतुलित रचना के इंतज़ार मे..
गौरव जी!
कुंठा कहिये या क्षोभ;अवसाद कहिये या आक्रोश-किंतु है सत्य।
बात, जो कही आपने, निश्चय ही ठिकाने पर पहुंची है।आशा करता हूं कि सकारात्मक ही रहेगी।
किंतु बर्फ़ी खाने से पहले की आदिमकालिक भूख का भी ख्याल रहे।
सस्नेह
प्रवीण पंडित
गौरव जी,
भाव सुन्दर लगे परन्तु कविता न हो कर गद्य या पढने में लगा. आपसे आपेक्षायें भी अधिक रहती हैं उसका भी प्रभाव है.
गौरव जी,
आक्रोश का होना स्वभाविक है...आपकी कलम ने पूरी तरह आपके और हमारे भावों को व्यक्त किया है..कम-से कम आपने वो सभी सामयिक प्रश्न सामने रखने का साहस तो किया.....उत्तर पाठक को स्वयम खोजने दीजिये.....
सश्क्त भाव-पूर्ण रचना....के लियें......
आपको बधाई
हाँ मैं आपकी कलम से अगली बार एक लय-बद्ध कविता पढना चाहती हूं....शुभ-कामनाएं|
स-स्नेह
गीता पंडित
mein kya kahun? bas itan hi kahunga ki bas likhte raho accha lagata hai. par sach kahun tou dukha hota hai itana sab kuch hote hue bhi hum kitne gareeb hai.
are bhai gungo, bahro or andho ko kuchh sunana, kahna or dikhana vayarath hai lekin hum or tum kuchh paryash karenge sayad ek kankad bhi jhil me halchal paida kar sakta hai
यह मेरा नितांत गैरज़िम्मेदाराना बयान है
कि दर्जनों मन्दिरों-मठों की आड़ में
वेश्याएँ पलती हैं
और पचासों बाबाओं के यहाँ
हथियारों की तस्करी के धन्धे किए जा रहे हैं,
muzhe ye line bahut acchi lagi gorav ji
complete poetry of Paash in Hindi and Punjabi is available at my blog http://paash.wordpress.com
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