पंकज रामेन्दू मानव से हिन्द-युग्म कर पुराने पाठक खूब परिचित होंगे। पिछले ३ महीनों से पंकज जी हमारी यूनिकवि प्रतियोगिता एवम् काव्य-पल्लवन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते रहे हैं। हम उनसे गुजारिश करेंगे कि यूनिपाठक प्रतियोगिता में शामिल होने के लिए भी समय निकालें। सितम्बर माह की प्रतयोगिता में भी इन्होंने भाग लिया और खुद को अंतिम बीस कवियों में दर्ज़ किया।
कविता- बलात्कार के प्रकार
कवयिता- पंकज रामेन्दू मानव
मैं एक औरत हूं
मेरा रोज़ बलात्कार किया जाता है
बलात्कार सिर्फ वो नहीं है
जो अंग विच्छेदन पर हो
बलात्कार सिर्फ वो भी नहीं है
जब कपड़ों को तार-तार करके कई लोग जानवरों के समान
मेरा मांस नोचते हैं
वो तो अपराध भी होता है
यह बात जानते हुए, अब मेरा बलात्कार
दूसरी तरह से किया जाता है
यह बलात्कार हर दिन होता है
भीड़ में होता है, समाज के सामने होता है
कई बार समाज खुद इसमें शरीक भी हो जाता है
इसमें मेरे कपड़े तार -तार नहीं होते
कई निगाहें रो़ज़ मुझे इस तरह घूरती हैं कि
वो कपड़ों को भेदती चली जाती हैं, और मैं सबके सामने
खुद को नंगा खड़ा पाती हूँ
कई बार बातों से भी मेरी अस्मिता लूटी जाती है और
धृतराष्ट्र समाज के सामने द्रोपदी बनी मेरी आत्मा
मदद की गुहार लगाती रहती है,
अपने हाथों से अपने बदन को ढाँकती
मेरी आत्मा ज़ुबान से आवाज़ नहीं निकाल पाती है
ऐसे ही न जाने कितने तरीकों से लुटती मैं रोज़ाना
इन्हीं अपराधियों का सामना करती हूँ
समाज के शरीफ की श्रेणी में रखे जाने वाले ये लोग
बात-बात पर मेरे बदन के स्पर्श का लुत्फ लेते ये लोग
कभी अपराधी नहीं माने जाएँगे
क्योंकि यह आपराधिक बलात्कार नहीं
रिज़ल्ट-कार्ड
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प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ६॰५, ७॰५, ५, ६॰५, ७॰३
औसत अंक- ६॰५६
स्थान- बीसवाँ
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द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक-७॰५, ७॰४, ५॰१, ६॰५६ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ६॰६४
स्थान- सत्रहवाँ
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :
धृतराष्ट्र समाज के सामने द्रोपदी बनी मेरी आत्मा
मदद की गुहार लगाती रहती है,
अपने हाथों से अपने बदन को ढाँकती
मेरी आत्मा ज़ुबान से आवाज़ नहीं निकाल पाती है
ऐसे ही न जाने कितने तरीकों से लुटती मैं रोज़ाना
इन्हीं अपराधियों का सामना करती हूँ
समाज के शरीफ की श्रेणी में रखे जाने वाले ये लोग
बात-बात पर मेरे बदन के स्पर्श का लुत्फ लेते ये लोग
कभी अपराधी नहीं माने जाएँगे
क्योंकि यह आपराधिक बलात्कार नहीं
कथ्य गंभीर और विचारणीय है। रचना अच्छी बन पडी है। कविता का शीर्षक आपके कथ्य की गंभीरता को मार रहा है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
कथ्य में नयापन नहीं है और न ही यह कविता बनने के करीब। कुछ आतंरिक-बाह्य सोंदर्य भी डालें।
मानव जी,
कविता के भाव विचारणीय हैं। कथ्य भी बढिया है। बस इसे कविता बनाने के लिए थोड़ी और मेहनत की जानी चाहिए थी।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
धृतराष्ट्र समाज के सामने द्रोपदी बनी मेरी आत्मा
मदद की गुहार लगाती रहती है,
अपने हाथों से अपने बदन को ढाँकती
मेरी आत्मा ज़ुबान से आवाज़ नहीं निकाल पाती है
ऐसे ही न जाने कितने तरीकों से लुटती मैं रोज़ाना
इन्हीं अपराधियों का सामना करती हूँ
अच्छा लिखा है..
सोचनीय
कटु सत्य है। आप बधाई के पात्र हैं। कम से कम नारी की व्यथा को जाना तो और इन्हें शब्दों में ढाला तो।
रामेन्दू जी
कविता विचारों को उत्तेजना देती है । आप सच कह रहे हैं । आपने वो बात कही है जो हर औरत महसूस
करती है । आप आज नारी की आवाज़ बने धन्यवाद । साधुवाद ।
समाज के शरीफ की श्रेणी में रखे जाने वाले ये लोग
बात-बात पर मेरे बदन के स्पर्श का लुत्फ लेते ये लोग
कभी अपराधी नहीं माने जाएँगे
क्योंकि यह आपराधिक बलात्कार नहीं
इतनी सशक्त अभिव्यक्ति के लिए बधाई
शिल्प इत्यादि पर चर्चा न करते हुए केवल इतना कहूँगा कि कथ्य विचारणीय है. कहीं ना कहीं हम सभ्य होने का दावा करने वाले लोग सुविधानुसार अवसर पाते ही वीभत्स हो जाते हैं. निम्न पंक्तियाँ उस कटु सत्य का प्रतिबिम्बन हैं-
धृतराष्ट्र समाज के सामने द्रोपदी बनी मेरी आत्मा
मदद की गुहार लगाती रहती है,
अपने हाथों से अपने बदन को ढाँकती
मेरी आत्मा ज़ुबान से आवाज़ नहीं निकाल पाती है
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