आधी रात के बाद
मैं छत पर जाता हूँ
पाँचवीं मंज़िल,
दूर तक दिखाई देता है
सब कुछ शांत,
शिथिल,नीरव!
सुनसान सड़क पर
क़तार में खड़े,
मौन और उदास
स्ट्रीट लाइट..
मानों जल रहे हों
मेरी ही तरह !
कुत्ते भोंकते हैं,
दूर बहुत दूर
मोबाइल के टॉवर दिखते है,
जैसे कहते हों
ऊँचा उठो..
यह फ़िज़ूल की बातें हैं!
बगल का घर,
एक लता लिपटी है
दीवार से
आह!
आँसू निकलता है आँखों से
टप..
पास ही उसका घर
नवरात्र है,
पास ही माँ की मूर्ति बैठी है
मुँह उसके घर की तरफ़
और पीठ मेरी ओर
वो भी..!
आकाश में तारे,
दूर हैं शायद किसी से!
मैं देखता हूँ,
अपनी पलकों को बंद करके
आँसू छुपाते हैं
मेरी छोटी बहन अक्सर पूछती है
भैया..
ये तारे क्यों झिलमिलाते हैं?
पवन चलती है,
हृदय सुलगता है
यादों के अंगारे भड़क जाते हैं
धुआँ उठता है,
अचानक बादल छा जाते हैं!
अब बस..
मैं नीचे आता हूँ
कुछ लिखता हूँ,
अपना लिखा पढ़ता हूँ
बार-बार ख़ुश होता हूँ!
लोग कहते हैं
वाह!नया बिंब है
पर पता है..
यह छत,स्ट्रीट लाइट,टॉवर
इमारतें,दीवारे,कुत्ते,
तारे,आसमान
सब मुझे धिक्कारते हैं,
तू स्वार्थी है,
निरा स्वार्थी!
तू कवि है?
या प्रेमी..
नहीं,तू कुछ भी नहीं..
तू धोखेबाज़ है!
उसकी यादों से दगा करता है,
अश्कों को काग़ज़ पर टपकाता है
शब्दों में ढाल कर सबको बताता है!
रोता है
आँसू बहाता है
नये बिंब और उपमान
गढ़ने के लिए..
अपनी इस नाकारा पीर का
व्यापार करने के लिए!
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
14 कविताप्रेमियों का कहना है :
बुधिया के बाद आज ""छत और मैं ''..भी उतनी ही कमाल का लिखा है तुमने विपुल ..बहुत ही भाव पूर्ण और दिल को छूता हुआ ..जो दर्द इस के लिखने में उभर के आया है वह सच में बहुत ही सुंदर है ..
आँसू निकलता है आँखों से
टप..
पास ही उसका घर
नवरात्र है,
पास ही माँ की मूर्ति बैठी है
मुँह उसके घर की तरफ़
और पीठ मेरी ओर
वो भी..!
वो भी!! .....बहुत कुछ कह दिया तुमने इन पंक्तियों में !!
नये बिंब और उपमान
गढ़ने के लिए..
अपनी इस नाकारा पीर का
व्यापार करने के लिए!
जिस तरह तुमने अपनी सोच को इन पंक्तियों में लिखा है वह बहुत अच्छा लगा... नमन है तुम्हारी सोच को ..
बहुत बहुत शुभकामना और बधाई
सस्नेह
रंजू
chaat ar budhiya accha laga padkr
its amazing ki tu kis tarah choti choti chizo ko involve kr lata ha apni kavitao ma...........
last ki kuch laina kafi acchi ar sochna layak ha.............
vipul ji bahut hi achhi rachna hai.....budhiya ke bad 1 aur saskt rachna haiआँसू निकलता है आँखों से
टप..
पास ही उसका घर
नवरात्र है,
पास ही माँ की मूर्ति बैठी है
मुँह उसके घर की तरफ़
और पीठ मेरी ओर
वो भी..!
is "vo bhi" ke 2 shabdo se 200 shabdo ki bat kar di aapne
badhaiya....
एक लता लिपटी है
दीवार से
आह!
आँसू निकलता है आँखों से
टप..
वाह.... ...
