जिस व्यवस्था का द्योतक हूँ मैं,
जिसका निर्णायक और पोषक हूँ मैं,
जिसे रीढ दी है
और जिसमें साँसें फूँकी है मैने,
आज उसी की
चरमराती नब्ज पर
ऊँगलियाँ डालने से कतरा रहा हूँ,
बलबलाता नासूर समझ आँखें मूँद रहा हूँ,
नाक ढँक रहा हूँ
और
जर्द पड़ते जिस्म से दूर जा रहा हूँ।
इस मरती व्यवस्था का
मैं
कभी इलाज नहीं कराता
लेकिन
कर्तव्य निबाहता हूँ-
मर्ज बताने में कभी भी
पीछे नहीं रहता।
मैं
जब भी कभी
इस पीलियाग्रस्त जिस्म में
सांप्रदायिकता के लाल फफोले ढूँढता हूँ-
धर्म को संप्रदायिकता करार देकर
और इसे हीं मर्ज बताकर
राम या रहींम वाले मवाद गिनवाता हूँ।
मैं
जब भी कभी
पिघलती नब्जों में
भ्रष्टाचार और बेईमानी के जहर पाता हूँ,
दिल और मस्तिष्क में काबिज
नेताओं पर दोष मढ देता हूँ,
उन्हें "वायरस" बताकर
खुद को पाक-साफ बताता हूँ।
मैं
जब भी कभी
मरोड़ती अँतरियों में भूख पलता पाता हूँ,
गरीबी , अकाल सुलगता पाता हूँ,
व्यवस्था की पाचन तंत्रिकाओं पर
देर तक झल्लाता हूँ,
जिह्वा को कोसता हूँ,
संकड़ी नलिकाएँ दिखाता हूँ।
लेकिन
भूख को दो जून रोटी मुहैया नहीं कराता।
फिर भी
मुझे दंभ है कि
मैं बुद्धिजीवी हूँ,
या एक सच्चा कवि हूँ, लेखक हूँ
या फिर एक पिता हूँ।
...
...
वस्तुत:
मैं अकर्मण्य हूँ।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
दिल को छू लेने वाली बात कह दी । वस्तुत: हम सभी अकर्मण्य हैं । चीय पीते हुए व्यवस्था को कोस तो सकते हैं पर उसके खिलाफ खडे होने का साहस नही है हममें ।
तनहा जी
आप एक दम सही कह रहे हैं । हम सब लोग बहुत कमजोर हैं । सब कुछ जानते बूझते हुए भी कुछ नहीं करते
बस देखते रहते हैं । सुबह-सुबह इतनी अच्छी कविता पढ़ने को मिली । आनन्द आ गया । सुन्दर भाषा में
सशक्त रचना देने के लिए आप निश्चय ही बधाई के अधिकारी हैं । नव जागृति का सन्देश देने के लिए बधाई ।
badhiyan kavita hai VD Bhai
vd तुमने दुखती नस पर हाथ धर दिया है, यही तो गम है की चाह कर भी हम अकर्मण्य हैं, पर अब इतने भी नही, कोशिश तो कर ही रहे हैं हम सब मिल कर, भाव और विचार बहुत सुंदर हैं, पर कविता श्याद सुनने में ज्यादी अच्छी लगेगी क्योंकि पढने के दौरान कहीँ कहीँ लय छुटती सी लगी मुझे
हमेशा की तरह सच और सुंदर लिखा है आपने
मैं
जब भी कभी
पिघलती नब्जों में
भ्रष्टाचार और बेईमानी के जहर पाता हूँ,
दिल और मस्तिष्क में काबिज
नेताओं पर दोष मढ देता हूँ,
उन्हें "वायरस" बताकर
खुद को पाक-साफ बताता हूँ।
सच में हम सब यही तो करते हैं ...
शुभकामनाएं
रंजू
तनहा जी,
आप अकर्मण्य नहीं रहे। यह कविता हाँथी के दिखाने वाले दाँत नहीं हैं। यह कविता व्यवस्था के खिलाफ ही है, और सत्य कहती है कि हम अकर्मण्य हैं इसी लिये व्यवस्था निष्क्रिय। कवि ने सही अनवेष्ण किया है कि :
"जिसका निर्णायक और पोषक हूँ मैं,
जिसे रीढ दी है
और जिसमें साँसें फूँकी है मैने,
आज उसी की
चरमराती नब्ज पर
ऊँगलियाँ डालने से कतरा रहा हूँ"
बच कर गुजर जाओ और कलमकार भी कहलाओ...यह दौर बीत जाना चाहिये। बीते हुए वक्त का मवाद बहुत है, इसने मानसिकता को खोखला कर दिया है।.... और यह केवल कमजोरी नहीं, तथाकथित विचारकों का एसकेप रूट भी बन गया है। कोई अराजकता हो बैठ जाओ पुरानी किताबें खोल कर कि हमारे परदादा निकम्मे और खरदादा बंदर, अपना गिरेबां तो सफेद रखना ही है।
"फिर भी
मुझे दंभ है कि
मैं बुद्धिजीवी हूँ,
या एक सच्चा कवि हूँ, लेखक हूँ
या फिर एक पिता हूँ।"
क्या इससे करारा प्रहार हो सकता है? अलख जगायी है आपने। कलम को कर्तव्य याद दिलाने का जो यत्न किया है आपने उससे आप "अकर्मण्यता" की परिधि से बाहर निकल आते हैं। यही तो कलम से आज अपेक्षा है....
