एक रेल की पटरी पर , मैने भटकता बचपन देखा
मन में करुण कराह उठी,था उसे भटकता जिस क्षण देखा
कन्धे पर एक दूषित सा गन्दा बोरा लटकाये
चेहरे पर अपने जीवन की बेबसता का बोझ उठाये
चला जा रहा था लेकिन उस ओर जहाँ सब जाते है
मन्जिल मिलने से पहले, विश्राम पथिक कब पाते हैं
पैरों की दयनीय स्थिति कहती थी आराम करो
किन्तु पेट की अगन उसे धिक्कार रही थी काम करो
एक अजब से असमंजस में घिरा हुआ जीवन देखा
मन में करुण कराह उठी था उसे भटकता जिस क्षण देखा
कचरा ,थैली ,दौने , बोतल बस ये ही खेल खिलौने थे
धूप से झुलसी देह से बहते बूँदो में स्वप्न सलौने थे
आती जाती रेलों के बीच , वो प्रश्नचिन्ह खडा पाया
भारत की हर एक समस्या से,वो बचपन बहुत बडा पाया
भारत के सुखद भविष्यों पर ,जब भी कोई गीत बनाता है
जब देश के ठेकेदारों को , कोई हर पँक्ति में सजाता है
तब दिल से उठती आह,रुदन में ऐसा बचपन होता है
जो घर की जिम्मेदारी में अपना यौवन खो देता है
उस वक़्त हमारे भारत का सारा विकास रुक जाता है
जब कोई बच्चा फेंकी हुई जूँठन को उठा कर खाता है
क्या कारण है इस बच्चे तक कोई स्कूल नहीं पहुँचा ?
दो जून का भोजन भी सोचो तुम क्यूँ अनुकूल नहीं पहुँचा ?
क्या कारण तन को ढकने के संसाधन इसको नहीं मिले ?
जो पुष्प खुसी देते मन को क्यूँ इस धरती पर नहीं खिले ?
सर्दी से ठिठुरती रातों मे ,जब घुटने पेट को ढकते हैं
बारिश से टपकती झुग्गी मे,जब भीगे स्वप्न सुलगते हैं
जब घर मे आई रोटी पर छीना झपटी सी होती है
जब बच्चों को बिलखता देख,भूँख से बेबस ममता रोती है
उस वक़्त बालश्रम भारत की पहली मजबूरी लगता है
पटरी पे भटकता ये बचपन , तब बहुत जरूरी लगता है
पटरी पे भटकता ये बचपन ,तब बहुत जरूरी लगता है
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18 कविताप्रेमियों का कहना है :
विपिन जी
बहुत ख़ूब लिखा है आपने, बचपन का एक करुनात्मक स्वरूप दर्शाया है. आपकी कविता पढ़ते हुए मुझे अभी हाल ही में शूट की हुई अपनी एक फ़िल्म याद आ गई, जिसका शीर्षक था "खोखला बचपन". आपका लिखा हर शब्द मैंने कैमरे पर उतरा है.
मेरी बधाई स्वीकार करें.
आती जाती रेलों के बीच , वो प्रश्नचिन्ह खडा पाया
भारत की हर एक समस्या से,वो बचपन बहुत बडा पाया
भारत के सुखद भविष्यों पर ,जब भी कोई गीत बनाता है
जब देश के ठेकेदारों को , कोई हर पँक्ति में सजाता है
तब दिल से उठती आह,रुदन में ऐसा बचपन होता है
जो घर की जिम्मेदारी में अपना यौवन खो देता है
बहुत ख़ूब.
सर्दी से ठिठुरती रातों मे ,जब घुटने पेट को ढकते हैं
बारिश से टपकती झुग्गी मे,जब भीगे स्वप्न सुलगते हैं
येह पंक्तिया तो बस छू जाती है,बहुत अच्छा लिखा है......
विपिन जी
कविता तो अच्छी लगी प्र कुछ दुरूह है . पढ़ कर दिमाग पर जोर पड़ता लग रहा है .
