आज तेरे ख़त जला रहा हूँ।
अपनी हस्ती मिटा रहा हूँ।।
आग की उठती लपटों में;
तेरी यादें जला रहा हूँ।
काली राख के टुकड़ों में मैं;
गम की स्याही छुपा रहा हूँ।
राख फिज़ा में बिखर रही है;
खुद को इसमें मिला रहा हूँ।
आज तेरे ख़त जला रहा हूँ।
अपनी हस्ती मिटा रहा हूँ।।
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
काली राख के टुकड़ों में मैं;
गम की स्याही छुपा रहा हूँ।
bahut badhia sher hai pankaj ji ek ghazal yaad aa gayi-
teri khushboo men base khat men jalaata kaise .....
पंकज जी,
इस बार मुझे आपकी गज़ल कुछ कमजोर लगी।भाव भी कुछ खासे नए नहीं हैं। शिल्प भी आपकी बाकी गज़लों से कमतर है। आपसे बहुत उम्मीद रहती है। अगली मर्तबा से ध्यान देंगें।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
पंकज जी,
यह तो तय है कि इस गज़ल को यदि स्वर दिया जाये तो सुनने वाला उसमें डूब अवश्य जायेगा। भावों में गहराई है, शिल्प आपका ध्यान चाहता है।
***राजीव रंजन प्रसाद
अच्छा प्रयास है.
अवनीश तिवारी
अजय जी
प्रेम में निराशा अक्सर ही आती है । आपने उस निराशा को एक सुन्दर गज़ल के रूप में ढ़ाल दिया।
काली राख के टुकड़ों में मैं;
गम की स्याही छुपा रहा हूँ।
राख फिज़ा में बिखर रही है;
खुद को इसमें मिला रहा हूँ।
ख़त जलाने से यादें नहीं मिटती बस इतना याद रखिएगा । सस्नेह
पंकज जी,
इसे भी आवाज दे ही दीजिए।
पंकज जी कोशिश बहुत अच्छी है पर विषय नया नही है यह शेर बहुत अच्छे लगे...
काली राख के टुकड़ों में मैं;
गम की स्याही छुपा रहा हूँ।
राख फिज़ा में बिखर रही है;
खुद को इसमें मिला रहा हूँ।
काली राख के टुकड़ों में मैं;
गम की स्याही छुपा रहा हूँ।
पंकज जी,
प्रयास अच्छा है
सस्नेह
मिटाए न मिटेगी तेरी हस्ती
मासूम ख़त जलाने से
दुनिया रह जायेगी हंसती
तेरे रुलाने से
ख़त रखना संभाल के
इनकी खुशबू आएगी
जिंदगी को बेरंग न समझ
देखना मेरे दोस्त
वो लौट के जरुर आएगी
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