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Saturday, October 27, 2007

मुर्गी भी माँ है !


आज आवश्यक कार्य से शहर से बाहर था इसीलिए समय पर कविता प्रकाशित नही कर पाया इसके लिए माफ़ी चाहूँगा | कसाई की दुकान के बाहर पिंजरे में बंद मुर्ग़ों को देख कर मैने कुछ सोचा वही इस कविता के माध्यम से आप तक पहुँचा रहा हूँ|

सड़क..
कसाई की दुकान
पिंजरे में मुर्गे
चाकू से डरते!
ग्राहक की आमद,
मुर्ग़ों की शामत..
जान सबको प्यारी है,
कोने में छुपने की जंग
बाक़ायदा ज़ारी है!
आवाज़ आई
"एक किलो"
दुबक जाओ कोने में
बच लो!
मोटा वाला छुप रहा है,
कसाई का हाथ
ढूँढ रहा है
ये...
पकड़ाया
वो फड़फ़ड़ाया,
चिल्लाया,
पंखों को पकड़ा
टेंटुआ दबाया
आँसू भी नही निकले
तराज़ू के पलड़े
हिलने लगे!
ख़ैर..
उसे तोला,
कम्बख़्त डेढ़ किलो का निकला!
मोटे की जान में जान आई
पर पतले पर,
काल की छाया छाई|

यह तो सब ठीक
वहाँ दूर एक मुर्गी,
ख़ून के आँसू रोती है..
माँ है,
अपने बच्चों को
रोज़ कटने जाते देखती है!
देवकी की छह संतानें मरीं
तो भगवान ख़ुद जन्मे,
पर यह जानवर है
बेज़ुबान..
इसकी पीड़ा कौन सुने?
मुझे चोट लगे
तो माँ बेचैन जाती है
और इसके बच्चों से भरी गाड़ी
रोज़ शहर जाती है!
बेचारी..
अंडे देती है,
सेती है,
दुलारती है
तब चूज़े निकलते है
बेरहम दुनिया खा जाती है!
आह!
कैसी विडंबना..
वो बोल नही सकती
वरना ज़रूर बोलती
महज़ स्वाद के लिए
मेरे बच्चों को मत मारो,
तुम भी किसी के बेटे होगे
मेरी ममता को,
यूँ छुरियों से ना काटो..
अरे इंसानों !
मुझ पर रहम करो
छोड़ दो माँसाहार
बस शाकाहार करो..

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12 कविताप्रेमियों का कहना है :

Mohinder56 का कहना है कि -

सुन्दर है...मुझे पसन्द आई...........एक बार मैने भी यह विषय सोचा था पर कुछ लिख नहीं पाया.. वचपन में एक बार बकरा कटता देख कर मैं शाकाहारी बन गया.
बधाई.

रंजू भाटिया का कहना है कि -

विपुल सबसे पहले तो बधाई इतनी अच्छी सोच कहाँ से लाते हो तुम ..बहुत ही अच्छा संदेश दिया है इस रचना के माध्यम से तुमने ..जान तो सब में होती है और ममता भी सब में होती है ..चाहए वह इंसान हो या जानवर ..आज जब लहर चली है शाकाहारी बनने की उस वक्त यह रचना अपने संदेश के साथ न्याय कर रही है ...मैं बाल उद्यान के लिए ऐसा कुछ लिख रही थी :)
दूसरी बात तुम जो दर्द का बयान करते हो .चाहे वह बुधिया का हो चाहे इस रचना में इस मुर्गी का ...वह दर्द ख़ुद को महसूस होता है और एक चित्र सा बन जाता है ...बहुत बहुत शुभकामना और बधाई के साथ
सस्नेह
रंजू

Nikhil का कहना है कि -

बेहतरीन........विपुल, अब आप बुधिया के अलग बिम्ब भी ढूँढने लगे हैं और बहुत ही उम्दा......
अंत थोड़ा और अच्छा हो सकता था.....
मतलब संदेश थोड़ा गद्यात्मक और सपाट पड़ गया तो कविता का रस भी आधा हो गया....
खैर...मुझे बहुत पसंद आई.......