विपिन "मन" जी,
आपकी रचना की रवानगी बिलकुल नदी की तरह है। पाठक एक स्वांस में पढ सकता है और आपकी काव्य-कुशकता, शिल्प और भाव प्रवणता पर मुग्ध हो सकता है। पंक्तियाँ एसी हैं कि रोंगटे खडे कर दें:-
कचरा ,थैली ,दौने , बोतल बस ये ही खेल खिलौने थे
धूप से झुलसी देह से बहते बूँदो में स्वप्न सलौने थे
आपके तेवर बताते हैं आपकी सोच की धारा क्या है और कितनी उत्कृष्ट है:-
आती जाती रेलों के बीच , वो प्रश्नचिन्ह खडा पाया
भारत की हर एक समस्या से,वो बचपन बहुत बडा पाया
उस वक़्त हमारे भारत का सारा विकास रुक जाता है
जब कोई बच्चा फेंकी हुई जूँठन को उठा कर खाता है
जब बच्चों को बिलखता देख,भूँख से बेबस ममता रोती है
उस वक़्त बालश्रम भारत की पहली मजबूरी लगता है
पटरी पे भटकता ये बचपन , तब बहुत जरूरी लगता है
इतना मार्मिक कि स्वत: आपका पाठक व्यवस्था के खिलाफ अपनी सोच और पैनी कर लेगा। हर पंक्ति एक चिंतन है और गहरी भी। आप हिन्द युग्म पर एक सश्क्त हस्ताक्षर सिद्ध होंगे। बधाई...
*** राजीव रंजन प्रसाद
हिन्द युग्म के मंच पर आपका हार्दिक स्वागत है। धमाकेदार शुरूवात के लिये हार्दिक शुभकामनाऐं
प्रिय विपिन जी मैं अपने शब्दों की पुनरावृत्ति कर रहा हूँ की आपके शब्दचयन, आपकी कविता का प्रवाह तथा भाषाशैली अवर्णनीय है! आपकी कविता में कई पंक्तियाँ सीधे ह्रदय को छूती हैं! पाठकों को आपसे जो आस थी उस कसौटी पैर आप खरे उतर रहे हैं! मेरी शुभकामनायें आपके साथ हैं की आप से सदैव इसी प्रकार की रचना प्राप्त होती रहेगी!
बधाई स्वीकार करें!
pahli majburi padhi,,,,aap sach me mahan hai dost..main natmastak hu aapke samne,,humare vichar bahut had tak milte hai dost,,,,,
उस वक़्त हमारे भारत का सारा विकास रुक जाता है
जब कोई बच्चा फेंकी हुई जूँठन को उठा कर खाता है
in do line ne mujhe rula diya dost,,,main aapka aajiwan aabhari rahunga ki aapne mujhe apna dost samjha....
aap jaise logo ki jarurat hai humare samaj ko , humare desh ko,,,,
magar dukh to us waqt hota hai jab dekhta hu ki aaj k yuwa warg ko desh k bare me sochne ki fursat hi nahi hai,,kai baar yahi sb soch kar rone lagta hu ki hum kis disha ja rahe hai,,
aapni aane wali pidhi k liye kya kaise samaj ka nirmarn kar rahe hai hum...humare purwajo ne ese kaam kiye the ki hum un par aur desh par garv kar sake...lekin kal jab humare hi bache humse puchenge ki kis baat par garv kare to unhe kya jawab denge hum,,,,,,,
मित्र बधाई हो,
अत्यंत ही उत्कृष्ट रचना लिख्नने के लिये, सीधे सीधे दिल तक प्रहार करतें है आपके शब्द
बहुत ही प्रवाहपूर्ण रचना है दोस्त, और वास्तविकता को दर्शाती हुई आज के बचपन पर होते अन्याय और वस्तुस्थिति को जाहिर करती..
"पैरों की दयनीय स्थिति कहती थी आराम करो
किन्तु पेट की अगन उसे धिक्कार रही थी काम करो
एक अजब से असमंजस में घिरा हुआ जीवन देखा
मन में करुण कराह उठी था उसे भटकता जिस क्षण देखा
कचरा ,थैली ,दौने , बोतल बस ये ही खेल खिलौने थे
धूप से झुलसी देह से बहते बूँदो में स्वप्न सलौने थे
आती जाती रेलों के बीच , वो प्रश्नचिन्ह खडा पाया
भारत की हर एक समस्या से,वो बचपन बहुत बडा पाया"
"सर्दी से ठिठुरती रातों मे ,जब घुटने पेट को ढकते हैं
बारिश से टपकती झुग्गी मे,जब भीगे स्वप्न सुलगते हैं
जब घर मे आई रोटी पर छीना झपटी सी होती है
जब बच्चों को बिलखता देख,भूँख से बेबस ममता रोती है"
कमाल का शब्द-संयोजन विपिन जी
शुभकामनायें
-राघव्
विपिन जी बहुत ही जोश है आपकी लेखनी में अच्छा लगा इस रचना को पढ़ना !!
