छोटे छोटे कदमों से जो
दुनिया को नाप नहीं सकते
जो अंतरिक्ष की ऊँचाई-
गहराई भाँप नहीं सकते
जो कूड़े - करकट के ढेरों में
बचपन रोज़ खपाते हैं
जो रोज़ गली के कुत्तों में भी
अपना साथी पाते हैं
हलवाई की दूकानों में
मेज़ो पर साफ़े मार रहे
जिसका मतलब भी ज्ञात नहीं
उस किस्मत को धिक्कार रहे
अपनी कमीज़ से रेलों में
जो झाड़ू रोज़ लगाते हैं
जिनको हम एक अठन्नी भी
देते देते कतराते हैं
जो कुत्तों से जूठन की खातिर
भिड़ते और रगड़ते हैं
दीवाली के बम , फ़ुलझड़ियों से
जो जल जल कर मरते हैं
जो अखबारों को सड़कों पर
बेच कर गुजारा करते हैं
जो रोज़ चाय के प्यालों को
दफ़्तर पहुँचाया करते हैं ।
उन आँखों को देखो जिनमें
जाने कैसी लाचारी है
यह ही भविष्य हैं भारत के
यह ही पहचान हमारी हैं
जिनको यह भी मालूम नहीं
क्या सपने हैं , क्या है आशा
जिनको बस तुतलाकर कहने
आती निर्धनता की भाषा
क्यों गैराज़ों में बचपन को
कालिख में पलना पड़ता है
क्यों फ़ुटपाथों की सुबहों में
उठ आँखें मलना पड़ता है
कोई बतलाये सड़कों पर
क्यों ढोता है कूड़ा बचपन
क्यों पाँच बरस के बच्चों में
हो जाता है बूढ़ा बचपन ?
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
19 कविताप्रेमियों का कहना है :
आज देश मे जो स्थिति बॉल मज़दूरो की है उसका चित्रण कविता मे सुंदरता के साथ किया है,सराहना के पात्र है |
आलोक जी ,आपकी कविता में टिपण्णी करने के लिए मेरे पास शब्द नही हैं ! आपने कितने सरल शब्दों में बचपन के माध्यम से एक राष्ट्रीय समस्या को दर्शाया है ! आपकी कविता ने अनेक पहलुओं पर प्रकाश डाला है जैसे बाल मजदूरी ,बंधुआ मजदूरी ,निर्धनता ,अज्ञानता ,अधिक जनसँख्या तथा बेरोजगारी !आपकी कविता अत्यन्त गम्भीर ,संवेदनशील है !इतनी अच्छी प्रस्तुति के लिए बधाई !
alok ji bahut hi sunadar rachna hai...
badhaiyana
alok ji bahut hi sunadar rachna hai...
badhaiyana
आपकी ख़तरनाक शब्दों वाली शैली से हटकर लिखी गई इस कविता ने प्रभावित किया|आलोक जी को सरल शब्दों में कविता करते देखना एक अच्छा अनुभव रहा |सारे पहलुओं को आपने बख़ूबी छुआ|
सुंदर रचना.. बधाई
आलोक जी,
झकझोर कर रखने वाली रचना है, चित्र खींचते हुए जिस तरह आपने सवाल सम्मुख रखें हैं फिर उन सवालों से निरुत्तर लोगों को आपने कटघरे में खडा किया है वह आपकी कविता पर गहरी पकड का परिचायक ही है।
कोई बतलाये सड़कों पर
क्यों ढोता है कूड़ा बचपन
क्यों पाँच बरस के बच्चों में
हो जाता है बूढ़ा बचपन ?
आलोक जी, आपकी हर रचना का कायल हुआ जा सकता है चूंकि आप केवल गंभीर भावों पर ही पकड नहीं रखते अपितु आपका गहन शब्दकोष होने के कारण आपका शिल्प भी उत्कृष्ट होता है। जनमानस की बातें जनमानस की भाषा में उतर कर आप ही इतनी संवेदनशीलता से कह सकते है। मुझे गर्व है कि आलोक हमारे साथी हैं।
*** राजीव रंजन प्रसाद
बहुत सुंदर आलोक जी ..आज आपकी लिखी रचना एक ही बार में समझ आ गई :)
क्यों की भाषा बहुत सरल थी :) यह पंक्तियां विशेष रूप से बहुत कुछ कह गयीं
"'उन आँखों को देखो जिनमें
जाने कैसी लाचारी है
यह ही भविष्य हैं भारत के
यह ही पहचान हमारी हैं"'
आपने इन में बल मजदूरी का स्पष्ट रूप दर्शा दिया है !!
आलोक जी, आपने कविता में भारत की तस्वीर प्रस्तुत की है।
आलोक जी!
आपने एक राष्ट्रीय समस्या को मुद्दा बनाकर
अपने अदीब होने का धर्म निभाया है।
आशा है आगे भी आप सबको जगाते रहेंगे
पर
ये भविष्य के भारत की पहचान नहीं है,
भारत के भविष्य की पहचान तो आप जैसे होनहार सपूत हैं
जय हिन्द!
