रात की चाशनी,
आसमां की कड़ाही में चाँदनी है छनी।
चाँद मिस्ठी गल रहा,
दूब पर फिसल रहा,
ओस पर हो तार-तार,
जल रहा,उबल रहा।
चलो सब्ज-लौन में चलें,
ओठों पर ओस को मलें,
इस रात ने सींचा जिसे,
उस चाँद के गुड़ को दलें।
रात की चाशनी,
हलक-भर बाँट ले मधुमेह की आमदनी।
चितवन में चाँद डालकर,
अधरों पर ओस पालकर,
इस रात को पी जाएँ हम
घने कुहरे से निकालकर।
चलो, चाँद आँखों में रमा,
एक मीठा सपना दे थमा,
डुबोकर ख्वाब चाशनी में-
दिल की जमीं पर जमा।
रात की चाशनी,
हर चार पहर में एक मधुर चाँद है जनी।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
चितवन में चाँद डालकर,
अधरों पर ओस पालकर,
इस रात को पी जाएँ हम
घने कुहरे से निकालकर।
वाह तनहा जी क्या अंदाज़ है कहने का, समां बाँध दिया आपने
bahut meetha likha hai bilkul chasanee kee tarah.
Badhayee...
Avaneesh S. Tiwari
bhaut achhe, aapki kavita ki tareef me bas itna hi ki gulzar sahab ki yaad aa gai
pankaj ramendu
विश्वदीपक जी
भाव एवं शैली का आप जो प्रयास लेकर चले है उसे देखते हुये आपसे बहुत अपेक्षा है
शुभकामना
तनहा जी,
सचमुच गुलज़ार साब की याद दिला दी आपने....लेकिन "चाशनी" ज्यादा उपयुक्त शब्द है...ज़रा ध्यान दें....
वैसे कविता की उपमा बहुत प्रभावी है...रात को घने कोहरे से निकाल कर पीने का मज़ा आ गया......बधाई...
निखिल
तनहा जी..
क्या कहूँ.."कहते हैं कि तनहा का है अंदाज-ए-बयां और"
रात की चासनी,
आसमां की कड़ाही में चाँदनी है छनी।
इस रात ने सींचा जिसे,
उस चाँद के गुड़ को दलें।
इस रात को पी जाएँ हम
हर चार पहर में एक मधुर चाँद है जनी।
अद्वतीय उपमान हैं।
डुबोने में सक्षम रचना।
*** राजीव रंजन प्रसाद
तन्हा जी,
आप प्रायः पिछली बार से बेहतर और अलग अंदाज़ की कविता लेकर आते हैं। कवि का यह प्रारम्भिक गुण है। बाह चाहे सामाजिक समस्या पर लिखने की हो, बात चाहे प्रेम कविताएँ लिखने की हो या फ़िर सूफ़ियाना , सब ज़गह आप हस्ताक्षर कर चुके है। यद्यपि इस तरह के प्रयोग अमृता प्रीतम ने खूब किए है, अनूठा तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन प्रसंशनिय ज़रूर।
... itna meetha paros diya hai ek baar mein ki ab to madhu-meh hone ka khataraaa ho gaya hai ....
waah waah ...mast likhe hai ek-dum
prashansaneeya kavita ... anootha prayog ...
अजी हम क्या कहें
चिपक गये इस चाशनी में
होठों पर चाशनी, आखों में चाशनी, कानों में चाशनी..
पानी नहीं आयेगा क्या पढकर..
अगली गजक के इंतजार में
तनहाँ जी
बहुत ही प्यारी कविता लिखी है । प्रेम की इतनी सुन्दर अभिव्यक्ति बहुत दिनों बाद मिली ।
चलो, चाँद आँखों में रमा,
एक मीठा सपना दे थमा,
डुबोकर ख्वाब चाशनी में-
दिल की जमीं पर जमा।
दिल से बधाई ।
तन्हा जी,
कुछ ताजापन, नयापन लिये हुये आपकी यह रचना मुझे बहुत पसन्द आई.
सबने इसे गुलजार नुमा रचनायें जब घोषित कर ही दी है,फिर मैं भी बहुमत से अलग क्यूँ जाउँ?
विषयनिष्ठ उपमाओं के प्रयोग के बजाय अगर वस्तुनिष्ठ उपमाओं (बिम्बों)की अवधारणा का उपयोग आप करें, तो ये आपकी शैली के रूप मे देखी जाएगी।
वैसे मेरे ओठ अभी भी अलग नही हो रहे, इतनी चाशनी पी जो है।
मिठास मुबारक हो।
सस्नेह,
श्रवण
चितवन में चाँद डालकर,
अधरों पर ओस पालकर,
इस रात को पी जाएँ हम
घने कुहरे से निकालकर।
बहुत खूब ...
चलो, चाँद आँखों में रमा,
एक मीठा सपना दे थमा,
डुबोकर ख्वाब चाशनी में-
दिल की जमीं पर जमा।...
क्या बात है ....
मुझे तुम्हारी यह रचना बहुत बहुत अच्छी लगी ... इस को मैंने कई बार पढ़ा है ..दिल से पसंद आई यह मुझे
बधाई तुम्हे !
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