आती जाती रेलों के बीच , वो प्रश्नचिन्ह खडा पाया
भारत की हर एक समस्या से,वो बचपन बहुत बडा पाया
भारत के सुखद भविष्यों पर ,जब भी कोई गीत बनाता है
जब देश के ठेकेदारों को , कोई हर पँक्ति में सजाता है
तब दिल से उठती आह,रुदन में ऐसा बचपन होता है
जो घर की जिम्मेदारी में अपना यौवन खो देता है
उस वक़्त हमारे भारत का सारा विकास रुक जाता है
सार्थक और सच्ची रचना है....रास्तों रेल के पटरियों पर भटकते भूखे लाचार घूम होते बचपन का कारुनीय वर्णन किया है आपने.....जो पाठक के ह्रदय को बेद्ता है.एक संवेदनशील रचियता का परिचय देता है ये काव्य. बधाई....
दिव्या
बन्धु विपिन जी !
मन्जिल मिलने से पहले, विश्राम पथिक कब पाते हैं
जब देश के ठेकेदारों को , कोई हर पँक्ति में सजाता है
उस वक़्त हमारे भारत का सारा विकास रुक जाता है
क्या कारण है इस बच्चे तक कोई स्कूल नहीं पहुँचा ?
बारिश से टपकती झुग्गी मे,जब भीगे स्वप्न सुलगते हैं
जब घर मे आई रोटी पर छीना झपटी सी होती है
आपकी कविता में प्रवाह तो है ही
राष्ट्रीय संदर्भ के प्रश्न उठाती इस रचना में
आपने कवि के युगधर्म का निर्वाह भी बखूबी किया है
बधाई
..सहानुभुति की अधिकता कभी भी असल दुख और गुस्से तक नही पहुँच पाती जिसके कारण रचना कमज़ोर हो जाती है. एक अच्छी रचना हमेशा एक निर्मम तटस्थता की माँग करती है. विषय चाहे जितना दुख या सुख देने वाला हो.
विपिन जी !
उत्कृष्ट प्रवाहपूर्ण रचना
ऐसा बचपन होता है
जो घर की जिम्मेदारी में अपना यौवन खो देता है
उस वक़्त हमारे भारत का सारा विकास रुक जाता है
जब कोई बच्चा फेंकी हुई जूँठन को उठा कर खाता है
बहुत ख़ूब
बधाई स्वीकार करें.
आपकी संवेदनाओं को सलाम है विपिन जी बधाई मर्म को स्पर्श करने के लिए
विपिन जी
देर से आने के लिए क्षमा चाहूँगा |
कविता बहुत ही अच्छी बन पड़ी है भावों की सांद्रता चार चाँद लगा रही है| कई पंक्तियाँ तो सीधे दिल में उतर जाती हैं ..
धूप से झुलसी देह से बहते बूँदो में स्वप्न सलौने थे
उस वक़्त हमारे भारत का सारा विकास रुक जाता है
जब कोई बच्चा फेंकी हुई जूँठन को उठा कर खाता
सर्दी से ठिठुरती रातों मे ,जब घुटने पेट को ढकते हैं
बारिश से टपकती झुग्गी मे,जब भीगे स्वप्न सुलगते हैं
जब घर मे आई रोटी पर छीना झपटी सी होती है
जब बच्चों को बिलखता देख,भूँख से बेबस ममता रोती है
वाह.. क्या बात है !
पर एक कमी भी खटक रही है .. पहले अंश में लय बड़ी गड़बड़ हो रही है
"मन में करुण कराह उठी,था उसे भटकता जिस क्षण देखा"
इस पंक्ति के बजाय जिन पंक्तियों से आपने कविता का अंत किया है आप उन्हे प्रमुखता देते तो शायद कविता और लाजवाब हो जाती..
"उस वक़्त बालश्रम भारत की पहली मजबूरी लगता है
पटरी पे भटकता ये बचपन , तब बहुत जरूरी लगता है"
Bhote umda likha hai aapne,har sabd aur uska sayojan bilkul lay me hai,
sachmuch ek nirah se bachpan aur uske dard ka sundar chitran hai..........
aap bhote hi natural likhte hai, aapki abhivakti bhote hi sarthak hai, jo man ko chu leti hai.
रेल की पटरी से आरम्भ होकर भारत के विकास पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करने वाली यह कविता मर्म को स्पर्श करती है।
Genial post and this mail helped me alot in my college assignement. Say thank you you seeking your information.
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