कोई बतलाये सड़कों पर
क्यों ढोता है कूड़ा बचपन
क्यों पाँच बरस के बच्चों में
हो जाता है बूढ़ा बचपन ?
आलोक जी बहुत ही सशक्त प्रस्तुति, सच कहूँ तो जब बचपन का ये रूप देखता हूँ तो मन भर आता है, बहुत पीडा होती है, आपने मेरी दुखती रग पर हाथ धर दिया आज
हलवाई की दूकानों में
मेज़ो पर साफ़े मार रहे
जिसका मतलब भी ग्यात नहीं
उस किस्मत को धिक्कार रहे
अपनी कमीज़ से रेलों में
जो झाड़ू रोज़ लगाते हैं
जिनको हम एक अठन्नी भी
देते देते कतराते हैं
आप तो इस बार दिनकर से "निराला' हो गए...नहुत-बहुत बधाई.....आपके तेवर इस बार साफ बदले हुए हैं...और आप ज्यादा निखरे हैं.....
निखिल
आलोक जी!!!
आपकी रचना आत्मा को झकझोरने वाली है....मर्मिक सच को उजागर किया है आपने.....हमारे देश के करोड़ो बच्चे ऐसी ही ज़िन्दगी जीते है....पर बहुत कम ही लोग है जिनकी नज़र वहां तक पहुंचती है...
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अपनी कमीज़ से रेलों में
जो झाड़ू रोज़ लगाते हैं
जिनको हम एक अठन्नी भी
देते देते कतराते हैं
उन आँखों को देखो जिनमें
जाने कैसी लाचारी है
यह ही भविष्य हैं भारत के
यह ही पहचान हमारी हैं
जिनको यह भी मालूम नहीं
क्या सपने हैं , क्या है आशा
जिनको बस तुतलाकर कहने
आती निर्धनता की भाषा
कोई बतलाये सड़कों पर
क्यों ढोता है कूड़ा बचपन
क्यों पाँच बरस के बच्चों में
हो जाता है बूढ़ा बचपन ?
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कोई बतलाये सड़कों पर
क्यों ढोता है कूड़ा बचपन
क्यों पाँच बरस के बच्चों में
हो जाता है बूढ़ा बचपन ?
आलोक जी, बहुत सही प्रश्न उठाया है आपने।
साधारण शब्दों में भी आप अपनी बात रखने में सफ़ल रहे हैं जो इस कविता की खासियत है। बधाई।
आलोक जी ,
सबसे पहले तो मैं आपको बधाई दूंगा कि इश्वर ने आपको इतना सुंदर और विशाल हर्दय दिया .... जिसके द्वारा आप किसी भी बात को इतनी संजीदगी से कह पाते है..... वास्तव में इस रचना के मध्यम से आपने समाज के उस तबके का ''जहाँ के लोग समाज का अंग होते हुए भी अपंग है ....जिनके बच्चो का भविष्य अधर में है ,...जो मानव होते हुए भी जानवरों के साथ समय बिताते हैं ....''वर्णन किया है ,वह अदभूत है ....
मैं मान सकता हूँ तथा गर्व से कह सकता हूँ कि निसंदेह आप एक संवेदनशील यक्तित्व है ....जिनके मन
में दूसरो के प्रति सहानुभूति है ......
(कोई बतलाये सड़कों परक्यों ढोता है कूड़ा बचपनक्यों पाँच बरस के बच्चों मेंहो जाता है बूढ़ा बचपन ?)
बचपन - क्या बचा है इन बच्चो के पास अपने बचपन के लिए -''यह सचमुच चिन्ता का विषय है !
लीक से हट कर कविता है और इस बार आप अपनी लीक से भी हटे हैं और आम आदमी की कविता को आम आदमी की भाषा में ही लिखा है। हर पंक्ति प्रसंशा योग्य है।
शिल्प और भाव पर तो कोई चाहकर भी कोसना चाहे तो नहीं कोस सकता। अभी तक लोग आपसे यही शिकायत करते आये हैं कि आप आमलोगों के समझने वाली कविताएँ नहीं लिखते या प्रकाशित करते थे। लेकिन इस बार वो भी शिकायत आपने दूर कर दी।
कई प्रवाहमई कविताएँ काव्यानंद तो देती हैं, लेकिन उसमें निहित समस्या या समाधान को ठीक तरह से पाठक तक नहीं पहुँचा पातीं, लेकिन आपकी यह कविता हर प्रकार से उत्तम है।
हमें आलोक शंकर पर गर्व है।
गम्भीर ,
संवेदनशील ,
सशक्त प्रस्तुति,
सच .......बचपन का ये रूप ......... ......मेरी दुखती रग पर हाथ धर दिया आपने......आलोक जी !
बधाई
"हमें आलोक शंकर पर गर्व है"-शैलेश जी ने आज कहा!
तो मैं कहूँगा कि मुझे तो आप पहले से हीं गर्व था :)
बचपन को आपने जिस तरह से प्रस्तुत किया है, वह सच्चाई का लबादा ओढे ढेरों घाव देता है।यदि ऎसा न होता तो हमारा भविष्य कैसा होता ?काश ऎसा न होता!
-विश्व दीपक 'तन्हा'
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