निखिल

Unknown का कहना है कि -

प्रिय विपुल

मुर्गी भी मां है कविता के माध्यम से आपने अपने संवेदनशील कवि होने का परिचय दे दिया है काव्य में अनुभव एवं शिल्प का कच्चापन अभी कई स्थानों पर बाहर आ जाता है

वह भी समय पर निकल जायेगा किन्तु सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आपको रास्ता मिल चुका है कविता में भी एवं जीवन की डगर पर भी शिल्प में आगे निखार आये इसी कामना के साथ

स्नेहाशीष

Sajeev का कहना है कि -

चलो तुम्हारी सलाह पर विचार किया जाएगा...

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

देवकी की छह संतानें मरीं
तो भगवान ख़ुद जन्मे,
पर यह जानवर है
बेज़ुबान..

महज़ स्वाद के लिए
मेरे बच्चों को मत मारो,
तुम भी किसी के बेटे होगे

तुम्हारी कविता किसी को भी शाकाहारी बना देगी। बचपन में कबूतर के बच्चों को कटते देख नहीं पाया और तब से शाकाहारी हूँ। सच है...बेजुबान की ही शामत है।

*** राजीव रंजन प्रसाद

सागर नाहर का कहना है कि -

बहुत ही बढ़िया कविता... पर आपको लगता है आपकी इस कविता को पढ़ने के बाद कोई फरक पड़ेगा या कोई मांसाहारी, शाकाहारी बन जायेगा?

मुझे तो बिल्कुल नहीं लगता, निर्दय लोगों को कतते प्राणी की चीत्कार से कोई फर्क नहीं पड़ता तो आपकी कविता क्या कर लेगी।
फिर भी कोशिश अच्छी की है, धन्यवाद

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

कविता बहुत अधिक प्रभावित नहीं करती, हाँ इससे कवि की जागरूकता ज़रूर दृष्टिगोचर होती है। आपकी कविताओं को पढ़कर यह लगता है आप आसपास की घटनाओं, गतिविधियों का बहुत भारीक विश्लेषण करते है। यह कविता थोड़ी कमज़ोर इसलिए भी बनी है क्योंकि तुक का अत्यधिक मोह किया गया है।

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

विपुल भाई
कविता
मुझे तो पसन्द आई
बधाई हो बधाई
किसी को फर्क पड़े न पड़े
पर 100 प्रतिशत
सच बात बताई
वाह आपकी कविताई
वाह..

विश्व दीपक का कहना है कि -

देवकी की छह संतानें मरीं
तो भगवान ख़ुद जन्मे,
पर यह जानवर है
बेज़ुबान..
इसकी पीड़ा कौन सुने?

विपुल,मैं तुम्हारा प्रशंसक इसलिए हूँ क्योंकि तुम हमेशा अपने आस-पास की समस्याओं को अपनी कविता में ढालते हो। ऎसा करना सबके लिए आसान नहीं होता। तुम्हारी यह कविता भी मुझे बहुत पसंद आई।तुमसे कुछ ऎसा हीं सुनने की उम्मीद बनी रहती है और हर बार तुम उम्मीद पर खड़े उतरते हो।
अगली रचना के इंतजार में-
V.D.

शोभा का कहना है कि -

विपुल जी
बहुत ही बढ़िया लिखा है । माँसाहार मनुष्य की मानवीयता पर प्रश्न खड़ा करता है ।
मेरी ममता को,
यूँ छुरियों से ना काटो..
अरे इंसानों !
मुझ पर रहम करो
छोड़ दो माँसाहार
बस शाकाहार करो..
बहुत ही उपयोगी जानकारी है । बधाई

raybanoutlet001 का कहना है कि -

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