दुख सागर में सुख टापू है
सुख की खोज भटकने वालो,
अति सुख से भी सुन्दर है 'वह'
ढूँढ़ सको यदि दुख में पाओ.
सुख दुख तो आवश्यकता है
जीवन गाड़ी के दो पहिये,
दुख बिना अस्तित्व नही कुछ
पहले सुख का मोल चुकाओ.
पल अमूल्य कुछ दुख संग बीते
भूलो अब इतिहास बना दो,
अति उत्साही चरण तमस में
रोको अब निज पथ पर आओ.
आंखे खोलो उठो, ज़गो, अब..
मानव स्वांगत करो अंरूण का,
सन्ध्या कब की बीत चुकी है
जीवन पथ पर कदम बढाओ.
अति सुख से भी सुन्दर है 'वह'
ढूँढ सको यदि दुख में पाओ
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11 कविताप्रेमियों का कहना है :
श्रीकान्त जी
एक अच्छी कविता लिखी है । इसमें दार्शनिकता भी देखने को मिलती है । सुख-दुख की बहुत सुन्दर व्याख्या
की है । जीवन में अगर इसका ग्यान हो जाए तो वह मिल जाता है जिसकी तलाश हर किसी को होती है ।
आंखे खोलो उठो, ज़गो, अब..
मानव स्वांगत करो अंरूण का,
सन्ध्या कब की बीत चुकी है
जीवन पथ पर कदम बढाओ.
इतनी सही औृ सकारात्मक सोच देने के लिए बधाई ।
कान्त जी बहुत ही सुंदर आपने जीवन की परिभाषा इस रचना में लिख दी है ...जब भी आपके लिखे को पढ़ा है तभी एक बात दिल मैं आई है की आपके पास शब्द और भाव दोनों ही बहुत सुंदर है आपका शब्दकोष बहुत ही विस्तृत है:)
अच्छा लगा आपकी इस नई रचना को पढ़ना यह पंक्तियां विशेष रूप से पसंद आई
सुख दुख तो आवश्यकता है
जीवन गाड़ी के दो पहिये,
दुख बिना अस्तित्व नही कुछ
पहले सुख का मोल चुकाओ.
बधाई !!
आपने बहुत साहस का काम किया है. एक तरह से दुःख: को निमंत्रण दे रहे हैं.
कविता भी बहुत अच्छी लिखी है आपने.
आपने लिखा है :-
अति सुख से भी सुन्दर है 'वह'
ढूँढ सको यदि दुख में पाओ
मैं कहना चाहूँगा :-
रे दुःख: तू इतना हैरान, इतना परेशान क्यूँ है,
मेरे दिल के होते खोजता-फिरता दुसरा मकान क्यूँ है.
जीवन की इससे बेहतर परिभाषा क्या होगी ?मन मोह लिया आपकी कविता ने ...
वाह...
आंखे खोलो उठो, ज़गो, अब..
मानव स्वांगत करो अंरूण का,
सन्ध्या कब की बीत चुकी है
जीवन पथ पर कदम बढाओ.
श्रीकांत जी आपसे शायद उम्मीदें मेरी ज्यादा है, भाव अच्छे हैं प्रस्तुति में कुछ और अच्छे की गुन्जयिश लगती है मुझे.... पर ये पक्तियाँ मन को छू गई
अति सुख से भी सुन्दर है 'वह'
ढूँढ सको यदि दुख में पाओ
श्रीकान्त जी,
सुन्दर भावभरी रचना है..
सच में दुख ना होता तो कभी सुख की अनुभूति न हो पाती.
एक कवि सम्मेलन में मैने एक कवित सुनी थी.. कवि का नाम ध्यान नहीं आ रहा... जिसमें सुख और दुख आपस में बात कर रहे है.. सुख दुख से कहता है कि क्या कारण है कि जिस घर में तुम होते हो मैं वहां जलदी से नहीं आ पाता परन्तु जिस घर में मैं होता हूं तुम तुरन्त बिना खटके चले आते हो... तब दुख का उत्तर था.... कि जब सुख की मात्रा बडी हो जाती है तो वो "सुख" से "सूख" हो जाता है और मैं चला आता हूं
बहुत ख़ूब कहा है "मिश्र जी" आपने, सच ही तो है......
सुख दुख तो आवश्यकता है
जीवन गाड़ी के दो पहिये,
दुख बिना अस्तित्व नही कुछ
पहले सुख का मोल चुकाओ.
पल अमूल्य कुछ दुख संग बीते
भूलो अब इतिहास बना दो,
अति उत्साही चरण तमस में
रोको अब निज पथ पर आओ.
बहुत अच्छा.
सुन्दर लिखा है श्री जी,
भाव व दर्शन दोनो से ओत प्रोत कविता है, जीवन को परिभाषित करती..
अति सुख से भी सुन्दर है 'वह'
ढूँढ सको यदि दुख में पाओ
हास तौर से प्रभावित करती है.
सुन्दर प्रेरणादायक रचना है श्रीकांत जी अच्छा लगा पढ़कर...सुख-दुख का मेला चलता ही रहता है आपने कविता में संदेश अच्छा दिया है...
पल अमूल्य कुछ दुख संग बीते
भूलो अब इतिहास बना दो,
अति उत्साही चरण तमस में
रोको अब निज पथ पर आओ.
आंखे खोलो उठो, ज़गो, अब..
मानव स्वांगत करो अंरूण का,
सन्ध्या कब की बीत चुकी है
जीवन पथ पर कदम बढाओ.
बधाई स्वीकार करें...
सुनीता(शानू)
ढूँढ़ सको यदि दुख में पाओ.
पहले सुख का मोल चुकाओ.
अति सुख से भी सुन्दर है 'वह'
ढूँढ सको यदि दुख में पाओ
दार्शनिक रचना।
*** राजीव रंजन प्रसाद
श्रीकान्त जी !
एक अच्छी, सुन्दर,
भावभरी दार्शनिक कविता ...
अति सुख से भी सुन्दर है 'वह'
ढूँढ सको यदि दुख में पाओ
बधाई ।
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