*** राजीव रंजन प्रसाद
विश्वदीपक जी
फिर भी
मुझे दंभ है कि
मैं बुद्धिजीवी हूँ,
या एक सच्चा कवि हूँ, लेखक हूँ
या फिर एक पिता हूँ।
...
वस्तुत:
मैं अकर्मण्य हूँ।
करारा व्यंग है तथाकथित बुद्धिजीवी समाज पर भी
एवं अकर्मण्य मानसिकता के अन्य सभी लोगों पर
भी आप की लेखनी से एक और अच्छी अलख
जगाने वाली रचना
शुभकामनायें
बिल्कुल सही कह है आपने, हुम सभी मे उस तरह के सकिर्यता क अभव है जैसी होनी चहीये .
आवनीश तिवारी
तन्हा जी,
आपने सही लिखा है.. बहुत सी खामियों के लिये हम जिम्मेदार हैं क्योंकि हम ही उनके पोषक है..
शुरूआत से अन्त तक सुन्दर लिखा है...
ये पंक्तियां ही सब कुछ समझा देती हैं
जिस व्यवस्था का द्योतक हूँ मैं,
जिसका निर्णायक और पोषक हूँ मैं,
जिसे रीढ दी है
और जिसमें साँसें फूँकी है मैने,
आज उसी की
चरमराती नब्ज पर
ऊँगलियाँ डालने से कतरा रहा हूँ,
तनहा जी,
मैं बुद्धिजीवी हूँ,
या एक सच्चा कवि हूँ, लेखक हूँ
या फिर एक पिता हूँ।
...
...
वस्तुत:
मैं अकर्मण्य हूँ।
आपकी लेखनी बराबर कर्म कर रही है |
बहुत सुंदर भाव .....
सशक्त रचना देने के लिए
बधाई ।
दीपक जी ,
वास्तव मैं यदि मैं सच कहूँ तो मुझे आपकी कविता पुरी तरह समझ नही आई ....मगर मैं यह जानता हूँ की इसमे आपकी कविता में कमी नही बल्कि मेरे शब्दकोष ज्ञान की कमी है ...आप जो भी लिखते है बहुत ही सुंदर लिखते है ....तथा इस कविता के भी भाव को थोड़ा बहुत समझकर मैं यह कहना चाहता हूँ की सचमुच आप जैसे लोगो की कविता को पढ़कर लगता है की कविता क्या होती है ....
मैं अकर्मण्य हूँ!....कविता की ''मैं
जब भी कभी
इस पीलियाग्रस्त जिस्म में
सांप्रदायिकता के लाल फफोले ढूँढता हूँ-
धर्म को संप्रदायिकता करार देकर
और इसे हीं मर्ज बताकर
राम या रहींम वाले मवाद गिनवाता हूँ।''
पंक्तियाँ बहुत ही शिक्षा-प्रद है ..
तन्हा जी .. आप नाराज़ ना होईए ! आपकी कविता पर मैं टिप्पणी नही करता तो बस इसीलिए क़ि मैं सोच ही नही पता क़ि क्या लिखूं !
मैं जिस बात को कॉम्प्लिकेटे ड समझ कर लिखने से बचता हूँ वो मुझे आपके काव्य में अक्सर पढ़ने को मिलती है !
दूसरी बात और जो मुझे सबसे ज़्यादा प्रभावित करती है क़ि आप बहुत काम शब्दों में ही इतना तीखा प्रहार कर जाते है क़ि बस ..
बहुत कुछ सीखता हूँ आपसे| अक्सर मेरी कविताओं की लंबाई अधिक हो जाती है तो कैसे कम शब्दों में काम की बात कोप्रभावी तरीक़े से कहा जाता है
यह बात आपकी कविताओं में दिखाई देती है ..
वाह क्या ख़ूब कहा है ...
"सांप्रदायिकता के लाल फफोले" तो कमाल के हैं ..
और इस अंश में तो आप एक मेडिकल वाले छात्र लग रहे हैं जो शरीर के सड़े-गले अंगों का एनालिसिस कर रहा है..
"मैं
जब भी कभी
मरोड़ती अँतरियों में भूख पलता पाता हूँ,
गरीबी , अकाल सुलगता पाता हूँ,
व्यवस्था की पाचन तंत्रिकाओं पर
देर तक झल्लाता हूँ,
जिह्वा को कोसता हूँ,
संकड़ी नलिकाएँ दिखाता हूँ।
लेकिन
भूख को दो जून रोटी मुहैया नहीं कराता।"
हर रचना की तरह यह कविता भी लाजवाब है .. सोचने को विवश किए देती है..
लेखनी को नमन !
Tanha bhai .. its really good.
"खुद को बुद्धिजीवी कहता हूँ " दिल को छू लिया आपने ....
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