क्या बात है....बहुत अच्छे......
बहुत सशक्त भाव पूर्ण रचना .....आपकी रचना की एक विशेषता ....पाठक
को बाँध कर रखती है प्रारम्भ से अंत तक ......ऐसे ही आपकी लेखनी चलती रहे.........
शुभ - कामनाएं.
हाँ.... एक लय - बद्ध कविता...आपकी लेखनी से.....??
बधाई
सस्नेह
गीता पंडित
jab mai yah kavita padh raha tha tab mujhe ummid thi ki ye gourav ji ne likhi hogi ........
ab kya bolu...
ye tumhari doosari sabse achchi kavita hai......
congrates dear
प्रिय विपुल जी
आपकी कविता पर मैं टिप्पणी करने से अधिक उसमें
अभिव्यक्त वेदना पर कहना चाहूंगा यह जो आपको लगता है यही आत्मा की पुकार है इस आयु में कुछ कर गुजारने की स्वयं से पुकार है इससइ पहले कि यह पुकार जीवन की आपा धापी में खो जाये युवाओं के युगधर्म का परिपालन जो कर गया
वह नया इतिहास रच गया
काव्य धर्म के साथ साथ युवधर्म और युगधर्म का भी संतुलित निर्वाह हो यही विचार तो विगत में अमर शहीद भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल .... जैसे कोटि कोटि आत्माओं को ...... और आगे शब्द छोटे हैं कुछ नहीं कह सकता आप जैसे युवाओं की आज बहुत आवशयकता है.
अपनी आत्मा की मइस पुकार को सदैव जाग्रत रखें कविता लिखना एक दीपक से दूसरे दीपक को ज्जवलित करना ही है
सस्नेह
uf vipul, kya hai tumhari kalam me jo is tarah man ko chu jaati hai, budhia se pare bhi tum utne hi saksham ho, har ravivaar tumhari nayi kavita ka intezaar rahta hai mujhe
विपुल जी,
सुन्दर लिखा है आपने.
एक बात कहूं... कविता है तो ठीक है अगर सचमुच में ऐसा हो रहा है तो गडबड है... मुझे तो छत पर और कुछ नजर आता है पता नहीं आप क्या देखते हैं. :)
विपुल जी
मन की अनुभूतियों को बहुत सुंदर व्यक्त किया है. तुमको यदि सच मैं ऐसा लगता है फ़िर निश्चय ही तुम बहुत संवेदन शील कवि हो . अपनी इस संवेदन शीलता को बनाये रखो. देश को और मानवता को इसकी बहुत जरुरत है. आशीर्वाद सहित
क़तार में खड़े,
मौन और उदास
स्ट्रीट लाइट..
मानों जल रहे हों
मेरी ही तरह !
भैया..
ये तारे क्यों झिलमिलाते हैं?
पवन चलती है,
हृदय सुलगता है
यादों के अंगारे भड़क जाते हैं
धुआँ उठता है,
अचानक बादल छा जाते हैं!
अश्कों को काग़ज़ पर टपकाता है
शब्दों में ढाल कर सबको बताता है!
रोता है
आँसू बहाता है
नये बिंब और उपमान
गढ़ने के लिए..
अपनी इस नाकारा पीर का
व्यापार करने के लिए!
विपुल इन दिनों जिस कवि नें युग्म पर सर्वाधिक प्रभावित किया है तो वह तुम हो। तुम्हारी संवेदना जिन शब्दों में बह रही है वह पाठक के मन में भी विप्लव पैदा करती है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
ठीक है. पंक्तियाँ कविता की दिशा में जा रही हैं
ठीक कविता है.
विपुल जी,
कविता की प्रत्येक पंक्ति ने हृदय को छू लिया. बधाई......
तू धोखेबाज़ है!
उसकी यादों से दगा करता है,
अश्कों को काग़ज़ पर टपकाता है
शब्दों में ढाल कर सबको बताता है!
रोता है
आँसू बहाता है
नये बिंब और उपमान
गढ़ने के लिए..
अपनी इस नाकारा पीर का
व्यापार करने के लिए!
वाह विपुल जी! कविता के अंत ने सर्वाधिक प्रभावित किया।
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